भारतीय वस्त्र उद्योग को तार – तार किया अंग्रेजों ने (भाग -1)

विनाशपर्व - भारतीय वस्त्र उद्योग को तार - तार किया अंग्रेजों ने

प्रशांत पोळ

विनाशपर्व - भारतीय वस्त्र उद्योग को तार - तार किया अंग्रेजों ने

हजार – दो हजार वर्ष पहले, जब भारत विश्व व्यापार में सिरमौर था, तब उस व्यापार का एक बड़ा हिस्सा था – वस्त्र उद्योग का। चाहे सूती वस्त्र हों, या रेशम – मलमल के, भारतीयों का डंका सारी दुनिया में बजता था। यूरोप को सूती वस्त्र पहनाए भारत ने। उन्हें तो मात्र ऊनी वस्त्र ही मालूम थे। कपास की खेती वे जानते ही नहीं थे। पूर्व और पश्चिम, दोनों दिशाओं के देश, भारतीय वस्त्रों के लिए पागल रहते थे।

वस्त्रोद्योग यह भारत का प्राचीन उद्योग है। ऋग्वेद में इसका उल्लेख आता है। ऋग्वेद के दूसरे मण्डल में वर्णन है कि सबसे पहले ऋषि गृत्स्मद ने कपास का बीज बोया, उससे बने पेड़ से कपास प्राप्त की और फिर उस कपास से सूत बनाया। इस सूत से कपड़ा बनाने के लिए उन्होंने लकड़ी की तकली बनाई। वैदिक भाषा में कच्चे धागे को ‘तन्तु’ कहा गया। यह तन्तु बनाते समय, कपास के बचे हुए हिस्से को ‘ओतु’ कहा गया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी कपड़ों और बुनकरों का उल्लेख है।

कुछ हजार वर्ष पहले, भारत में कपड़ा बनाने की प्रक्रिया ने एक बड़े उद्योग का स्वरूप धरण किया। कपड़ों को विभिन्न शैली में तैयार करना और उनको रंग लगाना, यह प्रक्रिया भारत में 5,000 वर्ष पहले से, सामान्य रूप से होती थी। डॉ. स्टेनले वोलपर्ट (Dr Stanley Wolpert) यह अमरीका के यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया में इतिहास विषय के प्राध्यापक हैं। इन्होंने लिखा है कि ‘भारत यह सूती वस्त्रों का घर था। सूती वस्त्रों का प्रारंभ भारत से ही हुआ, तथा सूत कातना और उस की बुनाई, यह भारतीयों ने ही विश्व को सिखाया है’। प्रोफेसर डी पी सिंघल भी लिखते हैं कि ‘चरखा’ (Spinning Wheel) भारत की विश्व को देन है। मोहन-जो-दरो की खुदाई मे, एक कपड़े का टुकड़ा और रस्सी मिली। दोनों का परीक्षण करने पर ध्यान में आता है कि उस हड़प्पा कालीन संस्कृति के समय (अर्थात लगभग पांच से सात हजार वर्ष पूर्व) भारत में उन्नत किस्म के कपड़े बनते थे।

