भारत के निर्माण में संवर्धिनी महिला वैज्ञानिकों का योगदान

भारत के निर्माण में संवर्धिनी महिला वैज्ञानिकों का योगदान

वीरेन्द्र पांडेय

भारत के निर्माण में संवर्धिनी महिला वैज्ञानिकों का योगदान

कोई भी राष्ट्र तभी सशक्त बन सकता है, जब उसका हर नागरिक सशक्त हो। भारत के निर्माण में महिलाओं के योगदान का लंबा इतिहास रहा है। प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का स्थान प्राप्त था। पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वेदिक ऋचाएं ये बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और उन्हें अपना पति चुनने की भी स्वतंत्रता थी। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं।

राष्‍ट्र के समग्र विकास  में महिलाओं का लेखा-जोखा और उनके योगदान का दायरा असीमित है तथापि देश के चहुंमुखी विकास तथा समाज में अपनी भागीदारी को उन्होंने सशक्त ढंग से पूरा किया है।

भारतीय महिलाओं ने समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के अलावा तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। हालांकि विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक और वैज्ञानिक स्तर पर दोहरे संघर्ष करने पड़े थे, इसके बावजूद विज्ञान में महिलाओं ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया,  और उदाहरण स्थापित किए हैं। 19वीं शताब्दी में भारत के आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी की शुरुआत बहुत सहज नहीं थी। विपरीत परिस्थितियों और तमाम विषमताओं के बीच वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में महिलाओं ने उल्लेखनीय कार्य किया।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर विज्ञान के क्षेत्र में ऐसी वैज्ञानिक विदुषियों में से कुछ को याद करना प्रासंगिक है:
इरावती कर्वे को भारत की पहली महिला मानव विज्ञानी अर्थात anthropologist माना जाता है। फर्गुसन कॉलेज पुणे से सन 1926 में अपनी पढ़ाई पूरी कर, अपने पति दिनकर कर्वे की सहायता से पारिवारिक विरोध के बावजूद इरावती कर्वे ने जर्मनी में पढ़ाई की और पीएचडी पूरी करके वापस भारत लौट आईं। उस समय मानव विज्ञान को समाजशास्त्र की ओर झुकाव वाला विषय माना जाता था। लेकिन इरावती कर्वे ने भौतिक मानव शास्त्र पर शोध करना जारी रखा। 1947 में दिल्ली में आयोजित हुई नेशनल साइंस कॉन्फ्रेंस में एंथ्रोपोलॉजी डिवीजन की अध्यक्षता की। पुणे विश्वविद्यालय में सन् 1963 में मानव विज्ञान विभाग की स्थापना का श्रेय इरावती कर्वे को जाता है।

विभा चौधरी एक भौतिकविद थीं। उन्होंने कण भौतिकी और कॉस्मिक किरणों पर शोध कार्य किया था। अंतरराष्ट्रीय खगोल संघ ने उनके वैज्ञानिक योगदान का सम्मान करते हुए तारा एचडी 86081 का नामकरण “विभा” तारे के रूप में किया है। विभा ने विक्रम साराभाई के साथ एक शोध परियोजना पर भी कार्य किया था।

कमल रानादिवे एक कैंसर वैज्ञानिक थीं। वह उन शुरुआती वैज्ञानिकों में से एक थीं जिन्होंने स्तन कैंसर और उसकी अनुवांशिकता में संभावित संबंधों के बारे में तर्क रखे। वह भारतीय महिला वैज्ञानिक समिति के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं। भारतीय कैंसर शोध केंद्र मुंबई में भारत की पहली “ऊतक संवर्धन” प्रयोगशाला स्थापित करने का श्रेय डॉ. कमल रानीदिवे हो जाता है।

राजेश्वरी चटर्जी को कर्नाटक की पहली महिला इंजीनियर कहा जाता है। उनका जन्म कर्नाटक में हुआ और उनकी शुरुआती शिक्षा उनकी दादी मां के द्वारा चलाए जा रहे “स्पेशल इंग्लिश स्कूल” में हुई थी। उनकी दादी स्वयं मैसूर की शुरुआती महिला स्नातकों में से एक थीं और विधवा महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय थीं। राजेश्वरी ने भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलुरु के इलेक्ट्रिकल विभाग में नौकरी शुरू की। अपने निर्देशन में 20 पीएचडी विद्यार्थियों को निर्देशित किया और 100 से अधिक  शोध पत्र प्रकाशित किए। उन्हें अपने शोध कार्यों के लिए कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मान मिले।

अन्ना मणि मूलत: एक भौतिकविद और मौसम विज्ञानी थीं। उन्होंने मौसम विज्ञान के क्षेत्र में कई उपकरणों के विकास में योगदान दिया। सौर-विकिरण, ओजोन और अन्य विषयों पर उनके महत्वपूर्ण शोध पत्र प्रकाशित हुए। वह भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की महानिदेशक भी रहीं।

कादम्बिनी गांगुली की गणना भारत की उन शुरुआती महिलाओं में की जाती है, जिन्होंने मेडिसिन में कॉलेज डिग्री प्राप्त की। उनका जन्म भागलपुर में हुआ था। उनके पिता ब्रजकिशोर बसु ब्रह्म समाज से जुड़े समाज सुधारक थे।

पूर्णिमा सिन्हा भारतीय भौतिक विधि और भौतिकी में पीएचडी करने वाली बंगाल की पहली महिला हैं। कोलकाता में जन्मी पूर्णिमा सिन्हा ने प्रोफेसर सत्येंद्र नाथ बोस के दिशा निर्देशन में डॉक्टरेट किया। इसके बाद शोध करने के लिए वह स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका चली गईं। जहां उन्होंने एक्सरे के अनुप्रयोगों पर शोध किया। भारत वापस आकर उन्होंने अंग्रेजी और बांग्ला दोनों भाषाओं में लेखन किया। वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ-साथ पूर्णिमा सिन्हा बांग्ला भाषा में विज्ञान-संचार में भी सक्रिय रहीं। (संदर्भ- विज्ञान प्रगति)

भारत की स्वतंत्रता के 75वें वर्ष, स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव के अवसर पर हमारी इन महिला वैज्ञानिकों को याद करना तथा उनके योगदान को आज की पीढ़ी के समक्ष रखना महत्व का है। बहुत ही विषम परिस्थितियों में इन महिला विदुषियों ने समाज की अनेक रूढ़ियों व बाधाओं को तोड़ते हुए नई ऊंचाइयां प्राप्त कीं और समाज में एक प्रेरणा जागृत की। उनकी लगन व जोश ने स्वराज के लिए संघर्षरत समाज में “स्व” के जागरण में अहम भूमिका निभाई।

भारत@75 की इस यात्रा में लगभग आधी जनसंख्या (महिलाओं) के योगदान का गुणगान करना तथा उनके कृतित्व व व्यक्तित्व को नमन करना आज हम सभी का परम कर्तव्य है। आज के दिन यह और भी प्रासंगिक हो जाता है।

(लेखक मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान में कार्यरत हैं)

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