मार्क्सवाद का उतरता मुखौटा

मार्क्सवाद का उतरता मुखौटा

बलबीर पुंज

मार्क्सवाद का उतरता मुखौटा

सामान्य जीवन की भांति राजनीतिक दलों, विचारधाराओं और सामाजिक संगठनों की पहचान कैसे होती है?- इसका उत्तर इस बात में निहित है कि वे किन जीवन मूल्यों का समर्थन और विरोध करते हैं। हाल ही में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने अपनी केंद्रीय समिति और पोलित ब्यूरो के पूर्व सदस्य कोबाड घांडी को दल से निष्कासित कर दिया। उसने घांडी पर मानवतावाद, अध्यात्मवाद का मार्ग अपनाने और मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की निंदा करने का आरोप लगाया है।

घांडी ने वर्ष 2019 में जेल से बाहर आने के बाद ‘फ्रैक्चर्ड फ्रीडम, ए प्रीजन मेमॉयर’ पुस्तक लिखी थी, जिसमें उन्होंने वामपंथी विचारधारा पर कई प्रश्न खड़े किए हैं। अपने निष्कासन पर घांडी का कहना है, “यदि मैं गलत हूं, तो उन्हें बताना चाहिए कि दुनियाभर में कम्युनिस्ट आंदोलन क्यों ढह रहा है।” यह स्थापित सत्य है कि मार्क्सवादी विचारधारा के केंद्र में हिंसा, रक्तपात और अराजकता है। वर्ष 1917-24 में व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में विश्व की पहली मार्क्सवादी व्यवस्था रूस में “रूसी सोवियत संघात्मक समाजवादी गणराज्य” के रूप में स्थापित हुई थी, जिसके कारण वहां खूनी खेल प्रारंभ हो गया। जो कोई लेनिन, उसके शासन या वामपंथ के विरुद्ध बोलता, या तो उसकी हत्या कर दी जाती या फिर कैदी बना लिया जाता। यह सब लेनिन की मृत्यु के पश्चात अगले सात दशकों तक जारी रहा। लेनिन द्वारा स्थापित और जोसेफ़ स्टालिन द्वारा संचालित साइबेरियाई गुलाग श्रम-कारावास में 1919-56 के बीच ऐसे ही 30 लाख विरोधियों को भेजा गया था, जहां उनका बलात् उत्पीड़न हुआ, जिसमें दसियों हजार निरपराधों की मौत भी हो गई।

जब मार्क्सवाद भारत की सनातन संस्कृति से घृणा करते हुए यहां अपने पैर जमाने हेतु छटपटा रहा था, तब उसने चीन को अपनी गिरफ्त में ले लिया। चीनी राष्ट्रवाद के नाम पर 1949 में माओत्से तुंग ने वामपंथी सरकार की नींव डाली। उनकी अमानवीय मार्क्स-नीतियों ने वर्ष 1976 तक तीन करोड़ से अधिक जिंदगियां लील लीं। लाखों भूख से मरे, तो असंख्य वामपंथ का विरोध करने के कारण मौत के घाट उतार दिए गए। इससे रसातल में पहुंची चीनी आर्थिकी को कालांतर में वामपंथियों ने रुग्ण पूंजीवाद से जोड़ा- जो आज भी है, किंतु उसकी केंद्रीय राजनीति अपरिवर्तित रही। 4 जून 1989 का बीजिंग स्थित तियानमेन चौक नरसंहार इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। तब लोकतंत्र के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे हजारों छात्रों को चीनी सरकार ने सैन्य टैंकों तले रौंदकर मार डाला था। वर्तमान समय में राष्ट्रपति शी जिनपिंग उसी परिपाटी को आगे बढ़ा रहे हैं, जो शिन्जियांग प्रांत में मुस्लिमों के मजहबी दमन, तिब्बत में बौद्ध संस्कृति संहार, हांगकांग में लोकतंत्र समर्थित स्वर को दबाना और ताइवान घटनाक्रम से स्पष्ट है।

चीन के अतिरिक्त पूर्वी यूरोप, उत्तर-कोरिया, कंबोडिया आदि देशों की केंद्रीय सत्ता को वामपंथ ने जकड़ा, जिसने दसियों करोड़ निरीह लोगों को खत्म कर दिया, तो करोड़ों लोग मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरसते नजर आए। स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक नेतृत्व द्वारा मार्क्सवादी समाजवाद से निकटता का दंश देश ने भी भुगता था। तब 1991 में देश को अपनी अंतरराष्ट्रीय देनदारियां चुकाने के लिए अपना स्वर्ण भंडार गिरवी रखना पड़ा था।

भारत में माओ-लेनिन-मार्क्सवाद विकृत स्वरूप में है। वे यहां लोकतंत्र-संविधान-मानवाधिकार की वकालत तो करते हैं, किंतु सत्ता मिलते ही अपने वैश्विक मानस-पिताओं की भांति उन्हें कुचल देते हैं। केरल और पश्चिम बंगाल- इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। देश में स्वतंत्रता के बाद से प्रतिस्पर्धक राजनीति की परंपरा है, जोकि स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है। इस दौरान कुछ छिटपुट हिंसा भी होती है। किंतु केरल और प.बंगाल में चुन-चुनकर वैचारिक और राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया जाता है।

