गठबंधन सरकार और विकास में गांठ

गठबंधन सरकार और विकास में गांठ

बलबीर पुंज

गठबंधन सरकार और विकास में गांठ

बृहस्पतिवार (2 दिसंबर) को एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक में दो समाचार प्रकाशित हुए। सतह पर दोनों का कोई संबंध नहीं दिखता, किंतु यदि उन्हें एक साथ जोड़कर आकलन करें, तो उसमें दोनों खबरों के बीच का गहरा नाता और उसमें छिपा संदेश स्पष्ट है। उस समाचार पत्र के एक सम्मेलन में साक्षात्कार देते हुए प्रख्यात अर्थशास्त्री, अमेरिका के राष्ट्रीय आर्थिक परिषद के पूर्व निदेशक और पूर्व राज्यकोष सचिव लॉरेंस हेनरी समर्स ने कहा, ’21वीं सदी की दूसरी तिमाही में भारत का वैश्विक अर्थव्यवस्था में दबदबा होगा।’ उनके अनुसार, ‘भारत अगले 15 वर्षों तक 10 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर प्राप्त कर सकता है।’ परंतु इसके लिए उन्होंने एक शर्त रख दी। वे कहते हैं- इस संबंध में ऐसी सार्वजनिक नीतियों की आवश्यकता है, जो भारत में ऐतिहासिक रूप से कठिन रही हैं। इसके लिए एक ऐसी सरकार की आवश्यकता है, जो न केवल अर्थव्यवस्था को सक्रिय रखे और उसमें सुधार लाए, साथ ही आर्थिकी को सरकारी सख्ती और नियंत्रण से मुक्त रखने के लिए तैयार भी रहे। इसके लिए ‘राजनीतिक स्थिरता’ की भावना होना आवश्यक है। लॉरेंस के विश्लेषण को इसलिए भी गंभीरता से लेने की आवश्यकता है, क्योंकि हालिया इतिहास के वैश्विक आर्थिक तनाव में अमेरिकी आर्थिकी को आकार देने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

इस पृष्ठभूमि में उसी समाचार पत्र में दूसरी तरफ खबर थी, जिसमें प.बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस अध्यक्षा ममता बनर्जी ने कहा है- ‘कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील (संप्रग) गठबंधन अब नहीं है।’ ममता ने यह वक्तव्य मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकंपा) के अध्यक्ष शरद पवार से भेंट पश्चात दिया था। विपक्षी दलों के हालिया आचरण से स्पष्ट है कि उनकी लड़ाई भाजपा के साथ बाद में, और कांग्रेस के विरुद्ध पहले है। यह दल उस स्थान को प्राप्त करने हेतु संघर्षरत है, जो एक मुख्य विपक्षी दल के रूप में अभी कांग्रेस के पास है। स्वाभाविक है कि इन दलों और कांग्रेस में कोई सकारात्मक सहयोग न तो चुनाव से पहले है और ना ही बाद में होगा। इन सभी पार्टियों को जो तत्व एक सूत्र में बांधता है, वह उनका विशुद्ध भाजपा-मोदी विरोध है- जो केवल उनके संबंधों के नकारात्मक पहलू को उजागर करता है।

अर्थशास्त्री लॉरेंस हेनरी समर्स ने भारत के उज्जवल भविष्य में ‘राजनीतिक अस्थिरता’ और ‘ऐतिहासिक कठिनाइयों’ को अवरोधक बताया है। क्या भारत में 1989-2014 का कालखंड समर्स के इन्हीं विचारों को प्रमाणित नहीं करता है? तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरता और उसकी सतत संभावना ने भारत से बड़ी भारी कीमत वसूली है। दो वर्ष पहले आई फोर्ब्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1985 में ‘लोकतांत्रिक’ भारत और ‘अधिनायकवादी’ चीन में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बराबर- 293 डॉलर प्रति व्यक्ति था। किंतु 2017-18 में चीन की प्रति व्यक्ति आय, भारत की तुलना में 4 गुना अधिक हो गई। आज चीन एक बड़ी विश्व शक्ति है, जो भारत, अमेरिका सहित शेष विश्व के कई देशों के लिए चुनौती बना हुआ है।

