यूनानी इतिहासकार काबा को मंदिर क्यों कहते थे!

यूनानी इतिहासकार काबा को मंदिर क्यों कहते थे!

प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-6)

गुंजन अग्रवाल

यूनानी इतिहासकार काबा को मंदिर क्यों कहते थे!

यूनानी-इतिहासकार डियोडोरस सिक़्यूलस ने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘बिबलिओथेका हिस्टोरिक़ा’ में अरब में पवित्रतम एक ‘Temple’ (मन्दिर) का उल्लेख करते हुए लिखा है ‘…और एक मन्दिर, जो वहाँ खड़ा है, जो बहुत पवित्र है और सभी अरबों द्वारा अत्यन्त पूजनीय है।’

भविष्य महापुराण में उल्लेख है कि ‘शालिवाहन के वंश में अन्तिम दसवें राजा भोजराज हुए। उन्होंने देश की मर्यादा क्षीण होती देख दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। उनकी सेना दस हज़ार थी और उनके साथ कालिदास एवं अन्य विद्वान्-ब्राह्मण भी थे। उन्होंने सिंधु नदी को पार करके गान्धार, म्लेच्छ और काश्मीर के शठ राजाओं को परास्त किया और उनका कोश छीनकर उन्हें दण्डित किया। उसी प्रसंग में आचार्य एवं शिष्यमण्डल के साथ म्लेच्छ महामद नाम व्यक्ति उपस्थित हुआ। राजा भोज ने मरुस्थल (मक्का) में विद्यमान महादेव जी के दर्शन किए। महादेवजी की स्तुति की— “हे मरुस्थल में निवास करनेवाले तथा म्लेच्छों से गुप्त शुद्ध सच्चिदानन्दरूप वाले गिरिजापते! आप त्रिपुरासुर के विनाशक तथा नानाविध मायाशक्ति के प्रवर्तक हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।” भगवान् शिव ने राजा से कहा— “हे भोजराज! तुम्हें महाकालेश्वर तीर्थ (उज्जयिनी) में जाना चाहिए। यह ‘वाह्लीक’ नाम की भूमि है, पर अब म्लेच्छों से दूषित हो गयी है। इस दारुण प्रदेश में आर्य-धर्म है ही नहीं। महामायावी त्रिपुरासुर यहाँ दैत्यराज बलि द्वारा प्रेषित किया गया है। वह मानवेतर, दैत्यस्वरूप मेरे द्वारा वरदान पाकर मदमत्त हो उठा है और पैशाचिक कृत्य में संलग्न होकर महामद (मुहम्मद) के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। भगवान् शिव के इन वचनों को सुनकर राजा भोज सेना सहित पुनः अपने देश में वापस आ गये। उनके साथ महामद भी सिंधुतीर पर पहुँच गया। अतिशय मायावी महामद ने प्रेमपूर्वक राजा से कहा— “आपके महाराजा ने मेरा दासत्व स्वीकार कर लिया है।” राजा यह सुनकर बहुत विस्मित हुए। और उनका झुकाव उस भयंकर म्लेच्छ के प्रति हुआ। उसे सुनकर कालिदास ने रोषपूर्वक महामद से कहा— “अरे धूर्त ! तुमने राजा को वश में करने के लिए माया की सृष्टि की है। तुम्हारे जैसे दुराचारी अधम पुरुष को मैं मार डालूँगा।” कालिदास नवार्ण मन्त्र के जप से वह मायावी भस्म होकर म्लेच्छ-देवता बन गया। इससे भयभीत होकर उसके शिष्य वाह्लीक देश वापस आ गये और अपने गुरु का भस्म लेकर मदहीन हो गये। काबा में रहने वाले उन मदांधों ने संसार के मध्य (काबा) में उस भस्म को स्थापित किया, जिससे वह स्थान (मक्का) तीर्थ के समान बन गया। एक समय रात में अतिशय देवरूप महामद ने पिशाच का देह धारण कर राजा भोज से कहा— “हे राजन्! आपका आर्य धर्म सभी धर्मों में उत्तम है, लेकिन मैं उसे दारुण पैशाच धर्म में बदल दूँगा। उस धर्म में लिंगच्छेदी (सुन्नत/खतना कराने वाले), शिखाहीन, दढ़ियल, दूषित आचरण करने वाले, उच्च स्वर में बोलने वाले (अज़ान देनेवाले), सर्वभक्षी मेरे अनुयायी होंगे। यह मेरे द्वारा प्रचारित पैशाचिक धर्म होगा।’ (1)

