मकर संक्रांति : लड्डुओं की मिठास के साथ नरसंहार का चीत्कार भी

मकर संक्रांति : लड्डुओं की मिठास के साथ नरसंहार का चीत्कार भी

रमेश शर्मा

मकर संक्रांति : लड्डुओं की मिठास के साथ नरसंहार का चीत्कार भीमकर संक्रांति : लड्डुओं की मिठास के साथ नरसंहार का चीत्कार भी

भारत में मकर संक्रांति का एक विशेष महत्व है । सूर्य देव अपनी दिशा बदलते हैं। इस शुभ घड़ी पर लड्डू खाने और खिलाने का प्रचलन है। पर भारत के इतिहास में कम से कम तीन मकर संक्रांति ऐसी थीं, जिनमें लाखों निर्दोष नागरिकों के सामूहिक नरसंहार के चीत्कार से धरती काँप उठी थी। हमलावर अहमदशाह अब्दाली ने 1761 में पानीपत में लगभग एक लाख मराठा सैनिकों और तीर्थ यात्रियों का सामूहिक नर संहार किया था। 1858 में अंग्रेजों ने मध्यप्रदेश के सीहोर में 356 क्राँतिकारियों का नरसंहार किया और 1949 में भोपाल नवाब के एक सिपाही ने रायसेन जिले के बौरास में चार नौजवानों को इसलिये गोली मार दी थी कि वे तिरंगा फहराना चाहते थे।

पानीपत का नरसंहार

भारत के इतिहास में कुछ ऐसी घटनाएं दर्ज हैं, जिनके स्मरण मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी ही एक घटना 14 जनवरी 1761 की है, जब एक लाख से ऊपर भारतीयों को मारा गया, इनमें चालीस हजार तो निहत्थे तीर्थ यात्री ही थे। यह घटना पानीपत के तीसरे युद्ध की है, जो मराठों और अफगान हमलावर अहमदशाह अब्दाली के बीच लड़ा गया था। मराठों के विरुद्ध अब्दाली को दो भारतीय शासकों ने हमले के लिये आमंत्रित किया था। ये थे अवध के नबाब सिराजुद्दौला और रोहिल्ला नजीबुद्दौला। इन दोनों को न केवल मराठों ने हराया था बल्कि इनसे राजस्व भी वसूला था। इस तरह भारत की धरती पर हुए इस युद्ध में इन स्थानीय शासकों ने मराठों की घेराबंदी करके न केवल रसद के मार्ग रोक दिये थे बल्कि अपने मुखबिरों के माध्यम से मराठों की रणनीति की जानकारी भी अहमदशाह अब्दाली को देते थे।

पानीपत के इस तीसरे युद्ध से पहले उसने 1757 में दिल्ली पर धावा बोला था और मुगल बादशाह को बंदी बनाकर भारी लूट की थी। तब मराठों की सेना ने आकर बादशाह को मुक्त कराया और अहमदशाह को वापस खदेड़ा था। इस घटना से अहमदशाह तिलमिलाया हुआ था और जब उसे सिराजुद्दौला और नजीबुद्दौला का साथ मिला तो वह बिना देर किये चढ़ आया। इसका समाचार जब पेशवा को लगी, तब मराठा साम्राज्य की कमान पेशवा बालाजी बाजीराव के हाथ में थी। उन्होंने मराठों की सेना रवाना की इसकी कमान सदाशिव राव भाऊ को सौंपी। मराठों की इस सेना में पेशवा का पुत्र आनंद राव भी साथ था। मराठों की फौज पूरे वेग से आगे बढ़ी। वह दिल्ली पहुँची। मराठों ने दिल्ली को मुक्त कराया, लाल किले पर अपना ध्वज फहराया। दिल्ली की व्यवस्था बनाकर मराठों ने पंजाब की ओर रुख किया। वे इस बार अब्दाली को पूरा सबक सिखाना चाहते थे। मराठा सेना जितने क्षेत्र मुक्त कराती, वहां व्यवस्था के लिये अपने कुछ सैनिक तैनात करती जाती थी। इससे सैनिकों की संख्या कम होती गयी। मराठा सेना की शरण में वे हजारों स्त्री पुरुष भी आये, जो अब्दाली के आक्रमण से पीड़ित थे या तीर्थ यात्री थे। इतिहासकार मानते हैं कि मराठा सेना में बड़ी संख्या में भेदिये थे, जो एक ओर अब्दाली को मराठा सेना गतिविधियों की जानकारी दे रहे थे, दूसरी ओर व्यवस्था के नाम पर सैनिकों की संख्या कम कर रहे थे। अब्दाली ने पानीपत में ही निर्णायक युद्ध की रणनीति तैयार की थी। वहाँ तगड़ी मोर्चाबंदी थी। जैसे ही मराठा सेना पानीपत पहुँची भयानक युद्ध छिड़ गया। यह 14 जनवरी मकर संक्रांति का दिन था। यह हमला अकस्मात हुआ और पूरी तैयारी से हुआ था। फिर भी मराठा सेना भारी पड़ी उन्होंने अब्दाली का रसद भंडार छीन लिया। सदाशिव भाऊ हाथी पर सबार थे और आनंदराव घोड़े पर। तभी बंदूक की एक गोली आनंदराव को लगी। उन्हें गिरते सदाशिव राव भाऊ ने देख लिया था। वे हाथी से उतर आये और आनंदराव के शव को ढूँढने लगे। इधर मराठा सेना ने अपने सेनापति का हाथी खाली देखा उनमें घबराहट हुई और अफरा तफरी मच गयी। अवसर का लाभ अब्दाली ने उठाया, उसने ऐलान करा दिया कि सदाशिव भाऊ का सिर काट लिया है। इससे हमलावर सैनिकों का जोश बढ़ा और मराठा सेना में भगदड़ मच गई। इसी भगदड़ में किसी ने सदाशिव राव भाऊ का सिर काट लिया। अब्दाली ने यह ऐलान कराया कि जो हथियार डाल देगा उसकी जान बख़्शी जायेगी। मराठा सेना में जो भेदिये थे, उन्होंने सैनिकों को हथियार डालने को प्रेरित किया। मराठा सैनिक घेर लिये गये, बंदी बना लिये गये। बड़ी मुश्किल से होल्कर बीस महिलाओं को सुरक्षित निकाल पाए। दोपहर तीन बजे तक यह सब हो गया। इसके बाद महिलाओं को अलग कर लिया गया। पुरुषों का कत्ले आम शुरू हुआ। अनुमान है कि एक लाख से अधिक लोगों को कत्ल किया गया। इनमें चालीस हजार तीर्थयात्री भी थे। यह मराठा सेना की सबसे बड़ी क्षति थी। इतिहास का काला दिन माना गया। महाराष्ट्र का शायद कोई घर ऐसा नहीं था जिसका परिजन इस युद्ध में बलिदान न हुआ हो।

