क्या पुरानी पेंशन योजना लागू करना आसान है?

क्या पुरानी पेंशन योजना लागू करना आसान है?

बलबीर पुंज

क्या पुरानी पेंशन योजना लागू करना आसान है?क्या पुरानी पेंशन योजना लागू करना आसान है?

संसार में ‘मुफ्त’ कुछ नहीं होता। यदि किसी को कुछ ‘मुफ्त’ मिल रहा है, तो विश्वास कीजिए कि उसकी कीमत कोई दूसरा चुका रहा है। हाल ही में हमारे पड़ोसी देश— श्रीलंका के नागरिकों ने भारी कीमत चुकाकर इस कटु सत्य को समझा है। सस्ती लोकप्रियता और मुफ्तखोरी के नाम पर केवल वोट बटोरने के चक्कर में कुछ भारतीय राजनीतिक दलों ने भी यह खतरनाक खेल देश में शुरू कर दिया है। कोई आश्चर्य नहीं कि मतदाता का एक वर्ग भी जाने-अनजाने में इस वंचना का हिस्सा बन रहा है।

अभी हिमाचल प्रदेश में कांग्रेसी सरकार बनने के बाद पार्टी के लोक लुभावन वादों (300 यूनिट मासिक मुफ्त बिजली, 18-60 आयु वर्ष की महिलाओं को 1500 रुपये/महीने वित्तीय सहायता देने सहित) में से एक— अविवेकपूर्ण राजकोषीय पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) की बहाली की बात भी हो रही है। अप्रैल 2004 में जब इस व्यवस्था के स्थान पर नई ‘राष्ट्रीय पेंशन योजना’ (एनपीएस) को लागू किया गया था, तब इसके कई आर्थिक पहलू थे, जिन्हें कालांतर में कांग्रेस के दीर्घानुभवी नेता और पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ विघटित योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भी समझा।

पुरानी पेंशन योजना के अंतर्गत सरकारें वर्ष 2004 से पहले कर्मचारियों को सेवानिवृति के बाद एक निश्चित पेंशन देती थीं, जिसका अंशदान कर्मचारियों को नहीं देना पड़ता था। पेंशन के अतिरिक्त सेवामुक्ति के बाद उन्हें 20 लाख रुपये तक उपदान मिलता था। नई पेंशन व्यवस्था में सरकारी कर्मचारियों को पेंशन पाने के लिए अपने मूलवेतन और महंगाई भत्ते में से 10 प्रतिशत, तो नियोक्ता द्वारा 14 प्रतिशत तक योगदान देने का प्रावधान है। इस जमा पैसों का जिम्मा पेंशन कोष नियामक एवं विकास प्राधिकरण (पीएफआरडीए) द्वारा पंजीकृत पेंशन निधि प्रबंधक को दिया जाता है, जिसका एक बड़ा भाग निवेश कर दिया जाता है और इस पर होने वाले लाभ को पेंशन के रूप में दिया जाता है।

हिमाचल से पहले पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को कांग्रेस अपने द्वारा शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पहले ही लागू कर चुकी है। झारखंड में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गठबंधन सरकार, जिसमें कांग्रेस सहयोगी है— उसने भी ओपीएस को बहाल किया है। राज्यों में सेवामुक्त सरकारी कर्मचारियों को पेंशन का भुगतान अधिकांश ‘अपने कर राजस्व’ से किया जाता है। राजस्थान के अपने कर राजस्व में पेंशन का हिस्सा पहले ही 28 गुना से अधिक बढ़ चुका है। बात यदि पर्यटन पर निर्भर हिमाचल की करें, तो केंद्रीय अनुदान, केंद्रीय करों में हिस्सेदारी आदि के अतिरिक्त, बकौल राजकीय बजट— वित्त वर्ष 2021-22 में हिमाचल को ‘अपने कर’ के रूप में 9,282 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था, तो उसका पेंशन भुगतान 7,082 करोड़ रुपये था। सोचिए, जब हिमाचल में ओपीएस लागू होगा, तब क्या होगा?

