अखण्ड भारत : अखण्डता का अर्थ क्या? (अंतिम भाग)

अखण्ड भारत : अखण्डता का अर्थ क्या? (अंतिम भाग)

देवेंद्र स्वरूप

अखण्ड भारत : अखण्डता का अर्थ क्या? (अंतिम भाग)

भारतवर्ष की व्याख्या ब्राह्मावर्त, ब्राह्मर्षि देश, मध्य देशआर्यवर्त, कन्याकुमारी से हिमालय तक के कुमारी खंड से आगे बढ़कर नवद्वीपवती तक की गयी है। अखण्ड भारत एक बृहत्तर भारत था।

किन्तु कालक्रम से इन सीमाओं का सिकुड़ना आरम्भ हुआ। आठवीं शताब्दी में भारत में एक ऐसी विचारधारा का प्रवेश हुआ। जिसे उपासनात्मक विविधता स्वीकार्य नहीं है, जो अपनी उपासना पद्धति को ही पूर्ण और अन्तिम सत्य मानती है, जो एक पुस्तक और एक पैगम्बर के प्रति अन्धश्रद्धा न रखने वालों को काफिर कहती है, जिसकी दृष्टि में काफिरों को येन-केन प्रकारेण अपने रास्ते पर लाना ही सबसे बड़ा पुण्य कार्य है, अन्यथा उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है। इस विचारधारा में देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता के लिए कोई स्थान नहीं है। वह मजहब को ही सामूहिक पहचान का आधार मानती है। वह अन्य उपासना पद्धतियों के पूजा स्थलों के विध्वंस को मजहब की सेवा समझती है। अपने अनुयायियों को काफिरों के विरुद्ध जिहाद (धर्म युद्ध) का आदेश देती है। जिहाद में मारे जाने वालों को गाजी कहलाने व जन्नत में जाने का लालच दिखाती है। जो अपने जन्मदेश अर्थात् अरब प्रायद्वीप की सभ्यता, भाषा, वेशभूषा को भी मजहब का हिस्सा मानती है। इस विचारधारा के प्रवेश के बाद भारत में दो विचारधाराओं का लम्बा टकराव प्रारम्भ हो गया। एक विचारधारा जिसमें देशभक्ति, सहिष्णुता, विविधता एवं मानव सभ्यता के लिए कोई स्थान नहीं है, जो असहिष्णु, विस्तारवादी एवं ध्वंसकारी है। यह विचारधारा जहां पश्चिमी और मध्य एशिया, उत्तरी अफ्रीका में अनेक प्राचीन सभ्यताओं को पूरी तरह लील गई, वहां विविधता भरे विकेन्द्रित भारत में इसको एक-एक इंच आगे बढ़ने के लिए लड़ना पड़ा, यहां उसे भारत की संस्कृति को पदाक्रान्त और नि:शेष करने के बजाय अपनी अलग अस्मिता को बचाने की चिन्ता लगी रही। अनेक मध्यकालीन मौलवियों और शासकों की पीड़ा रही कि भारत में हमारी स्थिति हिन्दुओं के महासमुद्र में एक दाने के समान है। इस अस्तित्व रक्षा की चिन्ता ने भारत की प्राचीन सभ्यता व सांस्कृतिक प्रतीकों से पूर्ण सम्बंध विच्छेद का रूप धारण कर लिया।

