निडर, निर्भीक, कार्यमग्न गोपाळराव जी..

निडर, निर्भीक, कार्यमग्न गोपाळराव जी..

प्रशांत पोळ

निडर, निर्भीक, कार्यमग्न गोपाळराव जी..निडर, निर्भीक, कार्यमग्न गोपाळराव जी..

मैंने गोपाळराव जी को पहली बार कब देखा, मुझे स्मरण नहीं। बचपन से देख रहा हूं। आज प्रातः उनकी अंतिम सांसों तक वही आत्मीयता, वही कार्य की लगन, वही हंसमुख चेहरा और वही नई – नई बातों और परियोजनाओं की चर्चा..!

मैं जब छोटा था तब, और फिर मेरे बच्चे छोटे थे तब, गोपाळराव जी घर में आते और आते ही जोर से आवाज लगाते थे, “अरे, आईला सांग, भोपाळ चा गोपाळ जेवायला आलाय..” पूरे मध्यप्रदेश में, घर – घर में, चूल्हे तक पहुंच रखने वाले प्रचारक थे वे। उनका घर में आना एक चैतन्य का आगमन रहता था। घर के बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक, उनके आगमन की प्रतीक्षा करते थे। गोपाळराव जी ने मध्यप्रदेश में संघ के घरों को एक पूरा परिवार बना दिया था।

गोपाळराव जी निडर थे, निर्भीक थे, असामाजिक प्रवृत्तियों के विरोध में डटकर खड़े रहने वालों में से थे। वर्ष १९७८ की घटना है। गोपाळराव जी भोपाल से जबलपुर ट्रेन से आ रहे थे। साथ में एक और प्रचारक थे। ट्रेन मे कुछ गुंडे अन्य सहयात्रियों को परेशान कर रहे थे। महिलाओं को छेड़ रहे थे। बाकी यात्री चुपचाप देख रहे थे। गोपाळराव जी ने यह देखा, तो स्वाभाविकतः उन गुंडों का विरोध किया। किंतु गुंडे कहां मानने वाले! वे संख्या में भी अधिक थे। उन्होंने गोपाळराव जी की खिल्ली उड़ाना चालू किया। वे नहीं जानते थे कि उनका मुकाबला किससे है..! गोपाळराव जी ने, महिलाओं को छेड़ने वाले उनके मुखिया के गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया। बस, फिर क्या, गुंडे तैश में आ गए। उन्होंने चाकू निकाले। किंतु गोपाळराव जी अडिग थे। उन हथियारों से लैस गुंडों के सामने निर्भयता के साथ खड़े थे। उनका यह आत्मविश्वास देख कर अन्य सह-यात्री भी उनके साथ हो लिये। इस बदलते वातावरण को देखते हुए गुंडों ने एक कदम पीछे लेना ठीक समझा। गुंडों ने कहा, ‘ठीक है, जबलपुर स्टेशन पर उतरिये, फिर देखते हैं…’

गोपाळराव जी को मदन महल स्टेशन पर उतरना था। किंतु वह जबलपुर स्टेशन तक आए। निर्भीकता के साथ स्टेशन पर खड़े रहे। परंतु उनका यह साहस देख कर वो गुंडे भाग गए।

ये थे गोपाळराव..! इसलिये अस्सी के दशक में जब पंजाब अशांत था, तब योजना के अंतर्गत गोपाळराव जी को पंजाब भेजा गया। वहां भी उन्होंने साहस से काम किया। गुरु ग्रंथसाहब को पूरा पढ़ा। गुरुवाणी की अनेक चौपाइयां कंठस्थ कीं। पंजाब से आने के बाद सिख संगत का जबरदस्त काम किया..

इन सब से ऊपर, गोपाळराव जी याने ‘संस्कार’। घर में पवित्रता लाने वाले संवाहक थे वे। उनसे किसी भी विषय में राय ली जाए, ऐसे मित्र भी थे और बुजुर्ग भी। वे ‘ममत्व’ की प्रतिमूर्ति थे। अनेकों के लिये वे प्रेरक शक्ति थे। उनकी प्रेरणा से ही अनेक पुस्तकों का अनुवाद हुआ। अनेक पुस्तकों का लेखन हुआ। अनेक परियोजनाएं प्रारंभ हुईं।

उनकी बिगड़ी हुई तबियत, उनको हुआ कैंसर यह सब देखते हुए उनका जाना, अनपेक्षित तो नहीं था, किंतु अतीव कष्टदायक था। आज मध्यप्रदेश के अनेक घरों में उनके अपने दादाजी / नानाजी जाने का शोक हो रहा होगा। एक संवेदनशील पुण्यात्मा, जो हजारों परिवारों का आधार स्तंभ था, आज हमें छोड़कर चला गया..!

अश्रुपूरित, विनम्र श्रद्धांजलि
ॐ शांति !

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