पानीपत में खून की नदियाँ बहा कर और कटे हुये सिरों का ढेर लगाकर अहमदशाह दिल्ली लौटा और उसने उन सब को कत्ल किया, जिनको दिल्ली की सुरक्षा के लिये मराठों ने तैनात किया था। अब्दाली का यह कत्ले आम और लूट का क्रम फरवरी 1761 तक चला। इसमें 14 जनवरी 1761 बुधवार का दिन मकर संक्रांति की तिथि सबसे भीषण रक्तपात से भरी थी ।

सीहोर में 356 क्राँतिकारियों का सामूहिक नरसंहार

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 6 अगस्त 1857 को मध्य प्रदेश की सीहोर छावनी में सिपाहियों विद्रोह किया था। और अपनी स्वतंत्र सरकार स्थापित करने की घोषणा कर दी थी। सीहोर में अंग्रेज पॉलिटिकल एजेन्ट का मुख्यालय था। यहाँ एक फौजी टुकड़ी रहा करती थी। महावीर कोठ के आह्वान पर यहां के सिपाहियों ने विद्रोह किया था और छावनी को पूरी तरह अंग्रेजों से मुक्त हो गई थी, किंतु यह क्राँतिकारी सरकार मात्र 6 महीने ही चल सकी। क्रांति को कुचलने के लिए कर्नल ह्यूरोज महू छावनी से चलकर पहले इंदौर आया। इन्दौर में सैनिकों की क्रांति कुचलने के बाद कर्नल ह्यूरोज 13 जनवरी 1858 को सीहोर पहुंचा और अगले दिन 14 जनवरी 1858 को 356 क्राँतिकारी सैनिकों को सीहोर की सीवन नदी के किनारे ले गया। उन्हें कतार में खड़ा किया और गोलियों से भून दिया। इस बर्बर हत्याकांड को मालवा के जलियांवाला के रूप में जाना जाता है।

बौरास गोलीकांड

भोपाल के स्वतंत्रता संग्राम में एक बड़ी घटना रायसेन जिले के उदयपुरा तहसील के ग्राम बौरास की है। यह गांव पुण्य सलिला नर्मदा नदी के किनारे बसा है। यह क्षेत्र भोपाल नवाब शासन के अंतर्गत आता था। देश में स्वतंत्रता 15 अगस्त 1947 को आ गई थी पर भोपाल रियासत स्वतंत्र नहीं हो सकी थी। भोपाल रियासत में नवाबी शासन चल रहा था और इस रियासत को भारतीय गणतंत्र में विलीन करने का आंदोलन चल रहा था। 14 जनवरी मकर संक्रांति का दिन था। बौरास गाँव के अंतर्गत नर्मदा किनारे मकर संक्रांति का मेला लगा था। मेले में उपस्थित जन समूह तक अपनी बात पहुँचाने के लिये आँदोलनकारियों ने सभा करनी चाही। नवाब के सिपाहियों ने सबको मेले से चले जाने की घोषणा की,  पर लोग न माने। वहाँ स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहरा दिया गया। इससे एक सिपाही इतना बौखलाया कि उसने गोली चला दी। उसने झंडा दूसरे को थमाया और गिर गया। सिपाही ने दूसरे को भी गोली मार दी। इस तरह एक एक करके चार लोग मौके पर ही बलिदान हो गए, एक घायल की मृत्यु बाद में हुई। इस तरह स्वाधीनता के लिये इस मेले में कुल पाँच बलिदान हुए। इससे पूरी रियासत में संघर्ष तेज हुआ और 1 जून 1949 को भोपाल रियासत भी भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बन गई।

ये वे तीन बड़ी घटनाएँ हैं। जिनमें मकर संक्रांति के पवित्र दिन के उत्सव में कुछ चीत्कार की प्रतिध्वनियाँ भी सुनाई देती हैं।

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