जियाउद्दीन बरनी, शेख अहमद सरहिन्दी, शाहवली उल्लाह से लेकर सैयद अहमद बरेलवी और उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित देवबंद के दारुल उलूम का एकमात्र प्रयास भारतीय मुसलमानों को भारत की वेषभूषा, जीवन शैली, भाषा और इतिहास से दूर करके अरबी सांचे में ढालना रहा। उन्होंने इस्लाम पूर्व भारतीय इतिहास को जाहिलिया घोषित कर दिया। अपने पूर्वजों और महापुरुषों को अस्वीकार करके विदेशी आक्रमणकारियों को अपने महापुरुष मान लिए। उन्हें राम और कृष्ण स्वीकार्य नहीं, बाबर और औरंगजेब शिरोधार्य हैं। पाकिस्तान द्वारा अपने प्रक्षेपास्त्रों के नाम गोरी और गजनवी रखने के पीछे भी यही मानसिकता झलकती है। आखिर पाकिस्तानी मुसलमान भी तो विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा मतान्तरितों की ही सन्तान हैं। भारत जैसा संकट इस्लाम को शायद किसी दूसरे देश में नहीं झेलना पड़ा इसलिए भारतीय मुस्लिम मानस का विकास इन तेरह सौ वर्षों में हिन्दू विरोध के आधार पर ही हुआ है। इसीलिए उन्हें वन्देमातरम् से चिढ़ है। सर सैयद अहमद को लोकतंत्र स्वीकार नहीं था, क्योंकि उनकी दृष्टि में लोकतंत्र का अर्थ होगा बहुमत का राज अर्थात् मुस्लिम अल्पमत पर हिन्दू बहुमत का शासन। इसलिए उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस में न जाने की सलाह दी। इसी मानसिकता में से 1906 में मुस्लिम लीग का जन्म हुआ, जिसने 1947 में देश का विभाजन कराया। इस विभाजन के लिए जिन्ना नहीं, मुस्लिम समाज जिम्मेदार है। एक मुस्लिम चिन्तक अजीज अहमद ने 1964 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “स्टडीज इन इस्लामिक कल्चर इन इंडियन एनवायरमेंट” (भारतीय परिवेश में इस्लामी संस्कृति का अध्ययन) पुस्तक में भारत में मुस्लिम पृथकतावाद के विकास का विश्लेषण करते हुए पुस्तक का समापन इन शब्दों के साथ किया है कि जो लोग समझते हैं कि जिन्ना ने मुसलमानों का नेतृत्व किया या उन्होंने पाकिस्तान बनवाया, वे भूल करते हैं। जब तक जिन्ना ने मुसलमानों का नेता बनने की कोशिश की मुस्लिम समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया, जिस दिन उन्होंने मुस्लिम समाज का अनुयायी बनना तय किया उसी दिन वे उसके नेता बन गए। जिन्ना की भूमिका अपने मुवक्किल (मुस्लिम समाज) की आकांक्षाओं को आधुनिक संवैधानिक शब्दावली में प्रस्तुत करने वाले वकील से अधिक कुछ नहीं थी।

यहीं सवाल आता है कि मुस्लिम समाज ने मौलाना अबुल कलाम आजाद के बजाय जिन्ना को अपना वकील क्यों चुना? आजाद पूरी तरह मुसलमान थे, वेषभूषा में अरबी, फारसी व उर्दू भाषा में पांच बार नमाज पढ़ने में, कुरान की विद्वतापूर्ण व्याख्या में, जबकि मि. जिन्ना का इस्लाम से दूर तक वास्ता नहीं था, वे अंग्रेजी वेषभूषा में रहते थे, नमाज नहीं पढ़ते थे, उर्दू पढ़-लिख नहीं सकते थे। मुसलमानों के लिए वर्जित सुअर का मांस उन्हें पसन्द था। वरिष्ठ पत्रकार प्राण चोपड़ा ने अभी हाल में लिखा है कि विभाजन के पहले जालंधर में मुस्लिम लीग की एक सभा की रिपोर्टिंग करते समय उन्होंने देखा कि कायदे आजम जिन्ना अंग्रेजी में धुआंधार भाषण दे रहे हैं कि इस्लाम खतरे में है, उसे बचाने के लिए आपको संघर्ष करना होगा। उनके भाषण के बीच में ही पास की मस्जिद से अजान हुई जिसे सुनकर मंच पर बैठे सब लोग और श्रोताओं का विशाल समूह नमाज पढ़ने के लिए चला गया, पर कायदे आजम अपनी कुर्सी पर बैठे रहे। उन्होंने अपनी जेब से सिगार निकाला, उसमें तम्बाकू भरा और मजे से पैर फैलाकर वे धुंआ उड़ाते रहे। नमाज पूरी करके भीड़ वापस लौटी और फिर अंग्रेजी भाषा में इस्लाम की रक्षार्थ संघर्ष का भाषण शुरू हो गया। प्राण चोपड़ा आश्चर्यचकित थे कि अंग्रेजी न जानने वाली वह भीड़ इतनी श्रद्धा से क्या सुन रही थी।