प्रसिद्ध अंग्रेज़-इतिहासकार और ब्रिटिश-संसद-सदस्य एडवर्ड ग़िब्बन (Edward Gibbon : 1737-1794) ने अपने महान् ग्रन्थ ‘द हिस्ट्री ऑफ़ डिक़्लाइन एण्ड फ़ॉल ऑफ़ द रोमन इम्पायर’ (The History of Decline & Fall of the Roman Empire : 1776-1788) ईसाइयत से पूर्व काबा और उसके अस्तित्व के बारे में लिखा है : ‘काबा की वास्तविक प्राचीनता ईसाइयत से ऊपर है : लाल सागर के तट के वर्णन में यूनानी-इतिहासकार डियोडोरस ने टिप्पणी की है, थैमुडाइट्स और सैबेअन्स के मध्य स्थित एक प्रसिद्ध मन्दिर, जिसकी पवित्रता सभी अरबों द्वारा पूजनीय थी; रेशमी दुपट्टे की सनी, जिसका तुर्की-सम्राट् द्वारा वार्षिक नवीनीकरण किया जाता था, मुहम्मद से सात सौ वर्ष पूर्व होमेराइट्स द्वारा प्रथम समर्पित किया गया था।’ (2)

यूनानी-इतिहासकार डियोडोरस सिक़्यूलस (Diodorus Siculus : 90-27 BC) ने यूनानी-भाषा में लिखे अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘बिबलिओथेका हिस्टोरिक़ा’ (Bibliotheca Historica) में विश्व के विभिन्न भागों के वर्णन किया है। एडवर्ड ग़िब्बन द्वारा उद्धृत डियोडोरस के यूनानी-ग्रन्थ की पंक्तियों का अंग्रेजी अनुवाद किया गया है, जिसमें डियोडोरस ने समूचे अरब में पवित्रतम एक ‘Temple’ (मन्दिर) का उल्लेख किया है ‘…और एक मन्दिर, जो वहाँ खड़ा है, जो बहुत पवित्र है और सभी अरबों द्वारा अत्यन्त पूजनीय है।’ (3)

एक ऑस्ट्रियाई पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहासकार एडुअर्ड ग़्लेसर (Eduard Glaser : 1855-1908) के अनुसार ‘काबा’ शब्द दक्षिणी अरबी या इथियोपियाई (Ethiopian) शब्द ‘मिक़राब’ से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है मन्दिर। (4)

इनसाइक़्लोपीडिया ब्रिटैनिक़ा के अनुसार ‘काबा का आरम्भिक इतिहास ज्ञात नहीं है, किन्तु यह निर्विवाद है कि स्थान इस्लाम के उदय से पूर्व बहुत-से देवी-देवताओं के मन्दिरों वाला और अरब प्रायद्वीप के निवासियों का तीर्थस्थल था।’ (5) भविष्य महापुराण सहित उपर्युक्त सभी उद्धरणों से सिद्ध होता है कि मक्का में शिवलिंग अत्यन्त प्राचीन काल से विद्यमान रहा है। इसलिये उस तीर्थ को सदैव ‘मन्दिर’ (Temple) ही कहा और माना गया है न कि मस्ज़िद।

काबा की यात्रा से पूर्व हज-यात्री को अपना सिर और दाढ़ी मुँडवाने के लिए और एक विशिष्ट परिधान धारण करने के लिए कहा जाता है। ये बिना सिलाई किए हुए श्वेत वस्त्रों की दो चादरें होती हैं। एक को कमर के चारों ओर लपेटना होता है और दूसरे को कंधे पर धारण करना होता है। ये दोनों कृत्य हिंदू-देवालयों में मुण्डन कराकर एवं बिना सिलाई किए श्वेत वस्त्र धारणकर प्रविष्ट होने की पुरातन वैदिक-रीति के ही चिह्न हैं। (6)

काबा की रस्में हिंदू मंदिरों के समान हैं

हज-यात्री घड़ी की सुइयों की विपरीत दिशा में (anti-clockwise) काबा की सात परिक्रमा करते हैं। इस प्रथा को ‘तवाफ़’ (Tawaf) कहा जाता है। चूँकि मुहम्मद साहब प्रत्येक हिंदू रीति-रिवाज का विरोध करते थे, इसलिए उन्होंने अपने अनुयायियों (मुसलमानों) को काबा की उलटी परिक्रमा करने का आदेश दिया। दुनिया की अन्य किसी भी मस्ज़िद में परिक्रमा करने की प्रथा नहीं है। (7)  मन्दिरों में देव-विग्रहों की परिक्रमा करना हिंदू पूजन-पद्धति का अभिन्न अंग है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि काबा एक प्रागैस्लामी शिव-मन्दिर है, जहाँ सात परिक्रमाएँ लगाने की हिंदू-रीति का अभी भी पालन हो रहा है। (8, 9)  इतना ही नहीं, इससे यह भी सिद्ध हो रहा है कि इस्लाम की यह उद्घोषणा, कि वह मूर्तिपूजक नहीं है, सत्य नहीं है।

(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)

