असहिष्णुता तेरे कितने रूप?

असहिष्णुता तेरे कितने रूप?

बलबीर पुंज

असहिष्णुता तेरे कितने रूप?असहिष्णुता तेरे कितने रूप?

क्या भारत सच में ‘असहिष्णु’ राष्ट्र है?- जी हां, वह भी कई शताब्दियों से। इसका नवीनतम उदाहरण दिल्ली में तब देखने को मिला, जब यहां स्थित ‘फॉरेन कॉरेस्पोंडेंट्स क्लब’ (एफसीसी) ने 5 मई को फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की प्रस्तावित प्रेसवार्ता और प्रचार संबंधित कार्यक्रम को निरस्त कर दिया। बकौल अग्निहोत्री, एफसीसी ने उन्हें फोन पर बताया, “…कार्यक्रम को रद्द करना होगा, क्योंकि कुछ बहुत शक्तिशाली मीडिया ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई है और यदि अनुमति दी तो उन्होंने सामूहिक इस्तीफे देने की धमकी दी है।” भारतीय इतिहास के रक्तरंजित अध्यायों में से एक पर बनी इस फिल्म के प्रति घृणित अभियान किसी से छिपा नहीं है। इसे कभी काल्पनिक बताने का प्रयास होता है, तो कभी इस्लामोफोबिया घोषित करने की कोशिश। यह कोई एकमात्र घटना नहीं।

ऐसा ही प्रसंग ‘दलित इंडिया चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री’ के सलाहकार और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रोफेसर गुरु प्रकाश पासवान के साथ भी हुआ था। उन्हें 14 अप्रैल को संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ.बीआर अंबेडकर की 131वीं जयंती पर दिल्ली के ‘लेडी श्रीराम कॉलेज फॉर वीमेन’ के अनुसूचित-जाति/अनुसूचित-जनजाति प्रकोष्ठ ने ऑनलाइन व्याख्यान हेतु आमंत्रित किया था। किंतु वामपंथी छात्र संगठन ‘स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया’ द्वारा इसका विरोध किए जाने पर शिक्षण संस्थान ने उनका निमंत्रण रद्द कर दिया।

उपरोक्त घटनाक्रम से कटु सत्य रेखांकित होता है कि भारत में ‘एकेश्वरवादी’ मजहबी विकृति के साथ वैचारिक असहिष्णुता सजीव है। अनादिकाल से भारत ‘बहुलतावाद’ अर्थात् ‘सह-अस्तित्व’ और ‘विविधता’ में विश्वास रख रहा है, जिसका वैदिक स्रोत ‘एकं सत् विप्रा: बहुदा वदंति’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ है। यहां ‘मतभिन्नता’ को ‘सहन’ नहीं, अपितु सहज रूप से स्वीकार किया जाता है। इसी कारण भारत ने किसी को ‘बर्दाश्त’ या ‘सहन’ नहीं किया। जब मजहबी प्रताड़ना के शिकार यहूदियों और पारसियों के साथ प्रारंभिक इस्लाम और ईसाइयत का भारत में प्रवेश हुआ, तो स्थानीय लोगों ने उन्हें उनकी पूजा-पद्धति के साथ अंगीकार किया। इस समरसता और सहजता में व्यवधान तब पड़ा, जब ‘एकेश्वरवाद’ का सिद्धांत, अर्थात ‘केवल मैं ही सच्चा, बाकी सब झूठे’- लाखों लोगों की मौत और उनकी मूल पूजा-पद्धति को ध्वस्त करने की ‘उद्घोषणा’ लेकर भारत पहुंचा, जिसने न केवल यहां के मूल बहुलतावाद को प्रभावित किया, अपितु उसने कालांतर में यहां के सांस्कृतिक-भौगौलिक स्वरूप को भी बदल डाला। वर्ष 1947 में भारत का रक्तरंजित विभाजन- इसका परिणाम है।