उन 25 वर्षों में जहां चीन में मजबूत और सक्षम नेतृत्व रहा, वही भारत की केंद्रीय राजनीति में इसका नितांत अभाव दिखा। इस बिंदु की सच्चाई- चीन स्थित थ्री गॉर्जिज बांध और भारत स्थित सरदार सरोवर बांध से स्पष्ट है। जिस 6,300 कि.मी. लंबी और एशिया की तीसरी बड़ी यांगत्जी नदी पर चीनी बांध बना है- वह 13 नगरों, 140 कस्बों, 1,350 गांवों को लील चुका है, तो इस बांध से 13 लाख लोग विस्थापित हो गए। चीन ने इस बांध को दस वर्षों (1994-2003) में बना दिया। इसके विपरीत भारत में नर्मदा नदी पर बना सरदार सरोवर बांध, जिसने 178 गांवों को प्रभावित किया और जिससे चीनी बांध की तुलना में बहुत कम लोग विस्थापित हुए- उसे पूरा करने में भारत को 56 वर्ष लग गए। इसकी नींव 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी, जिसके वित्तपोषण हेतु विश्व बैंक वर्ष 1985 में सहमत हुआ। जैसे ही अप्रैल 1987 में नर्मदा बांध का निर्माण प्रारंभ हुआ, ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ (एनबीए) ने मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर इसका विरोध करना शुरू कर दिया और 1995 में सर्वोच्च न्यायालय का रुख करके इसपर रोक लगवा दी, जो चार वर्षों तक जारी रही। फिर अगले 18 वर्षों में अदालती चक्करों में फंसे रहने और अन्य अवरोधकों को पार करके यह बांध 2017 में पूरी क्षमता के साथ शुरू हुआ- जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था।

नर्मदा बांध को पूरा करने में ‘लोकतांत्रिक’ भारत को ‘निरंकुश’ चीन की तुलना में पांच गुना अधिक समय लगा। इसका सबसे बड़ा कारण 1989-2014 के बीच भारत की वह समझौतावादी खिचड़ी गठबंधन सरकार रही, जिनमें कुछ अपवादों को छोड़कर राष्ट्रहित गौण रहा, तो जोड़तोड़ की राजनीति हावी रही। इस 25 वर्ष के कालखंड में भारत में 10 सरकारें और आठ प्रधानमंत्री हुए- वी.पी. सिंह 11 माह, चंद्रशेखर 4 माह, नरसिम्हा राव पांच वर्ष, अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन, एच.डी. देवेगौड़ा 11 माह, इंद्र कुमार गुजराल 11 माह, वाजपेयी फिर से 13 माह व पांच वर्ष और डॉ.मनमोहन सिंह 10 साल। इस पृष्ठभूमि में ‘निरंकुश’ अधिनायकवादी चीन में तीन सर्वोपरि नेता (राष्ट्रपति) हुए- जियांग जेमिन 15 वर्ष, हू जिंताओ 8 वर्ष और शी जिनपिंग वर्ष 2012 से लगातार।

इसका अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं है कि राजनीति में गठबंधन करके सरकार बनाना गलत है और भारत ने लोकतांत्रिक माध्यम से कभी प्रगति नहीं की। यदि प्रचंड बहुमत के साथ नेतृत्व सशक्त हो, राजनीतिक इच्छाशक्ति से परिपूर्ण हो, उसके शीर्ष पुरोधा भ्रष्टाचार रूपी दीमक से मुक्त हों और उनकी राष्ट्रहित-जनहित के प्रति नीयत साफ हो- तो भी देश की आर्थिक प्रगति संभव है और वह सामरिक रूप से मजबूत हो सकता है। विगत सात वर्षों से भारत उसी आमूलचूल परिवर्तन को अनुभव कर रहा है।

लोकतांत्रिक व्यवस्था से लगातर दो बार पूर्ण बहुमत पाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार किस गति से काम कर रही है, यह इस अकाट्य तथ्य से स्पष्ट है कि वर्ष 1950 से 2014 तक- देश में निर्मित राष्ट्रीय राजमार्गों की लंबाई 91,287 किलोमीटर थी, तो अकेले मोदी सरकार ने इसमें पिछले सात वर्षों में 45,153 कि.मी. लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग और जोड़ दिए। इस प्रकार के कार्यों की एक लंबी सूची है। इसी कारण प्रधानमंत्री मोदी आज वैश्विक अप्रूवल सूचकांक में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, ब्रितानी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन आदि विश्व के 12 नेताओं को पछाड़कर पहले स्थान पर बने हुए हैं। सच तो यह है कि अवसरवादी समझौतों की बैसाखी पर खड़ी खिचड़ी सरकारें लोकतंत्र को जिंदा तो रखती हैं, परंतु इससे देश की विकास यात्रा लंगड़ी हो जाती है।

देश की एकता, अखंडता, आर्थिक प्रगति और जीवंत लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा वंशवादियों, वामपंथियों, जिहादियों और उन मतांतरण लक्ष्य के साथ चलने वाले स्वयंसेवी संगठनों से है, जो मानवाधिकार, पर्यावरण और जनजाति आदि कल्याण का मुखौटा पहने रहते हैं और सच-झूठ के विषाक्त घालमेल से देश की विकास यात्रा को बाधित करने का प्रयास करते हैं।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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