‘स्टेट बैंक ऑफ इंडिया’ (एसबीआई) के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, लाभार्थियों के बिना किसी योगदान वाला ओपीएस अपनाने से हिमाचल प्रदेश के अपने कर राजस्व पर पेंशन व्यय 450%, छत्तीसगढ़ में 207%, राजस्थान में 190%, झारखंड में 217% और पंजाब में 242% बढ़ जाएगा।

क्या ओपीएस लागू करना आसान है? बीते सप्ताह लोकसभा में ओपीएस पर पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री डॉ. भागवत कराड ने कहा था, “राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड की सरकार ने पुरानी पेंशन योजना… ने नवीन पेंशन योजना के अंतर्गत कर्मचारियों और राज्य सरकार के अंशदान से पीएफआरडीए में जमा राशि को वापस लौटाने का प्रस्ताव दिया है। किंतु पीएफआरडीए ने बता दिया है कि संबंधित कानून-नियम में इस राशि को राज्य सरकारों को वापस लौटाने का कोई प्रावधान नहीं है।” वर्तमान समय में एक करोड़ 54 लाख कार्मिक एनपीएस से जुड़े हैं, जिनके अंशदान में से 6 लाख करोड़ रुपये तीन प्रमुख संस्थानों— एलआईसी, यूटीआई और एसबीआई में निवेशित हैं।

ओपीएस पर पंजाब में आम आदमी पार्टी (‘आप’) की सरकार भी काम कर रही है। यह स्थिति तब है, जब पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने इसी वर्ष अगस्त में मोदी सरकार से एक लाख करोड़ रुपये का पैकेज जारी करने का पुन: अनुरोध किया था। मुख्यमंत्री मान ने यह मांग ऐसे समय की थी, जब उनकी ‘आप’ सरकार पंजाब में प्रति माह 300 इकाई मुफ्त बिजली देने के चुनावी वादे का कार्यान्वयन कर रही थी। पंजाब की आर्थिकी अभी ऐसी है कि बकौल वित्तीय श्वेतपत्र, उसे कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है। पहले से तीन लाख करोड़ रुपये के कर्ज के बोझ में दबी पंजाब सरकार ने विश्व बैंक से 1200 करोड़ का और ऋण लिया है।

देश में राज्यों की वित्तीय स्थिति पर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने इस वर्ष जुलाई में एक रिपोर्ट जारी की थी। इसके अनुसार, सभी राज्य सरकारों पर मार्च 2021 तक लगभग 70 लाख करोड़ रुपये का ऋण है। इसमें सर्वाधिक तमिलनाडु सरकार पर (6.59 लाख करोड़ रुपये) है। बकौल आरबीआई रिपोर्ट, देश के 19 राज्यों पर एक लाख करोड़ रुपये से अधिक कर्ज है। यही नहीं, आरबीआई का कहना है कि राज्य सरकारें सब्सिडी के बजाय अब वस्तुएं-सेवाएं  नि:शुल्क ही दे रही हैं, जिनमें मुफ्त पानी, मुफ्त बिजली, मुफ्त यात्रा और कर्ज-माफी आदि लोकलुभावन नीतियां शामिल हैं। आरबीआई ने श्रीलंका के आर्थिक संकट का उदाहरण देते हुए राज्य सरकारों को कर्ज में स्थिरता लाने और संयम बरतने को कहा है।

क्या भारत में कुछ राज्यों की नियति श्रीलंका जैसी हो सकती है? इसका उत्तर वर्ष 2019 में ‘एशियन डेवलपमेंट बैंक’ द्वारा श्रीलंका को दी गई उस चेतावनी में मिलता है, जिसमें बताया गया था कि अभूतपूर्व लोकलुभावन योजनाओं और करों में भारी कटौती से इस द्वीपीय देश का राष्ट्रीय खर्च उसकी राष्ट्रीय आय से अधिक हो गया, जिसने कालांतर में उसे ‘एक घाटे वाली अर्थव्यवस्था’ में परिवर्तित कर दिया। इस पृष्ठभूमि में रही सही कसर श्रीलंका पर भारी-भरकम कर्ज (चीन सहित) ने पूरी कर दी। क्या वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ‘मुफ्त’ की राजनीति में विश्वास रखने और ओपीएस समर्थक दलों में श्रीलंका के हश्र से सबक लेने की इच्छाशक्ति दिखती है?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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