मानगढ़ धाम में सिमटी हैं जनजाति समाज के बलिदानियों की यादें
बांसवाड़ा से 70 किमी दूर गुजरात की सीमा पर स्थित मानगढ़ पहाड़ी साक्षी है उस क्रूरता की जब भक्त सम्मेलन में भाग ले रहे जनजाति समाज के निर्दोष लोगों पर अंग्रेजों एवं देसी रियासतों की संयुक्त सेना ने आक्रमण कर दिया था। जिसमें 1500 से अधिक लोग मारे गए थे। 17 नवम्बर 1913 में घटित यह हत्याकांड जलियांवाला बाग से भी बड़ा व क्रूर था। इतिहास के बारे में यह जानकारी प्रो. रतनपाल डोडियार ने हरिदेव जोशी राजकीय कन्या महाविद्यालय में अंतरसंकाय संवाद के अंतर्गत आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्यवक्ता के रूप में अपने विचार व्यक्त करते हुए दी।
उन्होंने बताया कि इस नरसंहार के बाद जनजाति समाज के आदर्श गोविन्द गुरू एवं उनके अनुयायियों को गिरफ्तार कर लिया गया। गोविंद गुरू को फांसी की सजा सुनाई गई परन्तु उनकी लोकप्रियता के भय से उसे आजन्म कारावास में बदल दिया गया। आज भी उनके अनुयायी उनके आदर्शों का पालन करते हैं और लड़ाई-झगड़ा, गो हत्या, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज प्रथा से दूर रहते हैं। लड़के-लड़की में कोई भेद नहीं करते, शुद्ध सात्विक जीवन जीते हैं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्राचार्य डाॅ. सर्वजीत दुबे ने कहा कि बलिदानियों के स्मरण मात्र से उनके जीवन के ऊँचे मूल्य हमें बदलने लगते हैं। श्री गोविन्द गुरू ने सर्वप्रथम आंतरिक बुराइयों, व्यसन, चोरी इत्यादि से छुटकारा दिलवाने का अभियान चलाया और फिर बाहरी गुलामी और शोषण से लड़ने के लिये सबको जगाया। मानगढ़ पर सद्गुणी लोग हर साल मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर सभा करते थे जिसे सम्प सभा कहा जाता था। सम्प सभा में श्री गोविन्द एवं उनके भक्तों ने राजाओं और अंग्रेजों से संघर्ष का बिगुल फूंका। इसमें हजारों लोगों ने बलिदान दिया जिसके परिणामस्वरूप अगली पीढ़ी को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। यह स्वतंत्रता व्यसनों से भी थी और शोषकों से भी थी।
इस अवसर पर डाॅ. गीताराम शर्मा, डाॅ. रक्षा निनामा, प्रमिला पारगी, डाॅ. नीति भट्ट, मोनिषा मीणा, मीना कुमारी मीणा, गिरीश कुमार, भूमिका पाण्डेय, कृष्णकान्त चौधरी आदि उपस्थित रहे। अंत में बलिदानियों की याद में दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
जनजाति समाज की सोच अच्छी थी, हमें भी इसी सोच के साथ आगे बढ़ते रहना चाहिए …..