राजपुत्रों को अंग्रेजियत में ढालने का केन्द्र था मेयो कॉलेज•

राजपुत्रों को अंग्रेजियत में ढालने का केन्द्र था - मेयो कॉलेज•

हनुमान सिंह राठौड़

राजपुत्रों को अंग्रेजियत में ढालने का केन्द्र था - मेयो कॉलेज•मेयो कॉलेज

मेयो कॉलेज में नाम के अतिरिक्त कॉलेज का कोई अंश नहीं है। यह मैट्रिक स्कूल था और आज भी बारहवीं तक का विद्यालय ही है। इसकी स्थापना का उद्देश्य समझने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने जो लिखा या कहा, उसके अनकहे मर्म को समझना होगा-वर्तमान पत्रकारिता की भाषा में ’बिटविन द लाइन्स।’

सर्वप्रथम राजपूताना में गवर्नर जनरल के एजेन्ट कर्नल सीकेएम वाल्टर ने ‘भरतपुर एजेंसी रिपोर्ट’ (28 मई, 1860 ई.) में इस प्रकार के संस्थान की स्थापना के विचार का बीजारोपण किया। कर्नल वाल्टर के विचार जानने से पहले देश व राजपूताना (वर्तमान राजस्थान) की तत्कालीन पृष्ठभूमि समझना उपयोगी रहेगा। राजस्थान में अजमेर-मेरवाड़ा (वर्तमान अजमेर जिला) सीधा अंग्रेजों के अधीन था। शेष राजस्थान में देशी रियासतें थीं और उनकी अंग्रेजों से संधियाँ की हुई थीं। 1857 की क्रांति की आग अभी बुझी नहीं थी और देशी राजा किस प्रकार विद्रोह कर सकते हैं, इसका अनुभव अंग्रेजों को हो गया था। भविष्य में इस प्रकार की क्रांति को कैसे रोका जाए, यह अंग्रेजों की चिंता थी। मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध सतत संघर्ष व बाद में मुगल शासन में अधिकांश राजाओं द्वारा मनसबदारी स्वीकार करने पर भी दिल्ली के शासक राजपूताना से आशंकित ही रहते थे। अंग्रेजों ने इस इतिहास का विश्लेषणात्मक अध्ययन करके ही देशी रियासतों के प्रति मध्यम मार्ग अपनाकर अन्य तरीके से उन्हें अपने अधीन व आश्रित करने की योजना बनाई। उसी योजना के बीज कर्नल वाल्टर की टिप्पणी में दिखायी देते हैं।
कर्नल वाल्टर की टिप्पणी है- ”यह तय करना सरल नहीं है कि इस देश के शासक वर्ग की संतानों को उदार व प्रबुद्ध  शिक्षा प्रदान करने के लिए हमें किस कार्य प्रणाली को आगे बढ़ाना चाहिए, किंतु मैं सोचता हूँ कि समय आ गया है, या शीघ्र आने वाला है, जब भारत सरकार इस विषय में स्वयं को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए बाध्य पायेगी।“

इस अनुच्छेद के कुछ शब्दों का विश्लेषण करना उचित रहेगा। कर्नल वाल्टर जब लिबरल और एन्लाइटण्ड शब्द का उपयोग करते हैं तो इसका अर्थ होता है भारत की सनातन जड़ों से कटा हुआ तथा पश्चिमी विचार-पद्धति का अनुगामी।
शिक्षा के भारतीय रमणीय वृक्ष को नष्ट करके कौन सी ’उदार’ व ’प्रबुद्ध ’ शिक्षा अंग्रेज देना चाहते थे, आज उनकी बोयी फसल के विष फल प्राप्त कर हम आसानी से समझ सकते हैं। मुम्बई प्रेसीडेंसी के बोर्ड ऑफ एजुकेशन के 1850-51 ई. के प्रतिवेदन के निम्नलिखित पैरा इस सम्बन्ध में दृष्टव्य हैं-

पैरा-8… ‘वे कौन से क्षेत्र हैं, जिनकी ओर सरकारी शिक्षा की धारा को मोड़ा जाए…, जिनका सम्बन्ध उच्च वर्ग के व्यक्तियों की शिक्षा से होता है। इन लोगों के पास समय होता है और अपने देशवासियों के मन पर उनका सहज प्रभाव होता है। इन वर्गों का शैक्षिक स्तर उठाकर अंतत: आप समाज के विचारों और उसकी भावनाओं में कहीं महान और अधिक लाभदायक परिवर्तन ला सकेंगे, अपेक्षाकृत उसके जिसे आप अधिक संख्या वाले वर्ग पर सीधा प्रभाव डालकर लाने की आशा कर सकते हैं।’

