संघ ने क्यों दी मुलायम सिंह यादव को श्रद्धांजलि?
बलबीर पुंज
संघ ने क्यों दी मुलायम सिंह यादव को श्रद्धांजलि?
विगत 14 मार्च को हरियाणा स्थित समालखा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तीन दिवसीय बैठक संपन्न हुई। यूं तो इससे संबंधित कई विषय सार्वजनिक विमर्श में रहे। किंतु बीते वर्ष जिन राजनीतिक और प्रख्यात हस्तियों का निधन हुआ, उन्हें संघ द्वारा दी गई श्रद्धांजलि पर विरोधियों के साथ आरएसएस से सहानुभूति रखने वाले आश्चर्यचकित हैं। संघ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्व.माताजी के साथ जिन 100 दिवंगत व्यक्तियों को नमन करते हुए शोक प्रकट किया, उनमें संघ और भाजपा के चिर-परिचित विरोधी— समाजवादी पार्टी के संस्थापक, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और रामभक्तों पर गोली चलाने का निर्देश देने वाले मुलायम सिंह यादव के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री शरद यादव और शांति भूषण भी शामिल थे।
वास्तव में, इस घटना पर हतप्रभ होने वाले दोनों पक्ष न तो संघ की कार्यपद्धति से परिचित हैं और न ही वे हिंदू जीवनदर्शन को समझते हैं। आरएसएस— हिंदुत्व के अनुरूप एक सर्वस्पर्शी-सर्वसमावेशी संगठन है, जो सनातन भारतीय चिंतन के उसी गर्भ से जनित है, जहां विश्व के सभी प्राणियों के साथ ब्रह्मांड का कल्याण निहित है। इसमें विचारों से असहमति रखने वालों और विरोधियों का भी सम्मान है।
भारतीय परंपरा में चाहे चार्वाक हो, जिनका उपभोक्तावादी दर्शन— “जब तक जियो, मौज करो। कर्ज लेकर भी घी पियो। मरने के बाद क्या है?” है, उसके बाद भी उन्हें ऋषि का स्थान प्राप्त है या फिर भगवान गौतमबुद्ध हों, जिन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को नकारा, तब भी उनके सिद्धांतों से असहमत होने के बाद भी करोड़ों हिंदुओं का बौद्ध अनुयायियों के साथ बंधुत्व अक्षुण्ण है। लाखों-करोड़ हिंदू भगवान बुद्ध को श्रीराम-श्रीकृष्ण की भांति भगवान विष्णु का अवतार मानकर उनकी तस्वीरों को अपने घरों-दुकानों में सहज रूप से लगाते हैं। इस पृष्ठभूमि में भगवान गौतमबुद्ध के लगभग 500 वर्ष बाद जन्मे ईसा मसीह के साथ क्या हुआ था, उनके अनुचरों ने क्या कुछ किया था और सदियों से मुस्लिम समाज में व्याप्त ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा और शिया-सुन्नी-अहमदिया विवाद— वह सर्वविदित है।
जब संघ अपने से असहमति रखने वालों को सम्मान दे रहा है, तब उसके विरोधी किस मानसिकता से प्रेरित हैं? यह ब्रिटेन में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी द्वारा आरएसएस पर विषवमन और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के हालिया वक्तव्य से स्पष्ट है। 5 मार्च को महाराष्ट्र स्थित रत्नागिरी में एक सभा को संबोधित करते हुए उद्धव ने कहा था, “सरदार पटेल ने संघ पर प्रतिबंध लगाया था, उसने उनका नाम चुरा लिया, नेताजी सुभाषचंद्र बोस का नाम चुराया और अब उन्होंने यही काम बालासाहेब ठाकरे के साथ किया है।” उद्धव भूल जाते हैं कि यह सभी जन पूरे देश के नेता थे, जिनका जीवन राष्ट्र को समर्पित था। राजनीतिक मतभेद होते हुए भी प्रत्येक देशवासी को इस पंक्ति के सभी जननेताओं का सम्मान करना चाहिए। उद्धव का विचार भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं है। वस्तुत: यह हिंसा-असहिष्णुता केंद्रित वामपंथ और एकेश्वरवाद के अनुरूप है, जिसमें क्रमश: ‘विरोधी या असहमति जताने वाले को शत्रु’ मानने और ‘शेष पूजापद्धति को झूठा-फरेब’ बताने की मानसिकता है।
