भ्रष्टाचार पर वार से बौखलाया विपक्ष
बलबीर पुंज
राजनीति भी शेष जीवन की भांति, विरोधाभासों से भरी हुई है। दिल्ली और पंजाब में शासित आम आदमी पार्टी (‘आप’) गांधीवादी अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (वर्ष 2011) से जनित राजनीतिक दल है। किंतु विडंबना देखिए कि उसका शीर्ष नेतृत्व वित्तीय कदाचार और शराब घोटाले में जेल में बंद है। भ्रष्टाचार संबंधी आरोप कितने सही हैं या गलत, इसका निर्णय तो समय आने पर न्यायालय ही करेगा। परंतु यह स्थापित सत्य है कि गांधीवादी चिंतन से प्रेरणा पाने का दावा करने वाली ‘आप’ ने राजधानी दिल्ली में शराब आपूर्ति को सुलभ और सस्ता बनाने का भरसक प्रयास किया था। क्या इसे गांधीजी के सिद्धांतों के अनुकूल कहा जाएगा?
इसी मामले से संबंधित आबकारी घोटाला मामले में गिरफ्तार दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के समर्थन में आठ विपक्षी दलों ने 5 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है। वास्तव में, यह पत्र ‘कोढ़ में खुजली’ जैसा है। इस चिट्ठी का निहितार्थ यह है कि राजनीतिज्ञों पर लगे रिश्वतखोरी के आरोपों की न तो कोई जांच हो और न ही उनके विरुद्ध कोई अदालती कार्रवाई की जाए।
ये सभी विरोधी दल स्वयं को ‘सेकुलर’ और शत-प्रतिशत गांधीवाद से प्रेरित होने का झंडा बुलंद करते हैं। परंतु वे भूल जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन में गांधीजी कैसे वित्तीय शुचिता बरतते थे, इसके उनके जीवन में कई उदाहरण हैं। उन्होंने अपने पुत्र हरिलाल को खोना स्वीकार कर लिया, किंतु उसके लिए वित्तीय सहायता का आग्रह कभी नहीं किया। यही कारण है कि स्वतंत्रता पश्चात जब 18 जून 1948 को हरिलाल लावारिसों की भांति मुंबई स्थित एक अस्पताल में अंतिम सांसें गिन रहा था, तब उसके साथ कोई नहीं था। इस पृष्ठभूमि में नेहरू-गांधी-वाड्रा, लालू-अखिलेश और अब्दुल्ला-मुफ्ती आदि राजनीतिक परिवारों की स्थिति क्या है?
अगस्त 1947 के बाद कुछ वर्षों तक सार्वजनिक जीवन में शुचिता का अत्यंत महत्व था। जब 1957-58 में मुद्रा घोटाले से भारतीय आर्थिकी में भूचाल आया, तब मामले में अपना नाम आने पर तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णानामचारी ने अपने सभी पदों से त्यागपत्र दे दिया। ऐसा ही एक प्रसंग पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री से भी जुड़ा है। अगस्त 1956 में महबूबनगर (तब आंध्रप्रदेश का क्षेत्र) में रेल दुर्घटना, जिसमें 112 लोगों की मौत हो गई थी— होने पर तत्कालीन रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने त्यागपत्र दे दिया।
कालांतर में उन राजनीतिज्ञों ने भी इस मर्यादा का अनुसरण किया, जो वैचारिक रूप से गांधी दर्शन के सबसे निकट रहे। जब 1990 के दशक में जैन हवाला कांड में भाजपा के दीर्घानुभवी नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम सामने आया, तब उन्होंने अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता को अक्षुण्ण रखने हेतु वर्ष 1996 में लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था और बेदाग साबित होने तक दोबारा संसद न जाने का प्रण लिया था। जब उच्च न्यायालय और सर्वोच्च अदालत ने आडवाणी को बेदाग घोषित किया, तब उन्होंने 1998 में चुनावी राजनीति में वापसी की। इस पृष्ठभूमि में गांधीवादी ‘आप’ को मनी लॉन्ड्रिंग (कालेधन को वैध बनाना) मामले में मई 2022 से जेल में बंद आरोपी पूर्व मंत्री सत्येंद्र जैन से त्यागपत्र लेने में नौ माह का समय लग गया।
