गीता प्रेस और गांधीजी : तथ्यहीन आधार पर नैरेटिव बनाने का प्रयास
अनंत विजय
गीता प्रेस और गांधीजी : तथ्यहीन आधार पर नैरेटिव बनाने का प्रयास
पिछले दिनों कल्याण पत्रिका चर्चा में रही। गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार की घोषणा हुई थी। कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री अपने गोरखपुर दौरे के समय गीता प्रेस गए। पुरस्कार की घोषणा और प्रधानमंत्री के गीता प्रेस जाने के समय इस बात का बार-बार उल्लेख किया गया कि कल्याण पत्रिका के अंकों में महात्मा गांधी की हत्या पर कुछ भी नहीं प्रकाशित किया गया। ऐसा कहने वालों ने कल्याण पत्रिका और इसके संपादक को गांधी विरोधी करार दिया। इस तरह की टिप्पणियां की गईं, जिनसे भ्रम का वातावरण बने कि कल्याण के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार और बापू के हत्यारे के बीच संबंध थे। उनके ऐसा कहने के पीछे अंग्रेजी में प्रकाशित एक पुस्तक गीता प्रेस एंड द मेकिंग आफ हिंदू इंडिया में उल्लिखित प्रसंग का सहारा लिया गया। इस पुस्तक के लेखक अक्षय मुकुल हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक के पेज 58 पर लिखा है कि गीता प्रेस ने गांधी की हत्या पर खामोशी ओढ़ ली थी। कल्याण के लिए जिस व्यक्ति का आशीर्वाद और लेखन बेहद महत्वपूर्ण था, उसी पत्रिका में अप्रैल 1948 के अंक तक एक बार भी उनका (गांधी) उल्लेख नहीं हुआ। इस अंक में पोद्दार ने गांधी से अपनी विभिन्न मुलाकातों के बारे में लिखा। बाद के अंकों में भी गांधी का लेखन कल्याण में प्रकाशित हुआ। लेकिन अक्षय मुकुल यह प्रश्न उठाते हैं कि फरवरी और मार्च 1948 के अंक में गांधी के बारे में कुछ भी प्रकाशित क्यों नहीं हुआ? अक्षय ने हाल के अपने लेख में भी इस ओर फिर से संकेत किया है। मुकुल इस बात का भी दावा करते हैं कि कल्याण के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार, महात्मा गांधी के कटु आलोचक थे। इस संबंध में वो कुछ प्रसंगों और पत्रों का हवाला देते हैं, जहां पोद्दार गांधी के विचारों की आलोचना करते हैं। अक्षय मुकुल ने जो व्याख्या की है उसमें कई दोष रह गए हैं।
गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई थी। कल्याण पत्रिका का जनवरी अंक बहुत सारे ग्राहकों को भेजा जा चुका था। कुछ अंक ग्राहकों को नहीं भेजे जा सके थे। गांधी की हत्या का समाचार आते ही बचे हुए अंकों का डिस्पैच रोककर उसमें तीन पन्ने अलग से लगाए गए। एक पूरे पन्ने पर बापू की तस्वीर लगाई गई, जिसके ऊपर लिखा गया ‘महाभागवत बापू’ और तस्वीर के नीचे लिखा गया ‘सकल लोक मां सहु ने बंदे’। एक पेज पर राघवदास जी की एक टिप्पणी प्रकाशित है, जिसका शीर्षक है ‘महाभागवत पूज्य बापू जी’। उसमें राघवदास जी ने लिखा है कि पूज्य बापू जी कहा करते थे, मेरा ह्रदय चीरकर देखो तो उसमें राम-राम लिखा मिलेगा। बहुतों को ये बात समझने में बहुत कठिनाई होती हो, पर जब हम उनको तारीख 30.1.48 को साढ़े पांच बजे गोली का शिकार होते देखते हैं तो उनके मुंह से हे राम, हे राम ये दो शब्द ही निकलते हैं। मैंने गोली का अभ्यास करने वालों से बातें की तो उन्होंने मुझे बताया कि गोली लगने पर मुख की आकृति बिगड़ जानी चाहिए, परेशानी चेहरे पर आनी चाहिए पर वैसा नहीं हुआ… कितना सुंदर स्वरूप है इस महाभागवत का। ग्रंथों में संतों के वर्णन पढ़े थे, पर प्रत्यक्ष रूप से देखने का अवसर इसी महापुरुष के जीवन में हमें मिला। बोलिए महाभागवत की जय। राघवदास जी की कल्याण में प्रकाशित इस टिप्पणी में गहरी श्रद्धा परिलक्षित होती है।
