मणिकर्णिका से रानी लक्ष्मीबाई तक….
18 जून / रानी लक्ष्मीबाई बलिदान दिवस
मणिकर्णिका से रानी लक्ष्मीबाई तक….
मैं अपनी झांसी किसी को नहीं दूंगी का हुंकार लगाने वाली और अंतिम सांस तक अंग्रेजों के छल बल का लोहा लेने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का आज बलिदान दिवस है। उन्होंने कुल 23 वर्ष का जीवन पाया, लेकिन उसे ऐसे जिया कि अमर हो गईं।
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 को बनारस में एक मराठा ब्राह्मण परिवार में हुआ था (उनकी जन्मतिथि को लेकर मतभेद है, कहीं–कहीं 16 नवम्बर, 1828 का उल्लेख भी मिलता है)। माता पिता ने उनका नाम मणिकर्णिका रखा, लेकिन प्यार से मनु बुलाते थे। अपने चुलबुले स्वभाव के कारण पेशवा की वह छबीली थीं। चार वर्ष की आयु में मनु के सिर से मॉं का साया उठ गया। अब लालन पालन की पूरी जिम्मेदारी पिता मोरोपंत की थी। मोरापंत बिठूर के राजदरबार में थे, इसलिए मनु का भी अधिकतर समय वहीं बीतता था। इसका प्रभाव यह पड़ा कि घुड़सवारी, निशानेबाजी और तलवारबाजी उनके प्रिय खेल बन गए। मोरोपंत ने उन्हें इनका प्रशिक्षण दिया।
एक दिन झाँसी के महाराज शिवराव भाऊ ने मनु को चीते का शिकार करते देखा तो उनकी बहादुरी से इतने प्रभावित हुए कि मोरोपंत से अपने बेटे गंगाधर राव के लिए मनु का हाथ माँग लिया। 1842 में 14 वर्ष की आयु में मनु का विवाह गंगाधर राव से हो गया। विवाह के बाद उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला।
समय बीतने के साथ रानी लक्ष्मीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया, लेकिन दुर्भाग्यवश वह केवल 4 महीने जीवित रह पाया। इससे राजा–रानी दोनों के जीवन में निराशा छा गई। गंगाधर पुत्र वियोग में बीमार रहने लगे। अंग्रेजों की कुदृष्टि देखते हुए उन्होंने उत्तराधिकारी के रूप में अपने चचेरे भाई का बेटा गोद ले लिया। बच्चे को दामोदार राव नाम दिया गया। 21 नवम्बर, 1853 को महाराजा की मृत्यु हो गई। दामोदर राव की कम आयु के कारण रानी ने झाँसी राज्य का कार्यभार संभाला।
झाँसी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का हस्तक्षेप
गंगाधर राव की मृत्यु का समाचर सुनकर ब्रिटिश सरकार सक्रिय हो गई और रानी लक्ष्मीबाई को सूचना दिये बिना एक आदेश पत्र जारी कर दिया गया। उस समय लॉर्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल था। दामोदर राव रानी का जैविक पुत्र नहीं है, डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स के अंतर्गत यह तर्क गढ़कर उसने झाँसी जब्त करने की कार्यवाही शुरू कर दी। ब्रिटिश अधिकारियों ने राज्य के गहने जब्त कर लिये। झाँसी को अपने “संरक्षण” में रखने की घोषणा करते हुए मार्च 1854 में, रानी को 5000 रुपये सालाना की पेंशन बांध दी और रानी को किला छोड़कर महल में जाने के आदेश जारी कर दिए।
रानी की दहाड़ मैं अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी
जब अंग्रेज सरकार के अधिकारी एलिन ने दरबार में यह आदेश पत्र रानी को सुनाया तो वह एक सिंहनी की भांति दहाड़ उठी और अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा कि ‘मैं अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी।‘ हालांकि सरकार ने झाँसी को अपने अधीन कर लिया और रानी से झाँसी के सारे अधिकार छीन लिये। रानी अब झाँसी के राज्य कार्यों में हस्तक्षेप व दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकती थीं।
वार्ता का प्रयास
रानी ने इस तानाशाही के विरुद्ध लंदन में अपील दायर की। डलहौजी को भी पत्र भेजा। लेकिन, याचिका खारिज कर दी गयी। रानी तीर्थयात्रा के बहाने वह राजाओं को संगठित करने लगीं। रानी ने अपनी एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया। महिलाओं को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया। उन्होंने झलकारी बाई, जो उनकी हमशक्ल थीं, को अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।
