जर्हम कुल के बिंतोई ने जताया था विक्रमादित्य का आभार

जर्हम कुल के बिंतोई ने जताया था विक्रमादित्य का आभार

प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-13)

गुंजन अग्रवाल

जर्हम कुल के बिंतोई ने जताया था विक्रमादित्य का आभार

सम्राट् विक्रमादित्य महाकाल के परम भक्त थे। उन्होंने अरब की धार्मिक-सांस्कृतिक राजधानी मक्का में महादेव के मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया। इसके अतिरिक्त 360 मन्दिर स्थापित किए। उन्होंने बेबीलोन, फ़ारस एवं अनातोलिया (Anatolia) में भी कई मन्दिर स्थापित किए, शिक्षा का प्रसार किया। अनातोलिया के एक व्यक्ति को वहाँ का राज्यपाल बनाकर वह उज्जयिनी लौटे।

सन् 630 में हज़रत मुहम्मद की इस्लामी सेना द्वारा मक्का पर की गई चढ़ाई के समय उनकी सेना ने ये स्वर्ण-प्रशस्तियाँ लूट लीं और शेष में से अधिकांश को नष्ट कर दिया। जिस समय इन्हें लूटा जा रहा था, उस समय स्वयं मुहम्मद साहब का एक सिपहसालार-शायर हसन-बिन्-साबिक़ (Hassan-bin-Sabiq) ने नष्ट की जा रही कविताओं में से कुछ को अपने कब्ज़े में कर लिया। इस संग्रह में 5 स्वर्ण-पत्रों व 16 चमड़े पर निरेखित कविताएँ थीं।

साबिक़ की तीन पीढ़ियों ने उन कविताओं को सुरक्षित रखा। तीसरी पीढ़ी का उत्तराधिकारी पुरस्कृत होने की आशा से इन कविताओं को मदीने से बग़दाद वहाँ के ख़लीफ़ा और संस्कृति के महान् संरक्षक हारून-अल् रशीद के पास ले गया, जहाँ उसे ख़लीफ़ा के दरबारी कवि अबू-अमीर अब्दुल अस्मई ने विपुल धनराशि देकर खरीद लिया।

उन 5 स्वर्ण-पत्रों में से दो पर प्रागैस्लामी अरबी शायरों— अमर इब्न हिशाम (Amar ibn Hisham : ?-624 AD) और लबी-बिन-ए-अख़्तब-बिन-ए-तुर्फ़ा (Labi-bin-e-Akhtab-bin-e-Turfa) की कविताएँ उत्कीर्ण थीं। साहित्यप्रेमी हारून-अल्-रशीद ने अस्मई को ऐसी समस्त पूर्वकालीन और वर्तमान कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को संकलित करने का आदेश दिया, जिसे अरब का विशालतम काव्य-संग्रह कहा जा सके। उसी का परिणाम है ‘शायर-उल्-ओकुल’ का संकलन।

शेष 3 पर उत्कीर्ण कविताएँ ज़र्हम बिन्तोई (Jurhum Bintoi) नामक कवि की थीं, जो हज़रत मुहम्मद से 165 वर्ष पूर्व मक्का के प्राचीन ज़र्हम राजकुल (Jurhum Tribe) में पैदा हुआ था। इस कुल के 12 शासकों ने मक्का पर 74 ई.पू. से 206 ई. तक शासन किया था—

  1. जर्हम I इब्न झाला (Jurhum I ibn Djahla : 74-44 BC)
  2. अब्द जलिल इब्न जर्हम (Abd Djalil ibn Jurhum : 44-14 BC)
  3. जर्हम II इब्न अब्द जलिल (Jurhum II ibn Abd Djalil : 14 BC-16 AD)
  4. अब्द उल्-मेदेन इब्न जर्हम (‘Abd ul-Meden ibn Jurhum : 16-46 )
  5. थाकिला इब्न अब्द अल्-मेदेन (Thakila ibn Abd al-Meden : 46-76 )
  6. अब्द उल्-मेस्सिह इब्न थाकिला (‘Abd ul-Messih ibn Thakila : 76-106)
  7. मौधाध I इब्न अब्द उल् मेस्सिह महान् (Moudhadh I ibn Abd ul-Messih, the Great : 106-136)
  8. अम्र I इब्न मौधाध (Amr I ibn Moudhadh : 136-150)
  9. हारिथ इब्न मौधाध (Harith ibn Moudhadh : 150-160)
  10. अम्र II इब्न अल्-हारिथ (Amr II inb al-Harith : 160-180)
  11. बिचर इब्न अल्-हारिथ (Bichr ibn al-Harith : 180-190)
  12. मौधाध II अल्-असगर (Moudhadh II al-Asgar : 190-206) (1)