पैरा-14… ‘हमारी यह उत्कृष्ट इच्छा है कि हम भारत के मूल निवासियों के उच्च वर्ग को ऐसे साधन उपलब्ध करायें कि यूरोपीय विज्ञान की शिक्षा मिल सके और सभ्य यूरोप के साहित्य तक उनकी पहुँच हो सके। अवकाश के क्षणों तथा सहज प्रभाव से युक्त वर्गों को जो स्वरूप प्रदान किया जा सके, वही अंतत: समूचे जन वर्ग का स्वरूप निर्धारित करेगा।’
उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि अंग्रेज सीमित लक्ष्य समूह  पर कार्य कर जन समूह को उनका अनुगामी बनाने के लिए नि:सरण का प्रयोग कर सबको अंग्रेज भक्त, आत्म-विस्मृत व गुलाम मानसिकता का बनाना चाहते थे। उस छननवाद का प्रभाव आज बहुगुणित हो गया है। आज अंग्रेज नहीं हैं पर अंग्रेजी भक्त सर्वत्र व्याप्त हैं। प्रत्येक व्यक्ति अविचारित रूप में पड़ोसी-परिचित की प्रतिस्पर्धा या नकल में अपनी संतति को अंग्रेजी माध्यम विद्यालय भेजने में गर्व की अनुभूति करता है।

स्पष्टतः अंग्रेज चाहते थे कि सभी राजकुमार हमारे द्वारा ही तैयार होकर राज्य-शासन करें। इसके लिए क्या करना होगा?

कर्नल वाल्टर लिखता है- “इसे प्रभाव में लाने के लिए हमें सर्वप्रथम भारत में ’ईटन’ की स्थापना करनी होगी। हमें विस्तृत मापदण्डों पर एक ऐसे कॉलेज की आवश्यकता है जिसकी प्राचीर के भीतर बड़ी संख्या में विद्यार्थियों व उनके अनुचरों (सीमित संख्या में) के निवास की प्रचुर व्यवस्था हो। सांगोपांग शिक्षित अंग्रेजों का स्टाफ जो किताबी-कीड़े न हों, किंतु ऐसे लोग जो मैदानी खेलों एवं बहिरंग क्रिया-कलापों के आवश्यक रूप से प्रशंसक हों। इनके सहायक ’नेटिव जेण्टलमैन’ भद्र पुरुष जो अभिजात वर्ग से हों, जो शिक्षा विभाग से हों, रहें। विद्यार्थी या उनके वहां के अभिभावकों व शिक्षकों को राज्य कोष से पर्याप्त राशि खर्च करने की अनुमति हो तथा छुट्टियों का समय सतत रूप से सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में घूमने में व्यतीत हो। केवल कभी-कभी अपने घर की यात्रा करें।”

कर्नल वाल्टर भारत में एक ’ईटन’ बनाने के इच्छुक थे। यह इंग्लैण्ड का विश्व प्रसिद्ध पब्लिक स्कूल है जिसे इंग्लैण्ड के राजनयिकों की धाय (the chief nurse of England’s Statesmen) कहते है, क्योंकि ब्रिटिश शाही परिवार व राजनीतिज्ञों को वंशानुगत रूप से तैयार करने का कार्य इसने किया है। ’भारत का ईटन’ अर्थात् अंग्रेज भक्त अभिजात्य वर्ग तैयार करने का स्थान। ईटन की पद्धति पर ही देशी राजपरिवारों के वारिसों को वहीं रहकर तैयार करना और इसके लिए अंग्रेज शिक्षक रखना। ये शिक्षक ’किताबी कीड़े’ अर्थात् अध्ययनशील नहीं होने चाहिए बल्कि अंग्रेजों के लिए ’भारत वाटरलू’ जीतने के लिए खेल और आमोद-प्रमोद प्रिय होने चाहिए। अंग्रेजी चाल-चलन में ढालने के लिए अंग्रेजी  तरीके से सोचने वाले विलास प्रिय राजपुत्र तैयार करना है तो उन्हें अपने घरेलू परिवेश में न्यूनतम जाना चाहिए, अत: छुट्टियों में भी उन्हें भारत भ्रमण में ही व्यस्त व मस्त रखना चाहिए।