स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक वर्षों में उपरोक्त स्थिति तुलनात्मक रूप से ऐसी नहीं थी। यह प्रतिरोधी विचारधाराओं के ध्वजवाहक नेहरू द्वारा अटलजी के प्रधानमंत्री बनने की ‘भविष्यवाणी’ और वाजपेयी द्वारा नेहरू के निधन पर व्यक्त भावुक श्रद्धांजलि देने, 1962 के भारत-चीन युद्ध में संघ की निस्वार्थ राष्ट्रसेवा देखने और पूर्वाग्रह के बादल छंटने के बाद 1963 में गणतंत्र दिवस की परेड में नेहरू द्वारा आरएसएस को आमंत्रित करने, 1965 में पाकिस्तान से युद्ध के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के आमंत्रण पर संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (गुरुजी) के सामरिक बैठक में पहुंचने, 1970-80 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा वीर सावरकर के सम्मान में डाक-टिकट जारी करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान की प्रशंसा करने, 1973 में गुरुजी के निधन पर इंदिरा गांधी द्वारा शोक प्रकट करते हुए उन्हें राष्ट्र-जीवन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाला विद्वान और प्रभावशाली व्यक्ति बताने और संघ की शाखाओं में प्रात:स्मरण में गांधीजी को स्थान देने आदि— से स्पष्ट है। यह परिदृश्य तब बदलना प्रारंभ हुआ, जब 1969-71 में इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने हेतु वामपंथियों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में प्रभावशाली बना दिया, जिससे भारतीय व्यवस्था अब तक अभिशप्त है।
अक्सर, वामपंथ प्रेरित विरोधी (स्वघोषित गांधीवादी सहित) अदालत द्वारा क्लीन-चिट मिलने के बाद भी बापू की नृशंस हत्या में संघ को घसीटता रहते हैं। यह ठीक है कि सितंबर 1925 में आरएसएस का जन्म, तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रम की प्रतिक्रियास्वरूप हुआ था, जो गांधीजी द्वारा मुस्लिम समाज को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने हेतु उनके मजहबी खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व करने से जुड़ा था, जिसका भारत से कोई लेना देना तक नहीं था। इस घटना से भारतीय उपमहाद्वीप स्थित मुस्लिमों में भारतीयता की भावना, अखिल इस्लामी पहचान के समक्ष गौण हो गई। इस निर्णय ने प्रत्यक्ष-परोक्ष तौर पर कालांतर में पाकिस्तान की रूपरेखा खींच दी।
ऐसा नहीं है कि गांधीजी के व्यक्तित्व और योगदान को केवल उनके विफल/विवादित निर्णयों से बांध दिया जाए। भारतीय समाज को तोड़ने पर उतारू ब्रितानियों की कुटिलता को तब वीर सावरकर के साथ गांधीजी ने सर्वाधिक समझा था। बापू ने जहां अनुसूचित जाति समाज को शेष हिंदू समाज में अक्षुण्ण रखने हेतु अपने जीवन को खतरे में डाला, वहीं मतांतरण में लिप्त चर्च-ईसाई मिशनरियों के कुचक्र को ध्वस्त करने का प्रयास किया। गांधीजी ने समस्त भारतवर्ष को एक राष्ट्र माना। सार्वजनिक जीवन में कैसा अनुकरणीय और शुचितापूर्ण आचरण होना चाहिए, उसके साथ गौरक्षा और स्वावलंबन आदि के लिए उन्होंने देश को प्रेरित किया।
आरएसएस की राष्ट्रीय बैठक में दिवंगत मुलायम सिंह यादव आदि को श्रद्धांजलि देना, श्रीराम द्वारा प्रदत्त परंपराओं का ही अनुसरण है। जब विभीषण अपने भाई रावण के किए पर लज्जित होकर उसके शव का अंतिम संस्कार करने में संकोच करते हैं, तब श्रीराम कहते हैं, “मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं न: प्रयोजनम्। क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।।” अर्थात्— वैर जीवनकाल तक रहता है। मृत्यु पश्चात उस वैर का अंत हो जाता है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)