डॉली किटी और वो चमकते सितारे : महानगरीय कुंठाओं का महिमामंडन (फिल्म समीक्षा)
डॉ. अरुण सिंह
फिल्म : डॉली किटी और वो चमकते सितारे
प्रोड्यूसर : एकता कपूर
निर्देशक : अलंकृता श्रीवास्तव
एक्टर : अमोल पाराशर, कोंकणा सेन, भूमि पेडनेकर आदि
सिनेमा समाज का दर्पण हो सकता है, परन्तु समाज को भी यह बहुत प्रभावित करता है, यह तथ्य नकारने योग्य नहीं है। यह महज मनोरंजन का साधन नहीं है। हाल ही में नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित हुई फ़िल्म डॉली किटी और वो चमकते सितारे आधुनिकता की आड़ में एक असामाजिक, और मूल्यविहीन विमर्श स्थापित करने का प्रयास करती है। अभिव्यक्ति और जीवन की स्वतंत्रता के नाम पर सनातनधर्मी संगठनों पर हमला भी बोलती है, जो कि प्रायः बॉलीवुड का रवैया रहता है।
निम्न-मध्यमवर्गीय डॉली अपनी शारीरिक और मानसिक इच्छाओं की पूर्ति विवाहेत्तर संबंधों में तलाशती है। उसे स्वयं के अधिकारों का भान तो है, पर पति के अधिकारों का नहीं। डिलीवरी बॉय उस्मान के साथ वह अपनी कुंठा का शमन करना चाहती है। अपने पति से अधिक एक विधर्मी पुरुष के प्रति आकर्षण और संवेदना कौन सी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है? क्षुद्र, पाशविक, अविधिक और अनैतिक कामनाओं की पूर्ति क्या इतनी आवश्यक है कि उसे कला के विमर्श में स्थान देना आवश्यक हो गया है? क्या भारतीय योग और अध्यात्म में इसका कोई विकल्प नहीं? काजल निठल्ले पुरुषों की कुंठा को शांत करने के लिए किटी बन जाती है।
वस्तुतः रेड रोज़ जैसे वर्चुअल ऍप्लिकेशन्स चलाने वाले लोग अपनी पूंजीवादी दुकानें चलाते हैं, कोई परमार्थ अथवा राष्ट्रनिर्माण का कार्य नहीं करते। उनके लिए पूंजी ही सर्वस्व है, महिलाओं अथवा पुरुषों के पारिवारिक/सांस्कृतिक मूल्य नहीं। इस तरह के अनुचित साधन प्रयोग करने वाले कुंठित पुरुष ही बलात्कार जैसे अपराधों की ओर उद्यत होते हैं। एक पुरुष किसी अपरिचित महिला से फोन पर अश्लील और निर्रथक बातें कर लेने से ही यदि आंतरिक संतुष्टि प्राप्त कर ले तो फिर भारतीय निष्काम कर्मयोग की क्या आवश्यकता है? क्या योग व प्राणायाम से शरीर व मन को सही दिशा नहीं दी जा सकती? छत्रसार सिंह ‘प्रदीप’ बनकर काजल का शोषण करता है। ऐसी घटनाओं के नकारात्मक परिणामों का यथार्थ फ़िल्म में नहीं दिखाया गया है। आभासी मित्रता को “रोमांटिसाइज़” किया गया है। डॉली के पुत्र पप्पू का विद्रूप स्वभाव ऐसे कुंठित परिवेश की ही उपज है।
क्या कला के माध्यम से हम ऐसे कुंठित समाज की परिकल्पना करते हैं? हमारा सिनेमा क्यों अपनी मूल अस्मिता से जी चुराता है? पूरी फिल्म कुंठाओं की तुष्टि के लिए पाश्चात्य, अनैतिक साधनों के प्रयोग को सही ठहराती है तथा उनका महिमामंडन करती है। इन कुंठाओं के निमित्त पर निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव चुप हैं। वह चालाकी से इसे एक नए विमर्श के आवरण में ढंक लेना चाहती हैं।