इंग्लैंड के ‘थ्रोप कॉलेज ऑफ टेक्नोलॉजी’ के अध्यक्ष रहे, प्रोफेसर जेम्स ऑगस्टीन ब्राउन स्केरर (Prof James Augustin Brown Scherer : 1870 – 1944) ने एक पुस्तक लिखी है, ‘कॉटन एज ए वर्ल्ड पावर’। 1996 में यह पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई। कपास के वैश्विक महत्व को लेकर उन दिनों यह पुस्तक प्रमाण मानी जाती थी। इस पुस्तक के दो भाग हैं। पहले भाग का शीर्षक हैं – ‘फ्रॉम इंडिया टू इंग्लैंड। इस भाग में प्रोफेसर जेम्स स्केरर ने एक पूरा प्रकरण भारत में कपास और कपड़ों के निर्माण पर विस्तार से लिखा है। इस प्रकरण (अध्याय) का शीर्षक है – ‘हिन्दू स्किल’। इस प्रकरण में इन्होंने भारत में कपास से बने कपड़ों का उद्योग कितना प्राचीन और परिपक्व है, इसके बारे में विस्तार से लिखा है। प्रोफेसर स्केरर इस पुस्तक में लिखते हैं कि ‘उस जमाने में हिन्दू कारीगरों द्वारा बनाए गए कपड़े, आज की हमारी उन्नत मशीनों पर बनाए गए कपड़ों से भी अच्छे थे’। _Thousands of years before the invention of cotton machinery in Europe, Hindu gins were separating fiber from seed, Hindu wheels were spinning the lint in to yarn and frail Hindu looms weaving these yarns in to textiles._ (यूरोप में सूती वस्त्र बनाने वाली मशीनों का आविष्कार होने के हजारों वर्ष पहले, हिन्दू तकलियों से कपास की बीजों से धागा निकाला जाता था। चरखे और कताई के उपकरणों से इन धागों से तागा बनाया जाता था और हिन्दू करघे, उन तागों का वस्त्र बनाते थे। पृष्ठ – 19 )

प्रो. स्केरर ने अनेक विदेशी प्रवासियों के अनुभवों का भी उल्लेख किया है। वे आगे लिखते हैं, ‘अरब के दो प्रवासियों ने कुछ सौ वर्ष पहले लिख रखा है कि हिन्दू कारीगरों (जुलाहों) द्वारा बनाए गए वस्त्र इतने उत्तम प्रकार के एवं उच्च गुणवत्ता (extraordinary perfection) के होते हैं, कि ऐसे कहीं भी नहीं मिलते। वे इतने नाजुक होते हैं, कि एक छोटी सी अंगूठी में से भी निकाले जा सकते हैं’। प्रो. स्केरर ने जीन बैप्टिस्ट टैवर्नियर, फ्रेंच प्रवासी का उद्धरण भी दिया है।

सत्रहवीं शताब्दी में जीन टैवर्नियर नामक हीरे के व्यापारी ने अनेकों बार पर्शिया (आज का ईरान) और भारत की यात्राएं कीं। 1660 में उसने भारतीय वस्त्रों की गुणवत्ता के बारे में लिख रखा है कि ‘कुछ वस्त्र इतने तलम और मुलायम थे कि हाथों को उनके अस्तित्व का अनुभव ही नहीं होता। कुछ वस्त्र तो इतने पारदर्शक थे कि पहनने पर भी, कपड़े पहने हैं, ऐसा लगता ही नहीं था।

टेवर्नियर ने भारतीय वस्त्रों के बारे में एक अनुभव साझा किया है– ‘एक पर्शियन राजदूत जब अपने देश वापस गया, तब उसने अपने सुलतान को एक नारियल भेंट दिया। दरबारियों को अचरज लगा, कि अपने सुलतान को इस राजदूत ने मात्र एक नारियल दिया? किन्तु उनके आश्चर्य कि कोई सीमा नहीं रही, जब उन्होंने देखा कि उस नारियल में 230 यार्ड (अर्थात 210 मीटर) का मलमल का तलम और अत्यंत मुलायम कपड़ा, बड़ी ही अच्छी तरह से संजो कर रखा गया है.!’

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी विल्किंस जब वापस इंग्लैंड गए, तो उन्होंने सर जोसेफ बेक को भारत से लाया मलमल का कपड़ा भेंट दिया। सर जोसेफ बेक ने इस कपड़े के बारे में आश्चर्य व्यक्त करते हुए लिखा है, “मेरे मित्र विल्किंस ने मुझे जो भारतीय कपड़ा दिया, वह अत्यंत तलम, मुलायम और आकर्षक है। इस 5 यार्ड 7 इंच (अर्थात 15 फीट 7 इंच) लंबे कपड़े का वजन है मात्र 34.3 ग्रेन (15.5 ग्रेन का 1 ग्राम होता है। अर्थात उस कपड़े का वजन था मात्र 2 ग्राम) !