कवि-हृदय होने के कारण स्वयं बिन्तोई को मक्का पर शासन करने का अवसर कभी प्राप्त नहीं हुआ, तथापि उसे स्मरण था कि उसके पूर्वजों के शासनकाल में ही एक समय भारतीय-सम्राट् विक्रमादित्य ने अर्वस्थान से सांस्कृतिक-राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किया था। इसलिए बिन्तोई ने अपनी एक कविता में विक्रमादित्य के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त की। राजकुल से संबंधित होते हुए भी बिन्तोई एक उच्च कोटि का कवि था। उसे ओकाज़ मेले में आयोजित होनेवाले कवि-सम्मेलन में सर्वश्रेष्ठ कविताओं के लिए प्रथम पुरस्कार लगातार तीन वर्षों तक मिला था। बिन्तोई की वे तीनों कविताएँ स्वर्ण-पत्र पर उत्कीर्ण हो वर्षों तक मक्केश्वर महादेव मन्दिर के गर्भगृह में टंगी रहीं। उन्हीं में से एक में अरब पर पितृसदृश शासन के लिए उज्जयिनी-नरेश शकारि विक्रमादित्य का यशोगान किया गया है :

इत्रश्शफ़ाई सनतुल बिकरमातुन फ़हलमिन  क़रीमुन  यर्तफ़ीहा  वयोवस्सुरू॥1

बिहिल्लाहायसमीमिन इला मोतक़ब्बेनरन, बिहिल्लाहा यूही क़ैद मिन होवा यफ़ख़रू॥2

फज़्ज़ल-आसारि नहनो ओसारिम बेज़ेहलीन, युरीदुन बिआबिन क़ज़नबिनयख़तरू॥3

यह सबदुन्या कनातेफ़ नातेफ़ी बिज़ेहलीन, अतदरी बिलला मसीरतुन फ़क़ेफ़ तसबहू॥4

क़ऊन्नी एज़ा माज़करलहदा वलहदा, अशमीमान, बुरुक़न क़द् तोलुहो वतस्तरू॥5

बिहिल्लाहा यकज़ी बैनना वले कुल्ले अमरेना, फ़हेया ज़ाऊना बिल अमरे बिकरमातुन॥6॥ (2)

अर्थात् ‘वो लोग धन्य हैं, जो राजा विक्रमादित्य के साम्राज्य में उत्पन्न हुए, जो दानवीर, धर्मात्मा और प्रजावत्सल था॥1॥ उस समय हमारा देश (अरब) ईश्वर को भूलकर इन्द्रिय-सुख में लिप्त था। छल-कपट को ही हमलोगों ने सबसे बड़ा गुण मान रखा था। हमारे सम्पूर्ण देश पर अज्ञानता ने अन्धकार फैला रखा था॥2॥ जिस प्रकार कोई बकरी का बच्चा किसी भेड़िए के चंगुल में फँसकर छटपटाता है, छूट नहीं सकता, उसी प्रकार हमारी मूर्ख जाति मूर्खता के पंजे में फँसी हुई थी॥3॥ अज्ञानता के कारण हम संसार के व्यवहार को भूल चुके थे, सारे देश में अमावस्या की रात्रि की तरह अन्धकार फैला हुआ था। परन्तु अब जो ज्ञान का प्रातःकालीन प्रकाश दिखाई देता है, यह कैसे हुआ?॥4॥ यह उसी धर्मात्मा राजा की कृपा है, जिन्होंने हम विदेशियों को भी अपनी कृपा-दृष्टि से वंचित नहीं किया और पवित्र धर्म का सन्देश देकर अपने देश के विद्वानों को भेजा, जो हमारे देश में सूर्य की तरह चमकते थे॥5॥ जिन महापुरुषों की कृपा से हमने भुलाए हुए ईश्वर और उसके पवित्र ज्ञान को समझा और सत्पथगामी हुए; वे महान् विद्वान्, राजा विक्रमादित्य की आज्ञा से हमारे देश में ज्ञान एवं नैतिकता के प्रचार के लिए आए थे॥6॥