जिस प्रकार का छुपा हुआ ’ओपन एजेण्डा’ था उसके क्रियान्वयन से देशी राज्यों में शांति, समृद्धि तथा प्रगति तो नहीं हुई, राजन्य वर्ग विलासी, अकर्मण्य बनकर जनता के शोषण में अंग्रेजों का सहयोगी बन गया। अंग्रेज पर्दे के पीछे थे। राजन्य वर्ग खलनायक घोषित हो गया जो कम्युनिस्ट साहित्य और फिल्म के पर्दे पर आज भी ठाकुर के रूप में कायम है।

कर्नल वाल्टर ने ‘भरतपुर एजेंसी प्रतिवेदन’ में जो लिखा उस पर गहन विचार हुआ और तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मेयो ने इसके क्रियान्वयन का बीड़ा उठाया। 19 अक्टूबर, 1870 ई. को लॉर्ड मेयो अजमेर आया। मेयो कॉलेज में आज जहाँ उदयपुर हाऊस स्थित है। उस स्थान पर शामियाने (टेंट) में दरबार का आयोजन रखा गया। दरबार से पूर्व शहर में वायसराय की शोभायात्रा निकली। प्रेसबिटैरियन मिशन चर्च से डाकघर तक विजय-तोरण ढाई दिन के झोपड़े से लाये गये स्तम्भों से तैयार किये गये।

22 अक्टूबर, 1870 ई. के दिन दरबार का आयोजन हुआ। लार्ड मेयो को तोप से सलामी दी गई, सैनिकों ने शस्त्र प्रदर्शन किया, बैण्ड ने ’गॉड सेव द क्वीन’ की धुन बजायी तथा सभी लोग वायसराय के सिंहासन पर बैठने तक खड़े रहे। उदयपुर महाराणा के अतिरिक्त सभी राजाओं ने क्रमश: नजराना पेश किया।

लॉर्ड मेयो ने अपने भाषण में कहा- “.. मैं यहाँ आपकी उपस्थिति के कारण अत्यन्त गौरवान्वित हुआ हूँ। राजपूताना के प्राचीन राज्यों के बहुत से राजप्रमुखों का भारत के वायसराय के चारों तरफ एकत्र होना बहुत अच्छा है।”
लॉर्ड मेयो का आगे कथन है-“….और अब मुझे एक परियोजना को उद्धृत करने दें जो बहुत कुछ मेरे मन की इच्छा है। अजमेर में एक स्कूल या कॉलेज स्थापित करने में मेरी सहायता के लिए आपका सहयोग आमंत्रित करने की मेरी इच्छा है, जो कि राजपूताना के राज प्रमुखों, राजकुमारों तथा प्रमुख ठाकुरों के बेटों की शिक्षा के लिए ही अनन्य रूप से समर्पित होगा। यह संस्थान उन विद्यार्थियों के पद एवं प्रतिष्ठा के अनुरूप होगा, जिनके शिक्षण का उद्देश्य इसमें निहित है और शिक्षण की ऐसी विधि स्थापित की जायेगी जो भविष्य में उनके द्वारा निभाये जाने वाले कर्त्तव्यों के अनुकूल सुविचारित हों।”

लॉर्ड मेयो का आशय स्पष्ट था कि यह शिक्षण संस्थान एकमेव राजन्य वर्ग के भावी उत्तराधिकारियों के शिक्षण के लिए होगा, जहां अंग्रेजों के अनुकूल राज्यकर्ता तैयार किये जाएंगे जो भविष्य में ब्रिटिश सत्ता को युगों तक यहाँ चिरस्थायी रखने के माध्यम बनेंगे, यह लॉर्ड मेयो के आगे के कथन से स्पष्ट होता है-
“मैं कुछ समय के लिए ही यहाँ हूँ, मेरे आसपास के योग्य एवं उत्साही अधिकारी भी, समय दूर नहीं जब इंग्लैण्ड में अपने घरों को लौट जाएंगे, किंतु सत्ता (ब्रिटिश) जिसका हम प्रतिनिधित्व करते हैं, युगों तक चिरस्थायी रहेगी।” अर्थात् ब्रिटिश सत्ता युगों तक चिरस्थायी देखने का स्वप्न साकार करने के लिए विचारित संस्थान का नाम ’मेयो कॉलेज’ है। लॉर्ड मेयो इस स्वप्न की पूर्ति हेतु राजा-महाराजाओं को अपनी भावी पीढ़ियों को सौंपने का आह्वान करता है।