इस मलमल कि गुणवत्ता कि एक और बानगी –
सर जोसेफ बेक ने जिस मलमल के कपड़े के बारे में लिख के रखा है, उस का थ्रेड काउंट था 2425। (थ्रेड काउंट का अर्थ होता है, 1 वर्ग इंच / सेंटीमीटर में कितने थ्रेड, याने धागे होते हैं। ज्यादा थ्रेड अर्थात ज्यादा धागे होने से वह कपड़े ज्यादा महीन, ज्यादा मुलायम और ज्यादा शान-शौकत वाले होते हैं) आज के अत्याधुनिक मशीन्स पर बने कपड़ों के थ्रेड काउंट 600 के ऊपर नहीं होते। अर्थात आज की अत्याधुनिक मशीनरी भी, उन दिनों के भारतीयों के हाथों से बुने वस्त्रों की गुणवत्ता नहीं ला सकती !

उन्नीसवीं सदी के एक अंग्रेज़ विद्वान, सर जॉर्ज बर्डवुड (1832 – 1917) ने भारत पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। इनका अधिकतम समय भारत में बीता। 8 दिसंबर 1832 में, उस समय के ‘बॉम्बे प्रेसीडेंसी’ के बेलगांव (वर्तमान में कर्नाटक का ‘बेलगावी’ शहर) में इनका जन्म हुआ था। वे डॉक्टर बने, पर्शियन युद्ध में हिस्सा लिया, ग्रांट मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर रहे और बाद में बॉम्बे के शेरिफ़ भी बने। 1868 में वे इंग्लैंड गए। वहां भारत संबंधी कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारी के रूप में काम किया। इनकी लिखी हुई कुछ प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है, ‘द इंडस्ट्रियल आर्ट्स ऑफ इंडिया’। यह पुस्तक इन्होंने ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट – इंडिया अफेयर्स’ के अनुरोध पर लिखी। इस पुस्तक में पृष्ठ 73 पर वे लिखते हैं, ‘बताया जाता है कि जहाँगीर के काल में पंद्रह गज लंबी और एक गज चौड़ी ढाका कि मलमल का वजन मात्र 10 ग्रेन (1 ग्राम से भी कम) होता था’।

इसी पुस्तक के पृष्ठ 95 पर इन्होंने लिखा है, ‘अंग्रेज़ और अन्य यूरोपियन लेखकों ने तो यहां के मलमल, सूती और रेशमी वस्त्रों को ‘बुलबुल कि आँख’, ‘मयुर कंठ’, ‘चांद सितारे’, ‘पवन के तारे’, ‘बहता पानी’, ‘संध्या कि ओस’ जैसी अनेक काव्यमय उपमाएं दे डाली हैं।’

सर एडवर्ड बैंस (Sir Edward Baines : 1800 – 1890) यह इंग्लैंड के एक समाचारपत्र के संपादक थे और ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य भी रहे। वर्ष 1835 में उन्होंने एक पुस्तक लिखी – ‘हिस्ट्री ऑफ कॉटन मैनुफेक्चरर’। इस में सर बैंस लिखते हैं- ‘अपने वस्त्र उद्योग में भारतीयों ने प्रत्येक युग के अतुलनीय, सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ मानदंडों को बनाए रखा। उनके कुछ मलमल के वस्त्र तो मानो मानवों के नहीं, अपितु परियों और तितलियों द्वारा तैयार किए हुए लगते हैं।’

यही कारण था कि इस्लामी आक्रांताओं की ज़्यादतियों के बाद भी अंग्रेजों का शासन आने से पहले तक, भारतीय वस्त्र उद्योग का प्रदर्शन अच्छा था। वर्ष 1811 – 12 में (अर्थात अंग्रेजों के हाथ में पूरे भारत कि सत्ता आने से थोड़ा पहले), भारत से होने वाले निर्यात में सूती वस्त्रों का हिस्सा ३३% था। दुर्भाग्य से अंग्रेजों की नीतियों के कारण, वर्ष 1850 – 51 तक, वह मात्र 3% रह गया था।
(क्रमशः)

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