इसी घोर ‘असहिष्णु’ चिंतन और उससे सहानुभूति रखने वाला कुनबा स्वयं को वाम-उदारवादी (लेफ्ट-लिबरल) संबोधित किए जाने से प्रफुल्लित होता है। वास्तव में, यह जुमला जिन शब्दों के मिश्रण से बना है, वह विरोधाभास की प्रचंड पराकाष्ठा है। वामपंथ में भिन्न मत वालों के प्रति उदारता दिखाने की कोई परंपरा नहीं है। विश्व के जिस क्षेत्र को वामपंथियों ने छुआ, वहां उनसे असहमति रखने वाले और प्रतिकूल विचारों के प्रतिनिधियों को हिंसा के बल पर कुचलने की परंपरा प्रारंभ हो गई। सोवियत संघ, चीन, कंबोडिया, उत्तर-कोरिया आदि इसके उदाहरण है। वामपंथी शासन में विरोधियों को सार्वजनिक विमर्श में विचार रखने की स्वतंत्रता नहीं होती और यदि किसी ने ऐसा करने का दुस्साहस किया, तब वह या तो जेल में होगा या फिर अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। स्वतंत्र भारत की बात करें, तो राजनीतिक प्रतिद्वंता में दलों के बीच छोटी-मोटी हिंसक झड़पें देश के अलग-अलग भागों में होती रही हैं। किंतु दशकों तक वामपंथियों द्वारा शासित रहे प.बंगाल और केरल ऐसे दो राज्य हैं, जहां राजनीतिक-वैचारिक विरोधियों के प्रति हिंसा और हत्या वर्षों से सार्वजनिक जीवन के केंद्र में है। यह ठीक है कि मार्क्सवादी अब प.बंगाल में हाशिए पर हैं, परंतु उनकी हिंसक विचारधारा आज भी जीवित है। गत वर्ष प.बंगाल विधानसभा चुनाव में परिणाम घोषणा के बाद भड़की हिंसा ऐसा ही एक उदाहरण है, जिसमें विरोधियों को सबक सिखाने के लिए उनकी हत्याओं के साथ महिलाओं से बलात्कार तक किया गया था। यही नहीं, जिन क्षेत्रों में यह वर्ग प्रभावशाली है, वहां भी असहिष्णुता प्रचुर है। रामनवमी के दिन दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आयोजित पूजा में विघ्न डालने का प्रयास- इसका हालिया प्रमाण है।

वाम-उदारवादियों प्रदत्त विकृत नैरेटिव के कारण देश में भीड़ द्वारा दुर्भाग्यपूर्ण हिंसा में मारे गए अखलाक, जुनैद, तबरेज आदि के नामों से आज समस्त विश्व परिचित है। किंतु दुनिया शायद ही बाबर अली, सज्जाद अहमद खांडे, शेख वसीम बारी आदि को जानती होगी। 20 मार्च 2022 को उत्तरप्रदेश में कुशीनगर स्थित बाबर अली को उसके पड़ोस में रहने वाले मुस्लिम पट्टीदारों ने इसलिए दौड़ा-दौड़ाकर मार डाला, क्योंकि उसने विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार करने, भाजपा की प्रचंड जीत पर गांव में मिठाई बांटने और मुसलमान होते हुए ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने का ‘महा-अपराध’ किया था। कश्मीर में सज्जाद और वसीम का ‘अक्षम्य पाप’ यह था कि वे भाजपा कार्यकर्ता होने के साथ भारतपरस्त और राष्ट्रवाद की मुखर आवाज़ थे। वास्तव में, वाम-उदारवादियों की इन घटनाओं के प्रति उदासीनता उनके भारत-हिंदू विरोधी चिंतन के अनुरूप ही है।

वर्ष 1989-91 की सच्ची घटनाओं पर आधारित ‘द कश्मीर फाइल्स’ से भारत सहित शेष विश्व का वह स्वघोषित कुनबा (वाम-उदारवादी सहित) विचलित है, जो कश्मीरी हिंदुओं को मजहबी प्रताड़ना देने में या तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे या फिर उस विभीषिका को शोषण, गरीबी, क्षेत्रीय असंतुलन और भेदभाव की संज्ञा देकर न्यायोचित ठहराने का प्रयास कर रहा था। आरोप है कि यह फिल्म घृणा पैदा नहीं करती है। वास्तव में, यह मजहब आधारित व्याप्त घृणा का प्रतिबिंब मात्र है। अन्यथा क्या कारण है कि शेष भारत में हिंदू-मुसलमान कई मामलों में अंतर्विरोध या आपसी मतभेद के बाद भी एक साथ रह पा रहे है, तो कश्मीर में बहुसंख्यक मुस्लिम समाज पांच प्रतिशत हिंदुओं के साथ शांति से नहीं रह पाया? क्या इसका कोई ईमानदार उत्तर दे सकता है? अकाट्य सच तो यह है कि बहुलतावाद, पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र स्वतंत्र भारत में केवल वहीं सुरक्षित और अक्षुण्ण है, जहां हिंदू बहुसंख्यक है। इस समरसता को मजहबी-वैचारिक असहिष्णुता से आज भी कड़ी चुनौती मिल रही है।

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