लॉर्ड मेयो ने कोलकाता जाकर राजपूताना के राजाओं को एक पत्र लिखा जिसमें प्रस्तावित योजना का विस्तृत वर्णन था एवं आर्थिक सहयोग का आग्रह था। राजपूताना के राजाओं ने तुरंत इसे सिर-आँखों पर लिया।

मकराना के श्वेत संगमरमर पत्थर से बनने वाले कॉलेज भवन के निर्माण की अनुमानित लागत 6 लाख रुपये आंकी गई थी। राजा-महाराजाओं का उत्साह देखिए, एकत्रित हुए 6 लाख 23 हजार 750 रुपये।

नार्दन डिविजन बॉम्बे (मुम्बई) के शिक्षा निरीक्षक ई. गिल्स (अप्रैल, 1891) ने मेयो कॉलेज के पर्यवेक्षण के उपरांत टिप्पणी की थी।
“सर्वप्रथम यह किसी भारतीय हाई स्कूल की तुलना में हमारे (ब्रिटिश) पब्लिक स्कूल की तरह अधिक अभिजात्य (aristocratic) लगता है। वास्तव में छात्र विपन्नता के संवेदन तथा नौकरी दिलाने वाली शिक्षा की आवश्यकता से मुक्त हैं। यदि ईटन में ऐसे छात्रों की बड़ी संख्या है जो जहाँ तक सम्भव हो न्यूनतम काम करते है, अत: आश्चर्य का विषय नहीं है कि मेयो कॉलेज में भी आलस्य की प्रवृत्ति है- या यों कहें की दोनों की प्रवृत्ति में कोई अंतर नहीं है।… द्वितीय ये छात्र जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, वहाँ अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं है।… मेयो कॉलेज जैसे संस्थान में अधिक लचीला पाठ्यक्रम अपेक्षित है… अन्य शब्दों में मेयो कॉलेज को अन्य विश्वविद्यालयों से अलग चलना चाहिए और मेरी राय में किसी परीक्षा की तैयारी की अपेक्षा सामान्य शिक्षा का उद्देश्य रखना चाहिए।”

ई गिल्स के प्रतिवेदन से ध्यान में आता है कि मेयो कॉलेज का उद्देश्य अन्य विश्वविद्यालयों की नकल करना तथा उच्च श्रेणी का पाठ्यक्रम तय करना नहीं है अपितु जैसे ईटन में सामान्य शिक्षण के साथ आमोद-प्रमोद में समय व्यतीत करने वाले शाही परिवारों के भावी उत्तराधिकारी तैयार किये जाते हैं, वैसे ही यहां होने चाहिए।

शेरिंग लिखता है,“कॉलेज में अंग्रेजी का अध्यापन इस प्रकार होना चाहिए कि प्रत्येक छात्र राज्यकर्ता की भाषा (इंग्लिश) से परिचय में गर्व अनुभव करे तथा जब वह अपने घर लौटे तो उसके मित्रों व सहयोगियों द्वारा उसकी सामान्य शिक्षा का आंकलन अंग्रेजी बोलने, पढ़ने व लिखने के आधार पर हो।“
शेरिंग मेयो कॉलेज की प्रशंसा करते हुए कहता है कि “यहाँ अंग्रेजी सजीव बोली के रूप में मानी जाती है और उसी रूप में उसे पढ़ाया जाता है।”

शेरिंग का मानना था कि मेयो कॉलेज की शिक्षा निस्संदेह वर्तमान की आवश्यकता के अनुसार पर्याप्त है पर इंग्लिश मापदण्ड से अपूर्ण है। यह पूर्णता विश्वविद्यालय में दो या तीन वर्ष बिताने पर ही संभव है। वह आदमी तब ही बनेगा जब वह आदमियों के साथ पढ़ेगा। विकसित और सशक्त चरित्र भारतीय विश्वविद्यालयों में संभव नहीं है क्योंकि वहाँ संसर्ग देने वाले ऐसे आदमी नहीं हैं, वे केवल परीक्षा आयोजित करने के केन्द्र हैं। विश्वविद्यालयी शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैण्ड जाना चाहिये, क्योंकि उन्हें अंग्रेज संरक्षक चाहिए। अत: इंग्लैण्ड में ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज से सम्बद्ध एक अलग Chief’s College चाहिए, जिसमें केवल भारतीय राजपरिवारों के लोग ही पढ़ सकें।

(लेखक शैक्षिक प्रौद्योगिकी विभाग, राज. अजमेर में अनुसंधान अधिकारी रहे हैं)

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