इस मानसिकता का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि भारतीय मुस्लिम मानसिकता ने हिन्दू विरोध को ही मजहब मान लिया है। इस हिन्दू विरोधी और पृथकतावादी मानसिकता के कारण ही उन्होंने गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के होते कांग्रेस का साथ नहीं दिया क्योंकि वे उसे हिन्दू कांग्रेस मानते थे। नेहरू ने मार्च, 1937 में मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान छेड़ा तो उससे घबरा कर कवि इकबाल ने जिन्ना को मुसलमानों का नेतृत्व संभालने का आदेश दिया। इसी कारण उन्होंने मौलाना आजाद को ठुकराया क्योंकि उनकी दृष्टि से वे हिन्दू कांग्रेस का एजेन्ट थे। आज भी वही मानसिकता है। भारतीय जनता पार्टी को स्वतंत्रता पूर्व कांग्रेस के उत्तराधिकारी के रूप में देखते हैं। इसीलिए भाजपा के साथ जुड़ने वाले प्रत्येक मुस्लिम नेता को -वह चाहे स्व. सिकन्दर बख्त हों, चाहें आरिफ बेग या आरिफ मुहम्मद, चाहे मुख्तार अब्बास नकवी या शाहनवाज हुसैन इन सभी को वे हिन्दुओं का एजेन्ट मानते हैं।

1947 का विभाजन पहला और अन्तिम विभाजन नहीं है। भारत की सीमाओं का संकुचन उसके काफी पहले शुरू हो चुका था। सातवीं से नवीं शताब्दी तक लगभग ढाई सौ साल तक अकेले संघर्ष करके हिन्दू अफगानिस्तान इस्लाम के पेट में समा गया। हिमालय की गोद में बसे नेपाल, भूटान आदि जनपद अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण मुस्लिम विजय से बच गए। अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए उन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग अपनाया पर अब वह राजनीतिक स्वतंत्रता संस्कृति पर हावी हो गयी है। श्रीलंका पर पहले पुर्तगाल, फिर हालैंड और अन्त में अंग्रेजों ने राज्य किया और उसे भारत से पूरी तरह अलग कर दिया। यद्यपि श्रीलंका की पूरी संस्कृति भारत से गए सिंहली और तमिल समाजों पर आधृत है। दक्षिण पूर्वी एशिया के हिन्दू राज्य क्रमश: इस्लाम की गोद में चले गए, किन्तु यह आश्चर्य ही है कि भारत से कोई सहारा न मिलने पर भी उन्होंने इस्लामी संस्कृति के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया। इस्लामी उपासना पद्धति को अपनाने के बाद भी उन्होंने अपनी संस्कृति को जीवित रखा है और पूरे विश्व के सामने इस्लाम के साथ सह अस्तित्व का एक नमूना प्रस्तुत किया।

किन्तु मुख्य प्रश्न तो भारत के सामने है। तेरह सौ वर्ष से भारत की धरती पर जो वैचारिक संघर्ष चल रहा था, उसी की परिणति 1947 के विभाजन में हुई। पाकिस्तानी टेलीविजन पर किसी ने ठीक ही कहा था कि जिस दिन आठवीं शताब्दी में पहले हिन्दू ने इस्लाम को कबूल किया उसी दिन भारत विभाजन के बीज पड़ गए थे। इसे तो स्वीकार करना ही होगा कि भारत का विभाजन हिन्दू-मुस्लिम आधार पर हुआ। पाकिस्तान ने अपने को इस्लामी देश घोषित किया। वहां से सभी हिन्दू-सिखों को बाहर खदेड़ दिया। अब वहां हिन्दू-सिख जनसंख्या लगभग शून्य है। भारतीय सेनाओं की सहायता से बंगलादेश स्वतंत्र राज्य बना। भारत के प्रति कृतज्ञतावश चार साल तक मुजीबुर्रहमान के जीवन काल में बंगलादेश ने स्वयं को पंथनिरपेक्ष राज्य कहा किन्तु एक दिन मुजीबुर्रहमान का कत्ल करके स्वयं को इस्लामी राज्य घोषित कर दिया। विभाजन के समय वहां रह गए हिन्दुओं की संख्या 34 प्रतिशत से घटकर अब 10 प्रतिशत से कम रह गई है और बंगलादेश भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र बन गया है। करोड़ों बंगलादेशी घुसपैठिए भारत की सुरक्षा के लिए भारी खतरा बन गए हैं।

समाप्त

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