आस्था का धाम- बेणेश्‍वर मेला

आस्था का धाम- बेणेश्‍वर मेला

आस्था का धाम- बेणेश्‍वर मेला

राजस्थान के डूंगरपुर व बांसवाड़ा जिलों के बीच बेणेश्‍वर में सोम, माही व जाखम नदियों का संगम है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाएं भी मिलती हैं। इस पूरे क्षेत्र को वागड़ क्षेत्र कहा जाता है। बेणेश्‍वर की इन तीनों नदियों के संगम स्थल को वनवासी बन्धुओं में बड़ा पवित्र माना जाता है। यह संगम स्थल डूँगरपुर जिले की आसपुर तहसील के नवाटापारा गांव के पास स्थित है। सदियों से वनवासी बन्धु यहां एकत्रित होते हैं। वनवासियों के लिए यह संगम प्रयाग, काशी और पुष्कर से भी अधिक महत्व रखता है। संगम तीर्थ में स्नान को मुक्तिदायक, आरोग्यदायक तथा सिद्धिदायक माना जाता है।

कैसे पड़ा बेणेश्‍वर नाम
यह संगम स्थल एक त्रिभुजाकार टापू है जिसे वागड़ी बोली में ‘बेण’ कहा जाता है। यह लगभग 240 बीघा क्षेत्र में फैला है। इसी टापू पर एक प्राचीन शिवलिंग है, जो बेणेश्‍वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध है। इसीलिए इस स्थान का नाम बेणेश्‍वर धाम पड़ा।

इस बार यह मेला माघ शुक्ल एकादशी (23 फरवरी) से फाल्गुन कृष्ण पंचमी (3 मार्च) तक रहेगा। इस मेले में राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से बड़ी संख्या में वनवासी बन्धु शामिल होते हैं। बेणेश्‍वर धाम के प्रति वनवासियों की गहरी आस्था है। यह स्थान वनवासियों का प्रमुख तीर्थ स्थल माना जाता है। ये लोग इस त्रिवेणी संगम में सामूहिक रूप से स्नान कर धर्मलाभ प्राप्त करते हैं। यहाँ पर तर्पण, मुण्डन और सामूहिक भोग का आयोजन माघ शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक करते हैं। मेले के दौरान वन-बन्धु मृतकों की अस्थियों का संगम स्थल पर विसर्जन भी करते हैं।
बेणेश्‍वर के प्रथम महंत मावजी महाराज थे। संगम से आठ किलोमीटर दूर साबला गांव में जन्मे मावजी महाराज ने बेणेश्‍वर में तपस्या की थी। स्थानीय लोगों की प्रसिद्ध संत मावजी महाराज में गहरी आस्था रही है। ये लोग उन्हें भगवान विष्णु का अवतार मानते आए हैं। मान्यता है कि नदी सोम पूर्ण प्रवाह के साथ पहले बहे तो उस वर्ष चावल की फसल अच्छी होती है। यदि माही में जल प्रवाह पहले होता है तो समय ठीक नहीं माना जाता।

यह मेला राजस्थान का बड़ा और प्रसिद्ध मेला है। जनजातीय समुदाय के लोग अपनी पारंपरिक पोशाकों को पहन नाचते-गाते इस पर्व पर स्नान करने आते हैं। इस मेले में वनवासियों का जन-जीवन और संगम स्थान का प्राकृतिक सौन्दर्य देखने को मिलता है। जनजाति संस्कृति के बहुआयामी रंगों का एक ही स्थान पर दिग्दर्शन कराने वाला यह मेला विश्‍व में अपने आप में अनूठा मेला है। अपनी परम्पराओं व जीवंत संस्कृति को निकटता से अनुभूत कराने वाला बेणेश्‍वर मेला वास्तव में आस्था और लोक संस्कृति का अद्भुत संगम है।

लुप्त होते खेलों का जीवंत प्रदर्शन
कई प्रकार के परंपरागत खेलों का आयोजन बेणेश्‍वर मेले की विशेषता है। कम्प्यूटर के इस युग में मैदान में खेले जाने वाले स्थानीय खेल सितौलिया, रस्साकसी, गिडाडोट, कुर्सी दौड़, मटका दौड़, गिल्ली-डंडा जैसे खेलों का आयोजन इस मेले को स्थानीयता से जोड़ता है। आज की आपा-धापी में लगभग भुला दिये गये इन खेलों के जीवंत एवं रोमांचकारी प्रदर्शन में पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं द्वारा भी जबर्दस्त उत्साह से भाग लिया जाता है, साथ ही भावी-पीढ़ी भी इन विस्मृत प्रायः हो चुके खेलों से रूबरू होती है।

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