क्या मुस्लिम आक्रांताओं के कृत्यों के लिए वर्तमान मुसलमान जिम्मेदार है?

क्या मुस्लिम आक्रांताओं के कृत्यों के लिए वर्तमान मुसलमान जिम्मेदार है?

बलबीर पुंज

क्या मुस्लिम आक्रांताओं के कृत्यों के लिए वर्तमान मुसलमान जिम्मेदार है?क्या मुस्लिम आक्रांताओं के कृत्यों के लिए वर्तमान मुसलमान जिम्मेदार है?

क्या वर्तमान भारतीय मुसलमान, इस्लामी आक्रांताओं के अपराध के लिए जिम्मेदार है? काशी स्थित ज्ञानवापी परिसर घटनाक्रम के बीच बीते दिनों एआईएमआईएम के नेता अकबरुद्दीन ओवैसी ने क्रूर मुस्लिम आक्रांता औरंगेजब की महाराष्ट्र में औरंगाबाद के खुल्दाबाद स्थित कब्र पर चादर और फूल चढ़ाए। वर्तमान समय में इसका क्या निहितार्थ निकाला जाए? क्या औरंगजेब की कब्र पर जाकर सज़दा करके देश का एक मुस्लिम वर्ग उन कुकृत्यों का अनुमोदन नहीं कर रहा है, जिसमें इस आततायी ने मजहबी कारणों से सोमनाथ-काशी सहित सैकड़ों मंदिरों को ध्वस्त किया, तो असंख्य गैर-मुस्लिमों के साथ नौवें सिख गुरु तेग बहादुर की नृशंस हत्या से लेकर वीर मराठा संभाजी महाराज आदि को अमानवीय यातना देकर मौत के घाट उतार दिया था? यदि जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर और गांधीजी की निर्मम हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे का महिमामंडन करना ‘पाप’ है और उससे क्षोभ-क्रोध उत्पन्न होता है, तो औरंगजेब पर गौरवान्वित करना और इस पर लोकतंत्र-मानवता-संविधान के स्वयंभू रक्षकों का मौन समर्थन, कैसे उचित और स्वीकार्य हो सकता है?

खंडित भारत सहित भारतीय उपमहाद्वीप में औरंगजेब जैसे पिशाची इस्लामी आक्रांताओं के रक्तरंजित चरित्र और शासनकाल को उनके समकालीन इतिहासकारों और दरबारियों द्वारा लिखे वृतांतों से स्पष्ट है। इस्लामी दरबारी सकी मुस्तईद खान द्वारा लेखबद्ध ‘मासिर-ए-आलमगीरी’ नामक पुस्तक औरंगजेब प्रदत्त क्रूरता की संहिता है, जिसमें इसका स्पष्ट उल्लेख है कि औरंगजेब द्वारा जारी फ़रमान के बाद 18 अप्रैल-2 सितंबर 1669 के बीच काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर वहां मस्जिद का निर्माण कर दिया गया था और ‘काफिर’ हिंदुओं के जबरन इस्लाम में मतांतरण का आदेश भी पारित किया था। बात केवल पवित्र काशी तक सीमित नहीं। इसी पुस्तक में मथुरा स्थित प्राचीन केशवराय मंदिर को ध्वस्त करने और श्रीकृष्ण नगरी का नाम इस्लामाबाद करने का भी वर्णन है। इसके अतिरिक्त, इसमें तत्कालीन जोधपुर में कई मंदिरों-मूर्तियों के विध्वंस पश्चात अवशेषों को जामा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे गाड़ने का भी विस्तृत उल्लेख है।

सनातन भारत को जख्मी केवल औरंगेजब ने ही नहीं किया। इस जैसे कई इस्लामी आक्रांता थे, जिन्होंने ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित होकर भारत पर हमले के दौरान स्थानीय हिंदुओं के साथ बौद्ध-जैन अनुचरों और सिखों को ‘मौत या इस्लाम’ में से कोई एक चुनने विकल्प दिया। यह चिंतन आज विश्व शांति के लिए चुनौती बना हुआ है। वर्ष 712 में जब अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला करके राजा-दाहिर को परास्त किया, तब उसने गैर-मुस्लिमों को ‘जिम्मी/धिम्मी’ घोषित करके उनपर शरीयत अनुरूप जीवित रहने हेतु कर (ज़जिया) थोप दिया। इसे कालांतर में कई इस्लामी आक्रांताओं ने लागू किया। इस घृणा प्रेरित जिहाद को महमूद गजनवी, मुहम्मद गोरी से लेकर गुलाम इस्लामी वंशों (कुतुबुद्दीन ऐबक और खिलजी सहित) और बाबर आदि ने आगे बढ़ाया। जब बाबर का सामना मेवाड़ शासक राणा सांगा के शौर्य और उनके विशाल सैन्यबल से हुआ, तब उसने अपनी दुर्बल सेना को ‘काफिर’ हिंदुओं से ‘इस्लाम की रक्षा’ हेतु जिहाद के लिए प्रेरित किया था। इससे स्पष्ट होता है कि बाबर ने ‘काफिर’ भारत में इस्लामी परचम लहराने हेतु युद्ध किया था, जिसके बाद मुगल साम्राज्य की नींव पड़ी। यही कारण है कि कालांतर में अकबर के निर्देश पर चित्तौड़ युद्ध में 30 हजार से अधिक निरपराध असैन्य हिंदुओं की हत्या की गई, अपनी विजय की गहराई को मापने हेतु मृत हिंदुओं के देह से रक्तरंजित जनेऊ उतारकर तौला गया, कांगड़ा स्थित ज्वालामुखी मंदिर के परिसर में जहांगीर ने गाय को जिबह किया, पुष्कर में भगवान विष्णु के अवतार वराह के मंदिर को ध्वस्त किया, तो पांचवें सिख गुरु अर्जन देवजी को इस्लाम नहीं अपनाने पर मौत के घाट उतार दिया। टीपू सुल्तान का शासनकाल भी कम क्रूर नहीं था। इसका मूर्त रूप उसके पत्रों की श्रृंखला और वह तलवार है, जिसमें ‘काफिर’ हिंदुओं को मारने का निर्देश और उस पर गौरवान्वित होने का साक्ष्य मिलता है। अपने इसी मजहबी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु जिन विदेशी शक्तियों से टीपू ने सहायता मांगी थी, उसमें अफगानिस्तान के तत्कालीन इस्लामी शासक ज़मन शाह दुर्रानी भी शामिल था। क्या ऐसे इस्लामी आक्रांताओं को राष्ट्र निर्माताओं और स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में रखा जा सकता है?

रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा यहूदियों के मजहबी दमन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जर्मन तानाशाह और जन्म से ईसाई एडोल्फ हिटलर के निर्देश पर जिस प्रकार नाजी सेना ने अनुमानित 50-60 लाख यहूदियों की हत्याएं की थी, उस पर शेष दुनिया के साथ ईसाई बहुल जर्मनी के शत-प्रतिशत लोग नाजी हिटलर के कुकृत्यों पर शर्मिंदा होते हैं और उसकी विरासत को अस्वीकार करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय उपमहाद्वीप का कोई भी विवेकपूर्ण, संवेदनशील और औसत शिक्षित व्यक्ति, विदेशी इस्लामी हमलावरों द्वारा यहां की मूल सनातन बहुलतावादी संस्कृति को रौंदने की भर्त्सना अवश्य करेगा और उनकी कलंकित परछाई से भी स्वयं को दूर रखने का प्रयत्न करेगा। क्या ऐसा हो रहा है?

जिस वैचारिक नींव पर खंडित भारत के पड़ोस में पाकिस्तान और बांग्लादेश खड़े हैं, जिस पर 1947 के बाद से इस्लामी कब्जा है- उसकी और मुस्लिम आक्रांताओं की मानसिकता- एक ही विषाक्त दर्शन से प्रेरित है। यह पाकिस्तानी मिसाइलों-युद्धपोत के नामों- गजनवी, गौरी, बाबर, अब्दाली, टीपू सुल्तान आदि से स्पष्ट भी है। भारतीय मुस्लिम समाज में भी एक ऐसा वर्ग है, जो वामपंथियों और स्वयंभू सेकुलरवादियों के आशीर्वाद से उन्हीं आक्रमणकारियों को अपना प्रेरणास्रोत मानता है। यही नहीं, यह कुनबा इस भावना पर भी गौरवान्वित होता है कि 600-700 वर्षों तक हिंदू उनका गुलाम रहा था। यह या तो अर्धसत्य है या फिर सफेद झूठ। वर्ष 1707 में औरंगजेब की मृत्यु तक भारत में दर्जनों स्थानीय हिंदू शासकों, साधु-संतों और सिख गुरुओं की परंपराओं ने इस धरती की मूल सनातन संस्कृति की रक्षा हेतु भीषण प्रतिकार किया था। इन्हीं सतत संघर्षों का परिणाम था कि इस्लामी आक्रांता संपूर्ण भारत पर अपना एकाधिकार नहीं जमा पाए। जब अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा करना प्रारंभ किया, तब तत्कालीन पंजाब पर धर्मरक्षक सिखों का साम्राज्य था, राजस्थान में राजपूत-जाटों का वर्चस्व, दक्षिण में मराठाओं का शौर्य और ग्वालियर, त्रावणकोर, कोच्चिन आदि तक अनेकों नेक सनातन संस्कृति के ध्वजावाहक- हिंदू शासक स्वयं को इस्लामी शक्तियों से मुक्त कराने में सफलता पा चुके थे।

यह अकाट्य सत्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप के शत-प्रतिशत मुसलमान मध्य-एशिया, तुर्की और अरब से भारत आए आक्रांताओं के बजाय यहां की सनातन संस्कृति की संतानें हैं, क्योंकि यहां के 99 प्रतिशत मुस्लिमों के पूर्वज या तो हिंदू थे या बौद्ध, जिन्होंने मध्यकाल में तलवार के आगे विवश होकर इस्लाम को अपना लिया। पूजा-पद्धति बदलने से पूर्वज और मूल संस्कृति नहीं बदलती। परंतु विश्व के इस भूखंड में एक बड़ा आश्चर्य है कि जिनके पुरखे मजहबी हिंसा के शिकार हुए और उनका बलात् मतांतरण हुआ, वह स्वयं को अपने पूर्वजों के ऊपर अत्याचार करने वाले विदेशियों से जोड़कर गर्व महसूस करते हैं। अन्य कष्टदायी पक्ष यह भी है कि वही मुस्लिम वर्ग मजहबी हिंसा झेलने वाले अपने पूर्वजों के प्रति कोई सहानुभूति भी प्रकट नहीं करता। जब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस प्रकार की विसंगति रहेंगी, तब तक ना तो भारत-पाकिस्तान संबंधों में कोई सुधार आएगा और ना ही खंडित भारत में हिंदू-मुस्लिमों के बीच स्वस्थ सह-अस्तित्व की भावना स्थापित होगी।

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