जीवन पथ को आलोकित करते भगवान महावीर स्वामी
कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
जीवन पथ को आलोकित करते भगवान महावीर स्वामी
भारतीय सनातन धर्म संस्कृति जिसमें सदैव सत्य की अनुभूति, खोज तथा उसका वैयक्तिक और सामूहिक तौर पर अनुसन्धान, परिष्करण व परिमार्जन के माध्यम से सृष्टि के लौकिक-पारलौकिक दर्शन की खोज की गई है। जिसमें जीवमात्र के कल्याण के लिए तपस्या करने की श्रेष्ठ परम्परा रही है या समाज जब-जब पथभ्रष्ट हुआ, वह मूल्यों को भूलकर अराजक होने लगा, तब-तब सनातन रूपी वटवृक्ष की शाखाओं ने अपनी छाँव तथा शीतलता से मनुष्य को नई दिशा दी है। भगवान श्रीकृष्ण, श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय के सप्तम् एवं अष्टम् श्लोक में अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं:―
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
ये श्लोक भारतीय मनीषा एवं चित्ति को प्रकट करते हैं, जिनमें धर्म-बोध के द्वारा श्रेष्ठ मूल्यों की संस्थापना तथा सर्जनात्मकता की धरोहर का अमर सन्देश गुञ्जित होता है।
राष्ट्र की संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यही रही है कि समय-समय पर विचारधाराओं, सन्तों-महापुरुषों का उद्भव- अवतरण होता रहा है। उसी परम्परा में महापुरुष भारतीय धरा पर धर्म रक्षा हेतु मानव रूप में अवतरित होते रहे हैं। उन्होंने धर्म एवं आचरण को परिमार्जित कर नवदृष्टि तथा कालसुसंगत परिपाटी निर्मित की। सन्तों, महापुरुषों के बतलाए गए — पथ का अनुसरण कर मनुष्य व सम्पूर्ण जीवजगत आत्मिक संतुष्टि प्राप्त करता आया है।
सनातन हिन्दू धर्म से जिस जैन पंथ रूपी आधारशिला को स्वामी ऋषभदेव ने रखा, वह तीर्थंकरों की परम्परा से वृद्धि करती हुई कालान्तर में जैन धर्म के रूप में अपनी पूर्णता को प्राप्त हुई। सम्पूर्ण विश्व में शांति-सौहार्द के साथ जीवमात्र के प्रति प्रेम एवं सत्य-अहिंसा के आचरण को ढालकर सरसता की त्रिवेणी प्रवाहित करने वाले महावीर स्वामी चौबीसवें तीर्थंकर हैं। उनका जन्म चैत्र माह की त्रयोदशी तिथि को लगभग 540-599 वर्ष ईसा पूर्व वैशाली गणतन्त्र के कुण्डलपुर वर्तमान बिहार राज्य में ईक्ष्वाकुवंशीय राजा सिद्धार्थ एवं माँ त्रिशला के यहाँ हुआ।
जैन धर्मग्रन्थों की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महावीर स्वामी के जन्म के उपरान्त उनके राज्य में सुख-शांति-समृद्धि, यश-कीर्ति वैभव में अप्रत्याशित वृद्धि होनी प्रारंभ हो गई, जिससे उनका नाम वर्धमान रखा गया अर्थात सभी प्रकार की वृद्धि करने वाला जिनके आने से सभी ओर खुशहाली छा गई। यह सब प्रकृति का ही गुण है। जब कोई ऐसी विभूति आती है, तब स्वत: ही प्रकृति अपने माध्यम से सभी प्रकार की समृद्धि से सूचित करने लगती है।
महावीर स्वामी का जन्म ऐसे कालखण्ड में हुआ जब तत्कालीन देशकाल में पशुबलि, हिंसा, अस्पृश्यता, विविध भेदभाव तथा अन्धविश्वास, पाखण्ड अपने चरम पर थे। मनुष्य अपनी मनुष्यता भूलकर अराजक होता जा रहा था।स्वार्थ एवं अन्य समस्याएँ सामाजिक जनजीवन को अस्वस्थ कर रहीं थी। सामाजिक कुरीतियाँ विद्वेष फैला रही थीं। ऐसा कहा जाता है कि इन विद्रूपताओं व समस्याओं से महावीर स्वामी बचपन से ही विचलित होने लगे थे। उनके मनोमस्तिष्क में जीवमात्र के प्रति दया प्रेम का भाव था। सभी के लिए अनुराग-बन्धुभाव। और प्राणिमात्र के प्रति सहानुभूति व दु:ख -दारिद्र्य निर्मूल का बीज उनके अन्दर अंकुरित होने लगा था।
महावीर स्वामी ने ब्रम्हचर्य के पालन का उद्देश्य बना लिया, किन्तु राजसी परिवार में जन्म लेने के कारण पारिवारिक नियमों का पालन करना था। इसलिए उनकी शादी यशोदा से हुई, किन्तु 30 वर्ष की आयु में भगवान महावीर ने सांसारिक सुखों को त्याग कर जैन धर्म की दिगम्बर शाखा की दीक्षा ले ली। दिगम्बर यानि दिशाएँ जिसका वस्त्र हों अर्थात् शिव।महावीर स्वामी ने बाद में दिगम्बर के साथ श्वेताम्बर शाखा में दीक्षा लेकर उसकी पद्धति भी अपनाई।