प्रागैस्लामी अरबी-कवि बिन्तोई द्वारा सम्राट् विक्रमादित्य की प्रशंसा में रचित उपर्युक्त कविता से अरब प्रायद्वीप से भारतवर्ष के राजनीतिक-सांस्कृतिक संबंधों का पता चलता है। यह सर्वविदित है कि भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा से भारत पर समय-समय पर अनेक विदेशी आक्रमण होते रहे। शकारि विक्रमादित्य ने अपनी वीरता और शौर्य का परिचय देते हुए 77 ई.पू. में कंधार व बेबीलोन को विजितकर अरब को भी विजित किया और उसे भारतीय साम्राज्य का अंग बनाया। उन्होंने वहाँ की धार्मिक तथा सांस्कृतिक परम्पराओं का सम्मान करते हुए वहाँ अनेक सुधार किए। भारतीय विद्वानों को वहाँ भेजकर ज्ञान का दीपक जलाया। उन विद्वानों ने वहाँ भारतीय संस्कृति का प्रसार किया। इसलिए विक्रमादित्य का सम्मान एक विजेता के रूप में न होकर एक तारणहार के रूप में हुआ। अर्वों, पारसियों, कुर्द, हूणों तथा यहूदियों ने भी विक्रमादित्य का सम्मान किया। (3)  इससे एक बार पुनः यह सिद्ध हो जाता है कि वैदिक-सभ्यता ज्ञान के प्रसार के लिए थी। इसका ध्येय यह कभी नहीं था कि धर्म के नाम पर अत्याचार किए जाएँ। (4)

सम्राट् विक्रमादित्य महाकाल के परम भक्त थे। उन्होंने अरब की धार्मिक-सांस्कृतिक राजधानी मक्का में महादेव के मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया। इसके अतिरिक्त 360 मन्दिर स्थापित किए। उन्होंने बेबीलोन, फ़ारस एवं अनातोलिया (Anatolia) में भी कई मन्दिर स्थापित किए, शिक्षा का प्रसार किया। अनातोलिया के एक व्यक्ति को वहाँ का राज्यपाल बनाकर वह उज्जयिनी लौटे। लेकिन लगभग चालीस वर्ष बाद ही, अर्थात् 33 ई.पू. में रोमन साम्राज्य ने अन्तोलिया पर आक्रमण किया, जिससे उसपर वैदिक प्रभाव कम हो गया। (5)  अभी हाल ही में कुवैत में स्वर्ण-पॉलिश की हुई गणेश जी की एक प्रतिमा वहाँ के पुरातत्त्व विभाग ने प्राप्त की है, जो निश्चय ही हिंदुस्थान के साथ अर्वस्थान के दृढ़ संबंधों की हमारी मान्यता को पुष्ट करती है। (6)

उपर्युक्त कविता के आलोक में एक तथ्य और महत्त्वपूर्ण है। भारत के कतिपय विचक्षण इतिहासकारों ने प्रथम शताब्दी ई.पू. के मालवगणाधिपति सम्राट् शकारि विक्रमादित्य को अनैतिहासिक घोषितकर चतुर्थ शताब्दी के गुप्तवंशीय सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय को ही विक्रमादित्य घोषित कर रखा है। ये इतिहासकार विक्रमादित्य को प्रथम शताब्दी ई.पू. में प्रमाणित करनेवाले किसी दस्तावेज को मान्यता नहीं देते। इसी सन्दर्भ में प्रामाणिक दस्तावेज ‘शायर-उल्-ओकुल’ को भी योजनापूर्वक नष्ट कर दिया गया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी, अस्तु!

(लेखक महामना मालवीय मिशन, नई दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा हिंदी त्रेमासिक ‘सभ्यता संवाद’ के कार्यकारी सम्पादक हैं)

  1. http://my.raex.com/~obsidian/arabia.html#Mecca
  2. Sayar-ul-Okul, p. 315
  3. मुस्लिम-शासक तथा भारतीय जनसमाज, डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2007, पृ. 11। इसमें मित्तल जी ने 77 ई.पू. की तिथि दी है, जो ठीक नहीं जमती; क्योंकि भारतीय मान्यता से विक्रमादित्य 19 वर्ष के थे, जब (57 ई.पू. में) उनका राज्याभिषेक हुआ। इस प्रकार उनका जन्म 57+19=76 ई.पू. में हुआ था।
  4. कुतुबमीनार है विष्णुध्वज, पृ. 61.
  5. डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल, पूर्वोधृत, पृ. 11-12
  6. वही, पृ. 12
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