1857 का संग्राम
मेरठ से शुरू हो चुके 1857 के संग्राम की चिंगारी झाँसी पहुँची। रानी ने क्रांतिकारियों का साथ दिया। इससे अंग्रेज भड़क गए। उन्होंने रानी पर आक्रमण कर दिया, लेकिन रानी और क्रांतिकारी जमकर प्रतिकार करते हुए युद्ध लड़े, परिणामस्वरूप अंग्रेजों को झाँसी का किला छोड़कर भागना पड़ा। झाँसी पर रानी ने अपना शासन वापस पा लिया और 1858 तक पुन: शासन किया।
हार से तिलमिलाए अंग्रेजों ने सर ह्यूज रोज की अगुवाई में 23 मार्च, 1858 को झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने आत्म–समर्पण नहीं करने का निर्णय लिया। लगभग दो सप्ताह तक युद्ध चला। लेकिन 30 मार्च को भारी बमबारी से अंग्रेज किले की दीवार में सेंध लगाने में सफल हो गये। रानी दामोदर राव को लेकर कालपी की ओर चल पड़ीं। रानी का अंग्रेजों ने पीछा करना शुरू कर दिया। सौ मील की यात्रा के कारण रानी का घोड़ा थककर भूमि पर गिर गया और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। रानी घोड़े को छोड़कर आगे बढ़ीं, लेकिन यमुना तटपर पहुँचते ही अंग्रेजी सेना ने रानी को घेर लिया। बंदी बनाने का प्रयास किया, पर उन्होंने साहस से काम लिया और अंग्रेजी अधिकारी लेफ्टिनेंट वॉकर को वहीं, मार डाला। यहाँ से वह आगे बढ़ीं।
15 जून, 1858 का युद्ध, स्मिथ को पराजय
अंग्रेजी सेना का संचालन जनरल स्मिथ कर रहा था। सेनापति स्मिथ ने क्रांतिकारियों पर कोट की सराय नामक स्थान पर हमला किया। कोट की सराय की सुरक्षा का भार रानी पर था। वह अपनी दो सखियों मन्धर तथा काशी के साथ क्रान्तिकारियों का नेतृत्व करते हुए सेनापति स्मिथ का सामना करने मैदान में आईं। स्मिथ को पराजय स्वीकर कर भागना पड़ा। यह युद्ध तीन दिन और तीन रात 18 जून तक चला।
स्मिथ की पराजय के बाद ब्रितानी जनरल ह्यूरोज रानी से युद्ध करने आया। स्मिथ के साथ चले तीन दिन के युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई थककर चूर थीं। रानी की हालत देख अंग्रेज सेना उनको घेरने लगी। यह देख उन्होंने ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया। अपनी तेज तलवार से शत्रुओं को काटते–काटते वह अचानक एक नाले के पास पहुँच गयीं, जिसे पार करना कठिन था। नया घोड़ा नाला पार नहीं कर सका।
तभी एक शत्रु सिपाही ने उनके सिर पर वार किया, जो बहुत गहरा था। दूसरे शत्रु सिपाही ने मौका पाकर रानी लक्ष्मीबाई के पेट में गोली मार दी। तीसरे शत्रु सिपाही ने उनकी छाती पर किरिच घोंप दी। इतने सारे घाव के कारण रानी निढाल हो गईं। उस समय रानी के साथ राजपूत सेना की ओर से रामचन्द्र राव देशमुख लड़ रहे थे तथा उनकी रक्षा का भी प्रयास कर रहे थे। उन्होंने देशमुख से कहा कि ”सरदार अब मेरा बचना असंभव है। म्लेच्छ मेरे शरीर को स्पर्श न कर सकें, तुम्हें इसका प्रबंध करना है। मेरे गिरते ही तुम मेरे निर्जीव शरीर को एकांत में ले जाकर जला देना। यह दायित्व तुम्हारा है।” इतना कहते ही रानी ने पुन: हुंकार भरते हुए उन तीनों शत्रु सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
रामचन्द्र राव देशमुख ने बड़ी सावधानी से अमर वीरांगना रानी को उठाया और सुनसान जगह पर चिता तैयार कर उन्हें अंतिम विदाई दी। इस तरह 23 वर्ष की आयु में इस वीरांगना ने देश के लिये अपना बलिदान दे दिया।
अंग्रेजों ने किले पर कब्जा कर लिया। रानी के पिता को बंदी बना लिया गया और उन्हें फाँसी दे दी गई। उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को ब्रिटिश सरकार द्वारा पेंशन दी गई, हालांकि उनकी विरासत उन्हें कभी नहीं मिली।