कठोर तप एवं साधना में तपते-तपते अन्ततोगत्वा लगभग बारह वर्षों के उपरान्त उन्हें शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल पक्ष दशमी के दिन ज्ञान की प्राप्ति हुई। तदुपरान्त उनके उपदेशों का क्रम चलता रहा। दीक्षित होने के बाद वर्धमान से भगवान महावीर स्वामी के रूप में वे चौबीसवें तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित होकर सामाजिक चेतना में ज्ञान, तप, संयम, नियम के माध्यम से जागृति लाने के लिए कटिबद्ध रहे।
भगवान महावीर स्वामी ने अहिंसा को सर्वोपरि बताया। उनके मतानुसार किसी को भी क्षति पहुँचाए बिना जीवन जीना ही वास्तविक ज्ञान का प्रतिफल है। उन्होंने जैन धर्म के स्वरूप को जीवमात्र के प्रति प्रेम करने व नई दिशा देने के लिए पांच सिद्धांतों- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय और ब्रह्मचर्य का प्रतिपादन किया, जिन्हें पंचशील सिद्धांत कहा गया। ये सिद्धांत अपने आप में विभिन्न बोधों के गूढ़ार्थों को समाहित किए हुए हैं। जिनके पालन से मानव जीवन का कल्याण होता है। सम्पूर्ण प्रकार की व्याधियों की समाप्ति तथा लोकमङ्गल की स्थापना होती है।
भगवान महावीर स्वामी ने ‘जिओ और जीने दो’ का मूल मन्त्र देकर उसकी वृहद तौर पर विवेचना करते हुए जीवन की नैसर्गिकता को धरातल पर उद्घाटित किया। उनके मतानुसार ‘मनसा वाचा कर्मणा’ अर्थात प्रत्येक व्यक्ति समभाव को जीवन में ढालकर जीव में स्वयं की अनुभूति कर हर जीव के लिए वही भाव रखे, जिसकी अपेक्षा वह अपने लिए करता है।
उन्होंने क्षमा रूपी अस्त्र को कवच के रूप में स्वीकृति प्रदान की। क्षमा! ऐसा अद्भुत गुण है, जो स्वयं को शान्ति प्रदान करता है। महावीर स्वामी कहते हैं कि धर्म माँगने से नहीं बल्कि स्वयं के धारण करने से मिलता है। उन्होंने सनातन हिन्दू संस्कृति के सूत्र वाक्य “ध्रियते इति धर्म:” को प्राथमिकता दी। उनके अनेकान्तवाद को हम ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ के द्वारा आसानी से समझ सकते हैं। उनके अनुसार सत्य की अनुभूति वैयक्तिक स्तर पर होती है। महावीर स्वामी ने अपने सम्पूर्ण दर्शन में मानव-प्रकृति के समन्वय तथा आपसी सहयोग के द्वारा जीवनबोध का मार्ग बतलाया है। उनके उपदेशों में मानवीय आत्मिक संतुष्टि एवं शान्ति की उच्चतम पराकाष्ठा है। भगवान महावीर का आत्म धर्म सम्पूर्ण चराचर जगत की, प्रत्येक आत्मा अर्थात् सभी जीवों के लिए समान दृष्टिकोण रखता है।
उनके ज्ञान दर्शन में संसार की सभी आत्माओं में ऐक्यता का भाव दृष्टिगोचर होता है। इसीलिए महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में सहजता, सरलता, बन्धुत्व, जीव प्रेम के लिए आचरण एवं कर्तव्यपरायणता के माध्यम से सभी को सन्देश दिया। उन्होंने बतलाया कि हमें दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखना चाहिए, जो हमें स्वयं को पसन्द हो। वे अपनी दिव्य ज्योति से जीवन पथ को आलोकित कर सत्यान्वेषण के द्वारा सम्पूर्ण सृष्टि में प्रसन्नता के ज्योति-पुञ्जों को बिखरते हैं। उनका जीवन ही दर्शन है और दर्शन ही जीवन है।
धर्मग्रंथों एवं पौराणिक सन्दर्भों के माध्यम से कहा जाता है कि भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्ण पक्ष अमावस्या को मोक्ष प्राप्त किया। उस अमावस्या को संसार को नई दिशा देने वाले महापुरुष की दिव्य ज्योति भौतिक रूप से भले बुझ गई, किन्तु उनके अद्वितीय दर्शन, ज्ञानपुञ्ज से समूचा संसार चिरकाल तक प्रकाशित होता रहेगा। जो जीवमात्र के प्रति सहचर्यता के बोध से आप्लावित करेगा और मानवीय मूल्यों की श्रेष्ठता के बिम्बों को बिखेरता हुआ खुशहाली एवं समन्वय की रसधारा की सरसता को बनाए रखेगा। आवश्यकता उन मूल्यों को जानने-समझने तथा अपने आचरण में ढालकर ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः‘ का भाव लेकर अपने जीवन को सुघड़ बनाने के साथ सम्पूर्ण वातावरण को भी उच्च आदर्शों पर आधारित बनाने के लिए कृत संकल्पित होने की है।