आपातकाल
प्रशांत पोळ
25 जून 1975 की वह काली रात..
दुनिया के सबसे बड़े
लोकतांत्रिक देश में, लोकतंत्र का गला,
बर्बरता के साथ घोटने का
विषैला कार्य प्रारंभ हो चुका था…
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने
धारा 352 (1) के अंतर्गत
देश में आतंरिक आपातकाल लागू किया…
उन्हें तो, उस आदेश पर
हस्ताक्षर करने के
मात्र तीस मिनट पहले तक
यह मालूम ही नहीं था,
कि देश में आपातकाल लगने वाला है..!
आपातकाल यानि
आपके / हमारे विचार करने पर
संपूर्ण पाबंदी
जो कुछ विचार होगा, सोच होगी
वह केवल और केवल सरकार की
अर्थात प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की
आप और हम
न तो कुछ लिख सकते थे, न बोल सकते थे…!
समाचार पत्रों का
एक – एक अक्षर, छपने से पहले जांचा जाता था
अगर लिखा हुआ सरकार के विरोध में है
या दूर दूर तक ऐसा अंदेशा भी है,
तो तुरंत उसे निकाल दिया जाता था
सभा / जुलूस / बैठकों आदि पर तो
सीधा प्रतिबंध था।
26 जून की प्रातः बेला में
देश को यह समाचार मिला.
इससे पहले
अधिकतर विरोधी नेताओं को
25 जून की रात को ही
बंदी बना लिया गया था।
जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी बाजपेयी,
मोरारजी देसाई, लालकृष्ण आडवाणी, मधु लिमये…
सारे जेल के अंदर थे….।
4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर
प्रतिबंध लगा
संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस जी
को तो संघ पर प्रतिबंध लगाने के पहले ही
गिरफ्तार कर लिया गया
संघ के अनेक वरिष्ठ कार्यकर्ता
जेल की सीखचों में बंद थे।
यह आपातकाल 21 महीने चला
19 महीनों बाद, विजय के आत्मविश्वास के साथ,
इंदिरा गाँधी ने, 18 जनवरी 1977 को
आमचुनावों की घोषणा की
21 मार्च, 1977 को
लोकसभा चुनावों के परिणामों में
यह स्पष्ट हो गया
की लोकतंत्र का गला घोटने वाली कांग्रेस
बुरी तरह से परास्त हुई है,
अनेक राज्यों में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला
आपातकाल के तीनों दलाल –
इंदिरा – संजय – बंसीलाल
चुनाव हार चुके हैं…
तब जाकर आपातकाल हटाया गया।
इक्कीस महीने…
25 जून 1975 की रात से
21 मार्च 1977 की रात तक…
इन इक्कीस महीनों में
इस देश को
इंदिरा गाँधी नाम के तानाशाह ने
बंधक बनाकर रखा था
इन इक्कीस महीनों में
पूरे देश में
कांग्रेस ने अपना पैशाचिक नग्न नृत्य
जारी रखा था
इन इक्कीस महीनों में
आपातकाल का विरोध करने वाले
अनेक कार्यकर्ताओं की, संघ के स्वयंसेवकों की
जानें गयीं…!
संघ के अखिल भारतीय व्यवस्था प्रमुख
पांडुरंग क्षीरसागर को
अस्वस्थ होने के बाद भी
पैरोल नहीं मिला
उनकी कारावास में ही मृत्यु हुई।
ऐसे कई स्वयंसेवक जेल में ही चल बसे
कइयों को तो इतनी नृशंस यातनाएं दी गईं
कि वे पूरी जिंदगी अपाहिज बने रहे
वर्धा के पवनार आश्रम में
सर्वोदयी कार्यकर्ता, प्रभाकर शर्मा ने,
आपातकाल के विरोध में
खुद को जिंदा जला लिया, आत्मदाह कर लिया।
इस आपातकाल का निडरता के साथ, निर्भयता के साथ
विरोध किया तो
संघ के स्वयंसेवकों ने.
एक जबरदस्त भूमिगत आंदोलन चलाया…
भूमिगत पर्चे निकालना,
उनका वितरण करना…
14 नवंबर 1975 से
देशव्यापी भव्य सत्याग्रह करना
हजारों युवा स्वयंसेवकों द्वारा
अपना पुरषार्थ प्रकट करते हुए
देश की जेलों को भर देना..
ऐसा बहुत कुछ…!
संघ के सरकार्यवाह माधवराव मुले
भूमिगत थे
अनेक वरिष्ठ प्रचारक, कार्यकर्त्ता
विपत्तियों की परवाह न करते हुए,
दमन की चिंता को दूर रखते हुए,
गिरफ्तारी के डर को धता बता कर…
निर्भयता के साथ
आपातकाल का विरोध कर रहे थे।
21 महीनों का यह कालखंड
हमारे लोकतंत्र के इतिहास में,
हमारे स्वाधीन भारत के स्वर्णिम इतिहास में
एक काला अध्याय है।
लोकतंत्र की मशाल को
सतत प्रज्वलित रखने के लिए
इस काले अध्याय का स्मरण करना,
इंदिरा गाँधी के,
कांग्रेस के, उन काले कारनामों को
याद करना
आवश्यक है
ताकि भविष्य में किसी का साहस ना हो
इस लोकतंत्र की
धधकती मशाल को
हाथ लगाने का…