गांधीजी की विरासत पर अपना उत्तराधिकार समझने वाली कांग्रेस ने सत्येंद्र-सिसोदिया मामले में ‘आप’ का साथ देने से परहेज किया है। किंतु यह गांधीवादी चिंतन पर खरा उतरने से अधिक राजनीतिक विद्वेष से प्रेरित है, क्योंकि ‘आप’ आज जिस राजनीतिक जमीन पर अपना विस्तार कर रही है, वह मूलत: कांग्रेसी है। सच तो यह है कि कांग्रेस के स्वयं का शीर्ष नेतृत्व, वित्तीय झोलझाल के गंभीर आरोपों से घिरा हुआ है और जमानत पर बाहर है। गत वर्ष जून में जब ईडी ने नेशनल हेराल्ड मामले में आरोपी राहुल गांधी को पूछताछ हेतु बुलाया था, तब कांग्रेस के लगभग सभी वरिष्ठ नेताओं के साथ सैकड़ों-हजार पार्टी कार्यकर्ताओं ने जमकर विरोध-प्रदर्शन किया था। इस पृष्ठभूमि में मुझे 27 मार्च 2010 को गुजरात दंगा मामले में सर्वोच्च न्यायालय निर्देशित विशेष जांच दल (एसआईटी) द्वारा तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछताछ करने का मामला स्मरण होता है। तब उनके साथ न ही कोई भारी भीड़ थी और न ही तब कोई प्रदर्शन हुआ था। घंटों की पूछताछ के बाद वर्ष 2012 में एसआईटी ने मुख्यमंत्री मोदी को क्लीन-चिट दे दी, जिसे बार-बार मिलने वाली चुनौती पर शीर्ष न्यायालय ने 24 जून 2022 को अंतिम विराम लगा दिया।
विपक्षी दलों द्वारा चिट्ठी में जो आरोप लगाए गए हैं, उनका मर्म यह है कि मोदी सरकार जांच एजेंसियों का दुरुपयोग करके प्रतिशोधात्मक कार्रवाई कर रही है। क्या ऐसा है? अभी भाजपा शासित कर्नाटक में क्या हुआ? इस दक्षिण राज्य में भाजपा विधायक एम. वीरुपक्षप्पा के नौकरशाह बेटे मदल प्रशांत को साबुन-डिटर्जेंट बनाने वाली सरकारी कंपनी को कच्चे माल की आपूर्ति सौदे को स्वीकृति देने के बदले 40 लाख रुपये की रिश्वत लेते लोकायुक्त की भ्रष्टाचार निरोधक शाखा ने गिरफ्तार कर लिया। लोकायुक्त पुलिस ने 2-3 मार्च को तलाशी के बाद प्रशांत मदल के निजी कार्यालय से कुल दो करोड़ दो लाख रुपये, तो मदल विरुपक्षप्पा के घर से छह करोड़ 10 लाख 30 हजार रुपये जब्त किए थे। क्या यह सत्य नहीं कि जिस प्रकार भाजपा विधायक के बेटे के पास छापेमारी में करोड़ों रुपये की नकदी मिली है, ठीक उसी प्रकार अन्य दलों के विरोधी नेताओं के घरों में नोटों का अंबार मिला है?
यह भी दिलचस्प है कि जिन आठ विपक्षी दलों ने सिसोदिया के समर्थन में प्रधानमंत्री को पत्र लिखा है, उनमें अधिकांश की छवि भ्रष्टाचार के आरोपों से कलंकित है। प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, शिक्षक भर्ती सहित सारधा-रोजवैली चिटफंड आदि घोटालों में घिरी हुई है। बिहार के उप-मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष तेजस्वी यादव पर स्वयं बेनामी संपत्ति रखने का आरोप होने के साथ रेलवे परियोजना आवंटन में वित्तीय गड़बड़ी करने और आईआरसीटीसी घोटाले के भी आरोप हैं। उनके पिता और राजद के सर्वोच्च नेता लालू प्रसाद यादव, चारा घोटाले से संबंधित 6 में से 5 मामलों में अब तक अदालत से सजा पा चुके हैं, तो 6 मार्च को ही राबड़ी देवी से जमीन के बदले नौकरी देने के मामले में सीबीआई ने पूछताछ की है। स्पष्ट है कि चिट्ठी से मोदी सरकार का भ्रष्टाचार विरोधी अभियान बाधित नहीं होने वाला।
इसी प्रकार पत्र लिखने वाले नेशनल कान्फ्रेंस नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला पर जम्मू-कश्मीर क्रिकेट संगठन में 2002-11 के बीच लगभग 44 करोड़ रुपयों की वित्तीय गड़बड़ी करने का आरोप है, जिसमें ईडी उनकी लगभग 12 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त कर चुकी है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकंपा) प्रमुख शरद पवार को वर्ष 2016 में ‘आप’ संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ‘कालाबाजारी व्यवसायी’ कह चुके हैं। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के शासनकाल (2019-2022) में गृहमंत्री रहे अनिल देशमुख बीते दिनों ही 100 करोड़ रुपये की वसूली मामले में जमानत पर बाहर आए हैं, तो राकंपा कोटे से मंत्री बनाए गए नवाब मलिक मनी लॉन्ड्रिंग आदि मामले में अब भी जेल में बंद हैं।
वास्तव में, भ्रष्टाचार के विरुद्ध वर्तमान केंद्र सरकार की लड़ाई राजनीतिक प्रतिशोध से प्रेरित न होकर, उस चिंतन के विरुद्ध है, जिसमें सत्ता को केवल धन उगाही का उपक्रम बनाकर राजनीतिज्ञों द्वारा जनकल्याण का पैसा डकारने की मानसिकता है, जिसने समाज में वंचित-शोषित वर्ग और रसातल में तो पहुंचाया ही है, साथ ही देश का विकास भी दशकों तक अवरुद्ध किया है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)