अब दृष्टि डाल लेते हैं कल्याण के 1948 के जनवरी अंक में तत्कालीन संपादक हनुमानप्रसाद पोद्दार की टिप्पणी पर। वो लिखते हैं, पूज्य महात्मा जी संत थे, महापुरुष थे मानवमात्र का हित चाहने वाले थे और विश्व की एक महान विभूति थे। वे धर्म और जाति के भेद से ऊपर उठे हुए थे और सत्य और अहिंसा के सच्चे पुजारी थे। वे मानवता के खरे प्रतीक थे। ईश्वर की प्रार्थना के समय जाते हुए उनकी निर्मम हत्या करके हत्यारे ने अपना तो लौकिक और पारलौकिक महान अहित किया ही, हिंदू जाति पर भी-जो धर्मत: और स्वभावत: अहिंसा प्रिय है- कलंक का अमिट टीका लगा दिया। अगर हनुमान प्रसाद पोद्दार गांधी को नापसंद करते, तो कलंक का अमिट टीका जैसी कठोर टिप्पणी हिंदू जाति पर नहीं करते। अपनी इस टिप्पणी में हनुमान प्रसाद पोद्दार लिखते हैं कि बापू के साथ उनका पारिवारिक संबंध था। बापू उनको पुत्र के समान मानते और स्नेह करते थे। उनके स्नेह की एक एक बात याद करके दिल भर आता है। इस तरह की टिप्पणियों को पढ़ने के बाद क्या संदेह रह जाता है कि हनुमान प्रसाद पोद्दार गांधी को पसंद नहीं करते थे। वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उसको व्यक्तिगत द्वेष की तरह देखना और व्याख्यायित करने में अंतर है। अक्षय मुकुल इस अंतर को समझ नहीं पाए या समझ कर अनदेखी की। एक और बात मुकुल ने जोर देकर पूछी है कि कल्याण पत्रिका के 1948 के फरवरी और मार्च अंक में गांधी का उल्लेख क्यों नहीं है। यहां भी मुकुल की लापरवाही या तथ्यों की अनदेखी दिखाई देती है। प्राथमिक स्रोत तक नहीं पहुंचने की लापरवाही या किसी विशेष कारण से अनदेखी? 1948 के फरवरी अंक में हिंदू विधवा के नाम से बापू की टिप्पणी है, कवर पर भी उल्लेख है। तो क्या यह माना जाए कि लेखक इतना लापरवाह था कि वो बगैर देखे बड़े-बड़े दावे कर रहा था या वो जानबूझकर कुछ तथ्यों को छिपाकर एक नैरेटिव बनाने का प्रयास कर रहा था। अनुत्तरित तो यह प्रश्न है। 1926 से लेकर 1948 तक बापू की कई टिप्पणियां कल्याण के विभिन्न अंकों में प्रकाशित हुईं।
एक और दोषपूर्ण टिप्पणी अक्षय ने अपनी पुस्तक में की है कि गीता प्रेस के निजी अभिलेखागार में गांधी की हत्या से संबंधित कोई रेफरेंस उपलब्ध नहीं है। पिछले सप्ताह मैं गोरखपुर में था। गीता प्रेस जाकर कल्याण के उस अंक को स्वयं देखा, जिसमें बापू की हत्या पर तीन पृष्ठ हैं। यह अंक उनके अभिलेखागार में उपलब्ध है। कोई भी अनुमति लेकर देख सकता है। मुझे लगता है कि मुकुल ने कल्याण पत्रिका की फाइल देखी ही नहीं। उन्होंने उन विशेषांकों को देखा जो बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। प्रतिवर्ष कल्याण का जनवरी अंक विशेषांक होता है, जो बाद में पुस्तकाकार प्रकाशित होता है। जनवरी 1948 का अंक भी विशेषांक था, नारी अंक, जो कालांतर में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। अब जो नारी अंक बाजार में उपलब्ध है, उसमें गांधी की हत्या के प्रसंग पर राघवदास जी, पोद्दार जी की टिप्पणियां नहीं हैं। गांधी का चित्र भी नहीं है। यह तो पुस्तक प्रकाशन जगत की सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। जब किसी पत्रिका के विशेषांक को पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाता है तो उसमें तात्कालिक या घटनात्मक टिप्पणियां नहीं रखी जाती हैं। बिना फाइल देखे सिर्फ बाद में प्रकाशित पुस्तक के आकार पर टिप्पणी करना यह दर्शाता है कि लेखक कितनी लापरवाही से तथ्यों को इकट्ठा कर रहा था। प्राथमिक स्रोत तक नहीं पहुंच रहा था। लेकिन बड़े बड़े प्रश्न खड़े कर रहा था।
कल्याण, गांधी और हनुमान प्रसाद पोद्दार के संबंधों को समझने के लिए जो दृष्टि चाहिए वो अक्षय मुकुल के पास नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि अक्षय मुकुल ने एक विशेष नैरेटिव को बल देने के लिए यह पुस्तक लिखी। पुरस्कृत हुए। अब उसी पुस्तक में वर्णित गलत तथ्यों और प्रसंगों को उद्धृत कर नैरेटिव बनाए जा रहे हैं। इंटरनेट मीडिया के दौर में लोगों के पास किसी भी प्रसंग या घटना को समग्रता में देखने या उसकी पड़ताल करने का धैर्य नहीं है। अगर मैं भी गोरखपुर के गीता प्रेस जाकर इन प्रसंगों को नहीं देखता समझता तो संभव है कि मान लेता कि कल्याण में बापू की हत्या के बाद कुछ नहीं प्रकाशित हुआ।
साभार
बहुत ही तथ्यात्मक एवम् सत्य को उजागर करने वाला आलेख।