आत्मविश्वास से सराबोर महिलाएं छू रहीं बुलंदियां

आत्मविश्वास से सराबोर महिलाएं छू रहीं बुलंदियां

डॉ. विशाला शर्मा

आत्मविश्वास से सराबोर महिलाएं छू रहीं बुलंदियां
आत्मविश्वास से सराबोर महिलाएं छू रहीं बुलंदियां 
आज आत्मविश्वास से सराबोर महिलाएं बुलंदियां छू रही हैं। लेकिन उनकी दुनिया को विस्तृत करने में पुरुष के योगदान की भी आवश्यकता है। एक स्वस्थ समाज के लिए भी यह आवश्यक है कि महिला को उसका आत्मसम्मान मिले।
महिलाओं का सशक्तिकरण लंबे समय से चिंता का विषय रहा है। भारत की पृष्ठभूमि पर बात करें तो भारत में नारी अधिकारों के लिए संघर्ष का आरंभ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में पुनर्जागरणकाल से हुआ। बेहरामजी मालाबारी संघ की स्थापना ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने की, जिसके द्वारा पहली बार बाल विवाह पर रोक लगाने की मांग उठाई गई। साथ ही विधवा पुनर्विवाह की शुरुआत की गई। तत्पश्चात राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई और फिर 1926 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की स्थापना की गई।
देशभर में कई सुधारवादी आंदोलन का आगाज हुआ स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती ने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया। मताधिकार का अधिकार स्त्रियों को प्राप्त होना एक महत्वपूर्ण घटना थी। जिसके फलस्वरूप स्त्री जाति में चेतना का संचार हुआ। भारतीय समाज में रमाबाई सरस्वती को महिला होने के कारण संस्कृत तथा वेद पठन के कार्य को सिखाने पर समाज में विरोध का सामना करना पड़ा और यही विरोध महिलाओं को शिक्षित करने पर सावित्रीबाई फुले ने भी सहा, सभी विरोधों का सामना करने के पश्चात भी सावित्रीबाई ने अन्य महिलाओं के मार्ग को प्रशस्त किया।
साहित्य में महिला सशक्तिकरण के नारे को बुलंदी पर लाने का प्रयास भक्तिकाल में संत मीराबाई ने किया। 500 वर्ष पूर्व मीरा का सती ना होने का निर्णय राजपूत घराने को चुनौती था, उन्होंने समाज को यह बता दिया कि नारी सामाजिक बंधनों को त्याग कर स्वतंत्र भी रह सकती है।
आज हम स्वतंत्रता की 75 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय स्त्री की तुलना अन्य विकसित देशों से करें तो आज भी पश्चिम की तुलना में वह स्वयं को तैयार नहीं कर पाई है। इसका सबसे बड़ा कारण पश्चिम में व्यक्ति केंद्रित समाज है, वहां स्त्री स्वतंत्र इकाई है, लेकिन भारत में परिवार केंद्रित समाज है, इसलिए यहां स्त्री स्वयं को समाज का अंग मानती है। इसी के फलस्वरूप भारत में संयुक्त परिवार और बड़े बुजुर्गों का आदर सम्मान आज भी बरकरार है। घर परिवार की संपूर्ण जिम्मेदारियों को संभालते हुए भारतीय स्त्री आज आदर्श बनकर उभरी है और अपनी आत्म दृढ़ता के कवच से उसने पूरे परिवार की सुरक्षा को अपना कर्तव्य मानकर स्वीकार किया है। वह समाज से कुछ अधिकार चाहती है तो उसका सदुपयोग भी करती है।
भारत की स्त्री धैर्यवान है और उसकी करुणा अंतरजगत का उच्चतम विकास है। आज उसने अपनी आंतरिक शक्ति को पहचान लिया है और इसीलिए सफलता उसके कदम चूमने लगी है। उसकी वाणी में असीम सामर्थ है। आज की स्त्री सामाजिक, सांसारिक हादसे से उबर कर निर्णय लेना और बौद्धिकता के साथ उस पर अमल करना सीख गई है। इसीलिए भारतीय समाज के विकास क्रम में तेजी से बदलाव आ रहा है।
हमारे देश, समाज, धर्म, संस्कृति, राजनीति व आंदोलनों में महिलाओं की निर्णायक और महत्वपूर्ण उपस्थिति इस बात की सूचक है कि वह मजबूत है। भारतीय महिलाओं के कामकाजी एवं सशक्त रूप को देखकर लोगों के विचारों में भी बदलाव आने लगा है। इसका सबसे सशक्त उदाहरण वैश्विक महामारी के समय का ले सकते हैं।
पिछले वर्ष विश्व को भयाकुल कर देने वाले कोरोना काल में भारतीय स्त्री ने अपनी कर्मठता का परिचय दिया। उसके अनेकों रूप समय-समय पर हमारे समक्ष आते हैं, सहचर-सखा-संगिनी, सहायक और इस भारतीय ममतामयी मां को परिभाषित करना कठिन है। यदि हम अखबार की ताजा सुर्खियों पर नजर डालें तो भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की प्रथम महिला अध्यक्ष माधवी पुरी बुच का नाम सामने आता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कुलपति के पद पर शांतिश्री पंडित विराजमान होती हैं। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में 19 महिला अध्कारियों के चयन की खबर दिखाई देती है। महिला क्रिकेट खिलाड़ी मिताली राज वनडे में सर्वाधिक रन बनाकर कीर्तिमान स्थापित करती हैं। कमला हैरिस भारतीय मूल से संबंध रखने वाली अमेरिका की प्रथम महिला उपराष्ट्रपति बनती हैं।
अतः यह सच्चाई अब समक्ष आने लगी है कि महिलाएं संघर्ष करती हैं। हार मान कर घर नहीं बैठतीं। नई ऊर्जा के साथ उठती हैं। ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिनका अनुभूति मंडल उनके जीवन मूल्य उनकी संवेदना का धरातल विशिष्ट होता जा रहा है। उनकी कल्पना शक्ति और अंतर्दृष्टि अधिक खुली और साफ दिखाई दे रही है। जीवन के हर क्षेत्र में उनकी व्यापक स्थिति से अब इनकार नहीं किया जा सकता। किंतु एक पंख से उड़ान नहीं भरी जा सकती उसका दूसरा पंख बनकर उसमें चेतना समानता और सम्मान का भाव जागृत करने की आवश्यकता है।
महिलाओं की दुनिया को विस्तृत करने में पुरुष के योगदान की भी आवश्यकता है। एक स्वस्थ समाज के लिए भी यह आवश्यक है कि महिला को उसका आत्मसम्मान मिले। इसलिए भारतीय समाज इस सोच से उबरे कि महिला सशक्तिकरण से पुरुषों के अधिकारों का बंटवारा होगा। यह प्रश्न तो विश्व की आधी जनसंख्या के अधिकारों का प्रश्न है। व्यवस्था का प्रश्न है।
(लेखिका चेतना कला वरिष्ठ महाविद्यालय औरंगाबाद में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष हैं)
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