संदर्भः

(1)  एतस्मिन्नन्तरे म्लेच्छ आचार्येण समन्वितः।

     महामद इति ख्यातः शिष्यशाखा समन्वितः॥ 5 ॥

     नृपश्चैव महादेवं मरुस्थलनिवासिनम्।

     गंगाजलैश्च संस्नाप्य पंचगव्यसमन्वितैः।

     चन्दनादिभिरभ्यर्च्य तुष्टाव मनसा हरम्॥ 6 ॥

        भोजराज उवाच

     नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने।

     त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रवर्तिने॥ 7 ॥

     म्लेच्छैर्मुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे।

     त्वं मां हि किंकरं विद्धि शरणार्थमुपागतम्॥ 8 ॥

        सूत उवाच

     इति श्रुत्वा स्तवं देवः शब्दमाह नृपाय तम्।

     गंतव्यं भोजराजेन महाकालेश्वरस्थले॥ 9 ॥

     म्लेच्छैस्सुदूषिता भूमिर्वाहीका नाम विश्रुता ।

     आर्यधर्मो हि नैवात्र वाहीके देशदारुणे॥ 10 ॥

     वामूवात्र महामायो योऽसौ दग्धो मया पुरा।

     त्रिपुरो बलिदैत्येन प्रेषितः पुनरागतः॥ 11 ॥

     अयोनिः स वरो मत्तः प्राप्तवान्दैत्यवर्द्धनः।

     महामद इति ख्यातः पैशाचकृतितत्परः॥ 12 ॥

     नागन्तव्यं त्वया भूप पैशाचे देशधूर्तके।

मत्प्रसादेन भूपाल तव शुद्धि प्रजायते॥ 13 ॥

     इति श्रुत्वा नृपश्चैव स्वदेशान्पु नरागमतः।

     महामदश्च तैः साद्धै सिंधुतीरमुपाययौ॥ 14 ॥

     उवाच भूपतिं प्रेम्णा मायामदविशारदः।

     तव देवो महाराजा मम दासत्वमागतः॥ 15 ॥

     इति श्रुत्वा तथा परं विस्मयमागतः॥ 16 ॥

     म्लेच्छधनें मतिश्चासीत्तस्य भूपस्य दारुणे॥ 17 ॥

     तच्छ्रुत्वा कालिदासस्तु रुषा प्राह महामदम्।

     माया ते निर्मिता धूर्त नृपमोहनहेतवे॥ 18 ॥

     हनिष्यामिदुराचारं वाहीकं पुरुषाधनम्।

     इत्युक्त् वा स जिद्वः श्रीमान्नवार्णजपतत्परः॥ 19 ॥

     जप्त्वा दशसहस्रंच तदृशांश जुहाव सः।

     भस्म भूत्वा स मायावी म्लेच्छदेवत्वमागतः॥ 20 ॥

     मयभीतास्तु तच्छिष्या देशं वाहीकमाययुः।

     गृहीत्वा स्वगुरोर्भस्म मदहीनत्वामागतम्॥ 21 ॥

     स्थापितं तैश्च भूमध्येतत्रोषुर्मदतत्पराः।

     मदहीनं पुरं जातं तेषां तीर्थं समं स्मृतम्॥ 22 ॥

     रात्रौ स देवरूपश्च बहुमायाविशारदः।

     पैशाचं देहमास्थाय भोजराजं हि सोऽब्रवीत्॥ 23 ॥

     आर्यधर्मो हि ते राजन्सर्वधर्मोत्तमः स्मृतः।

     ईशाख्या करिष्यामि पैशाचं धर्मदारुणम्॥ 24 ॥

     लिंगच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रु धारी स दूषकः।

     उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम॥ 25 ॥

     विना कौलं च पशवस्तेषां भक्षया मता मम।

     मुसलेनेव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति॥ 26 ॥

     तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः।

     इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः॥ 27 ॥

—    भविष्यमहापुराण, प्रतिसर्गपर्व, 3.3.5-27; देखें— 1. भविष्यमहापुराणम् (मूलपाठ एवं हिंदी-अनुवाद सहित), बाबूराम उपाध्याय (अनु.), हिंदी-साहित्य-सम्मेलन, प्रयाग

(2)  ‘The genuine antiquity of the Caaba ascends beyond the Christian æra; in describing the coast of the Red Sea, the Greek historian Diodorus has remarked, between the Thamudites and the Sabæans, a famous temple, whose superior sanctity was revered by all the Arabians; the linen

      or silken veil, which is annually renewed by the Turkish emperor, was first offered by a pious king of the Homerites, who reigned seven hundred years before the time of Mahomet.’

         —The History of Decline & Fall of the Roman Empire, Vol. V, Chapter L, Part II : Description of Arabia and its Inhabitants, pp.223-224, Published by Strahan & Cadell, London, 1788, Reprint by The World Wide SchoolTM, Seattle, Washington, USA, November 2007.

(3)  ‘And a Temple has been set-up there, ehich is very holy and exceedingly revered by all Arabians.’                —The Bibliotheca Historica (Library of World History), Diodorus Siculus, Edited by John Skelton, H.L.R. Edwards, Frederick Millet Salter, Corpus Christi College (University of Cambridge). Library; Published by Oxford University Press for the Early English Text Society, 1971.

(4) Encyclopædia of Islam, Vol. IV, p. 318 (1927, 1978 Edition).

(5) “The early history of the Kaaba is not well known, but t is certain that in the period before the rise of Islam it was a polytheist sanctuary and was a site of pilgrimage for people throughout the Arabian Peninsula.”      —Encyclopædia Britannica

(6) भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें, पृ. 289-290

(7) वही, पृ. 291

(8) वही, पृ. 291

(9) वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास, खण्ड 2, पृ. 464

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