भारत का स्वतंत्रता संग्राम और जगदीश चंद्र बासु

भारत का स्वतंत्रता संग्राम और जगदीश चंद्र बासु

वीरेंद्र पांडेय

भारत का स्वतंत्रता संग्राम और जगदीश चंद्र बासुफादर ऑफ माइक्रोवेव जगदीश चंद्र बासु

बचपन से हम कई स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में कहानियां और घटनाएं पढ़ते हैं, सुनते हैं, और टेलीविजन में देखते हुए बड़े हुए हैं। भारत का स्वतंत्रता आंदोलन मुख्य रूप से राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक था। परंतु विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों का भी बड़ा योगदान था। सामान्यतः इस बात की जानकारी अपने देश में बहुत ही कम लोगों को है कि विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत लोगों ने भी भारत की स्वतंत्रता के लिए अभूतपूर्व योगदान दिया है। आज जब देश स्वतंत्रता के 75वां वर्ष मना रहा है तब हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष में वैज्ञानिकों के त्याग एवं संघर्ष को लोगों को बताया जाए । यह समय है विभिन्न स्वरूप और संसाधनों के माध्यम से भारतीय वैज्ञानिकों के अदम्य साहस की गाथा को उजागर करने और कठिन समय शौर्य को याद किया जाए। जिस प्रकार से अन्य भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों ने संघर्ष किया उसी प्रकार से हमारे वैज्ञानिकों ने अपने दृढ़ संकल्प स्वाभिमान और अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम को दर्शाते हुए अपना संघर्ष जारी रखा। भारत की स्वतंत्रता की विशेष बात यह रही की यह संग्राम ‘स्व’ के लिए था। इसलिए अंग्रेजों ने भारतीयों की पहचान मिटाने के लिए अर्थात उनके स्व को ही बदलना उचित समझा ।

1870 में महेंद्र लाल सरकार के द्वारा यह संकल्प लिया गया कि भारत में भारतीयों के लिए, विज्ञान के क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए एक संस्थान की आवश्यकता है। इसका जिसका उपयोग भारत के लोग ही स्वयं के लिए कर सकते हैं। इस संकल्प को पूरा करने के लिए बंकिम चंद्र चटर्जी, ईश्वर चंद्र विद्यासागर और यहां तक कि स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस का साथ मिला। इन सभी लोगों ने त्रिपुरा के महाराज जैसे अनेक लोगों से धन संग्रह शुरू किया। जिससे भारतीयों के लिए विज्ञान को उपलब्ध हेतु एक संस्था का निर्माण किया गया। जिसका नाम था “इंडियन एसोसिएशन ऑफ कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस”। 1876 में यह संस्थान की स्थापना हुई। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि भारतीय स्वतंत्रता के लिए 1850 में कांग्रेस का निर्माण हुआ। तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि कांग्रेस की स्थापना से भी पूर्व भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा स्वतंत्रता दिलाने के लिए तथा पूर्ण रूप से स्वदेशी भाव का प्रगटीकरण करने के लिए विज्ञान के क्षेत्र में प्रयास शुरु हो चुका था। इस संस्थान के द्वारा भारत के वैज्ञानिकों की पहली पीढ़ी का निर्माण हुआ आचार्य जगदीश चंद्र बोस वैज्ञानिक प्रफुल्ल चंद्र राय डॉक्टर आशुतोष मुखर्जी ही नहीं स्वामी विवेकानंद जैसे लोग विज्ञान की पढ़ाई करने के लिए इस संस्थान में आते रहे यहां से भारत की एक राष्ट्रीय वैज्ञानिक पीढ़ी का निर्माण शुरू हुआ। इन वैज्ञानिकों ने इस संस्था में जो स्वदेशी विज्ञान, राष्ट्रीय विज्ञान का संस्कार पाया था उसी को अपने जीवन में आगे बढ़ाया।

उसी संस्कार का प्रगटीकरण हम जगदीश चंद्र बासु के जीवन में देख सकते हैं। जिन्हें रॉयल सोसायटी में पढ़ने की अनुमति इस तर्क से नहीं दी गई कि “भारतीयों में तर्कपूर्ण विचार नहीं होते हैं”। इसलिए भौतिक विज्ञान जैसे विषय भारत के लोगों को पढ़ने की अनुमति हम नहीं दे सकते हैं। लेकिन जगदीश चंद्र बासु ने 1884 में इस अपमान को सहन नहीं किया। और उन्होंने इसके विरोध में संघर्ष शुरू किया। उन्होंने तय किया कि भारत में भौतिक विज्ञान सिखाऊंगा लेकिन वेतन नहीं लूंगा। उन्होंने ऐसा ही किया। वह तीन साल अपने करियर के प्रारंभ में बिना वेतन पढ़ाते रहे। केवल भारत का सम्मान बढ़ाने के लिए। और तीन साल बाद जगदीश चंद्र बासु जीत गए। अंग्रेजों ने उनको इंपीरियल एजुकेशन सर्विस में स्वीकृत कर लिया और उनको तीन साल का वेतन भी दे दिया। भारत के एक व्यक्ति ने संघर्ष किया, अन्याय के विरोध में भेदभाव के विरोध में। क्या यह एक प्रकार का सत्याग्रह नहीं था ?

भारत में अनुसंधान नहीं करने देने की अंग्रेजों की नीति थी। लेकिन इसके विरोध में जगदीश चंद्र बासु संघर्ष करने वाले पहले वैज्ञानिक थे। उन्होंने 1894 में यानी 10 साल अध्यापन करने के बाद अनुसंधान करने का बीड़ा उठाया। अंग्रेजों ने किसी भी प्रकार की सहायता नहीं की थी। प्रयोगशाला का निर्माण भी उन्होंने अपने जेब के पैसे से खर्च करके किया। उन्होंने अनुसंधान किया, जो यूरोपीय देशों में वैज्ञानिक भी सिद्ध नहीं कर सके थे, उन्होंने भारत में करके दिखाया।

पूरे विश्व में किसी ने भी सूक्ष्म तरंग यानी माइक्रोवेव का निर्माण नहीं किया था। यह उपलब्धि जगदीश चंद्र बासु ने मात्र एक साल के अंदर हासिल की। जगदीश चंद्र बासु ने इसे लंदन के रॉयल सोसाइटी में प्रस्तुत किया। लेकिन वहां एक व्यक्ति ने इसकी चोरी की। मार्कोनी ने 1901 में इसे अपना बता भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार हासिल कर लिया। जगदीश चंद्र बासु को पुरस्कार नहीं दिया गया। हम समझ सकते हैं इन लोगों ने कितना संघर्ष किया होगा। जगदीश चंद्र बासु के मन में एक ही बात थी, वह हर बार कहते थे अपने देश को जब तक ज्ञान के सृजन में सफलता प्राप्त नहीं होगी तब तक पूरे विश्व में अपने देश का सम्मान नहीं होगा। अंग्रेज इसी बात को दबाना चाहते थे। आज जगदीश चंद्र बासु को केवल फादर ऑफ़ माइक्रोवेव ही नहीं कहा जाता बल्कि फादर ऑफ बायोफिजिक्स भी कहा जाता है। वनस्पतियों को नींद आती है यह कल्पना जगदीश चंद्र बासु की थी। आज आधुनिक विज्ञान उसको मान रहा है लेकिन उस समय अंग्रेजों ने उनको सतत दबाने का प्रयास किया।

(लेखक मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में कार्यरत हैं)

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