अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जिसकी जड़ें ही भारत विरोधी हैं

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जिसकी जड़ें ही भारत विरोधी हैं

बलबीर पुंज

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जिसकी जड़ें ही भारत विरोधी हैं

कभी दोर राजपूतों का गढ़ रहा कोइल अट्ठारहवीं शताब्दी में शिया कमांडर नजफ खान के कब्जे के बाद अलीगढ़ के नाम से जाना जाने लगा। पिछले दिनों यह काफी चर्चा में रहा। प्रधानमंत्री मोदी 14 सितंबर को यहां 92 एकड़ भू-भाग में बन रहे राजा महेंद्र प्रताप सिंह राज्य विश्वविद्यालय का शिलान्यास करने पहुंचे थे। यह क्षेत्र ताले और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के कारण पहले से प्रसिद्ध है। वास्तव में, इस संस्थान का अब भी जीवंत होना-सूचक है कि भारत कितना सहिष्णु है। सभ्य राष्ट्र उच्च शिक्षा हेतु विश्वविद्यालयों का निर्माण करते हैं। किंतु अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय विश्व का एकमात्र अपवाद है, जिसने नए देश- पाकिस्तान के जन्म की रूपरेखा तैयार की। भारत का रक्तरंजित विभाजन करवाने में महती भूमिका निभाने के बाद भी, यह संस्थान अपरिवर्तित है तथा केंद्रीय अनुदान की अनुकंपा के साथ देश में विद्यमान है।

वर्तमान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जड़ें लगभग डेढ़ शताब्दी पुरानी हैं। 1875 तक यह एक स्कूल और 1877 में मुस्लिम एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज के रूप में विख्यात था। सर सैयद अहमद खां द्वारा स्थापित इस शैक्षणिक संस्था का मूल उद्देश्य मुसलमानों को अंग्रेजों का विश्वासी बनाना और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन से काटना था। इसका खाका सैयद ने असबाब-ए-बगावत-ए-हिंद लिखकर तैयार किया, जिसमें उन्होंने यह स्थापित करने का प्रयास किया कि 1857 की क्रांति में मुसलमानों की कोई भूमिका नहीं थी, जोकि सत्य से परे है। इस संघर्ष में हिंदुओं और मुसलमानों ने कंधे से कंधा मिलकर अंग्रेजों को चुनौती दी थी। सैयद ने मजहबी कारणों से अधिकांश मुस्लिमों को राष्ट्रीय आंदोलन से दूर कर दिया, जिसका सूत्रपात उन्होंने मेरठ में 16 मार्च 1888 को भाषण देकर किया। यहां सैयद ने ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ का औपचारिक शिलान्यास करते हुए कहा, ‘…मान लीजिए, अंग्रेज अपनी सेना, तोपें, हथियार और बाकी सब लेकर देश छोड़कर चले गए, तो देश का शासक कौन होगा? उस स्थिति में क्या यह संभव है कि हिंदू और मुस्लिम कौमें एक ही सिंहासन पर बैठें? निश्चित ही नहीं…।’

इस दर्शन को मुस्लिम लीग के साथ सैयद द्वारा स्थापित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों ने आगे बढ़ाया। इससे अभिभूत मोहम्मद अली जिन्ना ने वर्ष 1941 में एएमयू को ‘पाकिस्तानी आयुधशाला’ बताया। 31 अगस्त, 1941 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए लियाकत अली खान (पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री) ने कहा, ‘हम मुस्लिम राष्ट्र की स्वतंत्रता की लड़ाई जीतने के लिए आपको उपयोगी गोला-बारूद के रूप में देख रहे हैं।’

जब 30 दिसंबर, 1930 को मुस्लिम लीग के तत्कालीन अध्यक्ष मुहम्मद इकबाल ने मुसलमानों के लिए अलग देश- पाकिस्तान की आधिकारिक मांग की, तब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय मुस्लिम लीग का अनौपचारिक राजनीतिक-वैचारिक प्रतिष्ठान बन गया। 1939 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय छात्रसंघ ने जहां तत्कालीन कांग्रेस पर हिंदुत्व थोपने का आरोप लगाया, वहीं उसने भी मजहब आधारित विभाजन का प्रस्ताव पारित कर दिया। उस समय कांग्रेस के जो मुस्लिम नेता (मौलाना आजाद और प्रो. हुमायूं कबीर आदि) विभाजन का विरोध कर रहे थे, उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों ने मजहब का शत्रु माना और अवसर मिलने पर उन पर हमले भी किए।

विभाजन और स्वाधीनता पश्चात अपेक्षा थी कि एएमयू बंद होगा या फिर इसके आधारभूत चिंतन में परिवर्तन आएगा। किंतु ऐसा आज तक नहीं हुआ। 22 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया, तब एक दिन पहले तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र पाकिस्तान की सेना में भर्ती हो रहे थे। इसकी भनक लगते ही उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने देश के गृह मंत्री सरदार पटेल को चिट्ठी लिखी और विश्वविद्यालय में पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों के प्रवेश पर प्रतिबंध लग गया। फिर मई 1953 को विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति जाकिर हुसैन ने सरकार को जानकारी दी कि कई पाकिस्तानी यहां दाखिला ले रहे हैं।

इस शिक्षण संस्थान में ऐसा लंबा इतिहास है, जिसमें केंद्रीय विश्वविद्यालय होते हुए भी राष्ट्रीय आरक्षण नीति की अवहेलना करना भी शामिल है। जिन लोगों के कारण पाकिस्तान अस्तित्व में है, उनके सम्मान में उस इस्लामी राष्ट्र में कई भवनों-सड़कों का नाम रखा गया है। पाकिस्तान में जहां गांधीजी, नेताजी आदि का कोई प्रतीक नहीं है, वहीं भारत में सैयद के नाम पर कन्नूर (केरल) और बहराइच (उत्तर प्रदेश) में शिक्षण संस्थान हैं।

स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इस विरोधाभासी दर्शन को 1948 में पहचाना था। तब उन्होंने इसके दीक्षांत समारोह में भाषण देते हुए कहा था, ‘…मुझे अपनी विरासत और अपने पूर्वजों पर गर्व है, जिन्होंने भारत को बौद्धिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता प्रदान की। आप इस अतीत पर कैसा अनुभव करते है? क्या आपको लगता है कि आप भी इस विरासत के साझेदार हैं? क्या आप उसे देखकर रोमांचित नहीं होते, जो इस अनुभूति से पैदा हुई है कि हम एक विशाल खजाने के उत्तराधिकारी और संरक्षक हैं? हमारे मजहब अलग-अलग हो सकते हैं, किंतु यह उस सांस्कृतिक विरासत से वंचित होने का कारण नहीं बन जाता, जो आपका भी है और मेरा भी।’ 73 वर्ष पहले पं.नेहरू द्वारा उठाए गए उपरोक्त प्रश्न आज भी प्रासंगिक हैं।

(लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)

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