देश में वामपंथ सिकुड़कर केरल तक सीमित रह गया है, जहां वैचारिक-राजनीतिक हिंसा विकराल रूप में है। 15 नवंबर को प्रदेश के पलक्कड़ जिले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 27 वर्षीय कार्यकर्ता एस.संजीत की बर्बरतापूर्ण हत्या कर दी गई। जिस समय यह घटना हुई, तब संजीत अपनी पत्नी को बाइक पर दफ्तर छोड़ने जा रहा था। इस हत्याकांड का आरोप इस्लामी कट्टरवादी संगठन- सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) के कार्यकर्ताओं पर लगा है। संघ से इनकी घृणा इससे स्पष्ट है कि संजीत के शव पर तलवार-चाकू के 50 निशान मिले हैं। यह हत्याकांड इतना जघन्य था कि एक अधेड़ व्यक्ति की घटनास्थल पर यह सब देखकर ही मौत हो गई। इस हत्याकांड के कुछ दिन बाद एसडीपीआई (SDPI) के गुंडों ने संजीत की हत्या का जश्न मनाते हुए जुलूस भी निकाला था।

अब चूंकि मृतक आरएसएस (RSS) से जुड़ा था, हिंदू था और हत्या का आरोप इस्लामी संगठन के सदस्यों पर है, इसलिए मार्क्सवादियों, वाम-उदारवादियों और स्वयंभू सेकुलरवादियों ने ना ही अखलाक-जुनैद-पहलू आदि मामले की तरह देश-विदेश में असहिष्णुता का शोर मचाया और ना ही किसी प्रकार का पुरस्कार वापसी का पाखंड किया। विडंबना है कि जो देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्र-न्यूज़ चैनल अक्सर अपनी विकृत सुर्खियों के माध्यम से हिंदू समाज के दानवीकरण का प्रयास करते हैं, वे संजीत की नृशंस हत्या को कहीं ‘सड़क हादसा’, तो कहीं ‘कथित हत्या’ बताते नजर आए। यह विकृत स्थिति मार्क्स-मैकॉले के संयुक्त दूषित-चिंतन के कारण है, जिनके मानसपुत्र विगत सात दशकों से भारतीय राजनीति, न्यायिक-व्यवस्था, नौकरशाही, साहित्यिक, शिक्षा-प्रणाली के साथ मीडिया समूह का भी हिस्सा बने हुए हैं।

ऐसा नहीं कि जहां वामपंथी सत्ता में हैं, केवल वहीं से  राजनीतिक-वैचारिक विरोधियों की हत्या आदि की खबरें आती हैं। प.बंगाल में वामपंथियों के वर्ष 2011 से हाशिए पर चले जाने के बाद भी वहां यह रक्तपात जारी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि दशकों से हिंसक मार्क्सवादी चिंतन के कारण केरल और प.बंगाल में बहुलतावाद, लोकतांत्रिक मर्यादा और समावेशी मूल्य, शेष भारत की तुलना में प्रभावहीन हो गए हैं। इसी वर्ष मई-जून में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद विरोधी दलों का समर्थन करने वालों पर योजनाबद्ध हमला- इसका प्रमाण है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, प्रदेश में अकेले वर्ष 1977-96 के बीच 28 हजार से अधिक राजनीतिक हत्याएं हुई थीं।

इस पृष्ठभूमि में कोबाड घांडी द्वारा अपने हालिया विचारों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से ‘निरंकुश’, ‘सभ्य-मूल्य विहीन’, ‘खोखला’, ‘पाखंड’, ‘अराजक’ आदि कहना और इस पर भाकपा (माओवादी) द्वारा उन्हें ‘मानवतावाद’ और ‘अध्यात्म’ की ओर झुकाव रखने का अपराधी बताकर निष्कासित करना- क्या संदेश देता है? ‘मानवतावाद’ और ‘अध्यात्म’ इस देश की मूल सनातन संस्कृति के स्तंभ हैं। इनका भाकपा (माओवादी) द्वारा आज भी विरोध और रक्तपात-अराजकता केंद्रित मार्क्सवादी विचारधारा का बचाव करना- वामपंथ के वास्तविक उद्देश्य को चरितार्थ करता है।

यदि बहुलतावाद, मानवता, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र आदि शाश्वत जीवन मूल्य इस भूखंड से तिरोहित हो गए, तो भारत- भारत नहीं रहेगा। कोई आश्चर्य नहीं कि जो नक्सली/माओवादी अपने मूल चिंतन के अनुरूप दशकों से लोकतांत्रिक सरकारों, विकास कार्यों-परियोजनाओं के साथ अस्पतालों, विद्यालयों आदि भवनों और सुरक्षाबलों को निशाना बनाते हैं, वह उन स्थानीय जनजातियों-वनवासियों को भी अमानवीय यातना देने या मौत के घाट उतारने से नहीं हिचकते, जो उनके विचारों का विरोध करते हैं। भारत में माओवादियों की लड़ाई केवल भूखंड या फिर जमीन के एक टुकड़े पर कब्जा करने की नहीं है, वास्तव में वह उन कालजयी जीवनमूल्यों को भी मिटाना चाहते हैं, जिसकी पहचान भारत है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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