रक्षाबंधन उत्सव राष्ट्रीय एकात्मता का प्रतीक है
वीरेंद्र पाण्डेय
रक्षाबंधन के पर्व पर स्वयंसेवक परम पवित्र भगवा ध्वज को रक्षासूत्र बांधकर उस संकल्प का स्मरण करते हैं, जिसमें कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षित: और यतो धर्मस्ततो जयः। सशक्त, समरस एवं संस्कार संपन्न समाज ही किसी देश की शक्ति का आधार हो सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने उद्भव से ही इसी प्रयत्न में रत है।
भारत त्योहारों का देश है। रक्षाबंधन श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रक्षाबंधन दो शब्दों के मेल से बना है रक्षा + बंधन अर्थात वह बंधन जो रक्षा के लिए बांधा जाए। रक्षाबंधन के पर्व का महत्व भारतीय जनमानस में प्राचीन काल से गहरा बना हुआ है। पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार समाज का शिक्षक आचार्य वर्ग होता था। वह रक्षा सूत्र के सहारे इस देश की ज्ञान परंपरा की रक्षा का संकल्प शेष समाज से कराता था। सांस्कृतिक और धार्मिक पुरोहित वर्ग भी रक्षा सूत्र के माध्यम से समाज से रक्षा का संकल्प कराता था। हम यही पाते हैं कि किसी भी अनुष्ठान के बाद रक्षासूत्र के माध्यम से उपस्थित सभी जनों को रक्षा का संकल्प कराया जाता है।
राजव्यवस्था के अन्दर राजपुरोहित राजा को रक्षासूत्र बाँध कर धर्म और सत्य की रक्षा के साथ साथ संपूर्ण प्रजा की रक्षा का संकल्प कराता था। भाव यही है कि शक्ति सम्पन्न वर्ग अपनी शक्ति सामर्थ्य को ध्यान में रखकर समाज के श्रेष्ठ मूल्यों एवं समाज की रक्षा का संकल्प लेता है।
संघ के संस्थापक परम पूज्य डॉक्टर साहब हिन्दू समाज में समरसता स्थापित करना चाहते थे। स्वाभाविक रूप से उनको इस पर्व का महत्व भी स्मरण में आया और समस्त हिन्दू समाज मिलकर समस्त हिन्दू समाज की रक्षा का संकल्प ले, इस सुन्दर स्वरूप के साथ यह कार्यक्रम (उत्सव) संघ में स्थापित हो गया।
इस दिन भारतीय संस्कृति में बहन, अपने भाई की कलाई पर राखी बांधकर दीर्घायु की कामना करती है और भाई रक्षा का वचन देता है। संघ के उत्सवों के कारण इसका अर्थ विस्तार हुआ। सीमित अर्थों में न होकर व्यापक अर्थों में समाज का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक वर्ग की रक्षा का संकल्प लेने लगा। समाज का एक भी अंग अपने आपको अलग-थलग या असुरक्षित अनुभव न करने पाये – यह भाव जाग्रत करना संघ का उद्देश्य है।
लंबे पराधीनता काल के दौरान समाज का प्रत्येक वर्ग संकट में था। सभी को अपने अस्तित्व की सुरक्षा एवं प्राण रक्षा की चिंता थी। इस कारण समाज का प्रत्येक वर्ग अपने को अलग रखने में ही सुरक्षा का अनुभव कर रहा था। इसका लाभ तो हुआ, किंतु भिन्न-भिन्न वर्गों में दूरियां बढ़ती गईं। हिन्दू समाज में ही किन्हीं भी कारणों से आया दूरी का भाव बढ़ता चला गया। कहीं-कहीं लोग एक दूसरे को स्पर्श करने से भी भयभीत थे। जातियों के भेद गहरे हो गये। भाषा और प्रांत की विविधताओं में कहीं-कहीं सामंजस्य के स्थान पर द्वेष का रूप प्रकट होने लगा। यह विखण्डन का काल था। ऐसा लगने लगा था कि हिन्दू समाज अनगिनत टुकड़ों में बंट जायेगा। समरसता के सूत्र कम होते गये। विदेशी शक्तियों ने आग में घी डालने का काम किया। विरोधों का सहारा लेकर खाई को चौड़ा किया। आपस में भेद पैदा करने में वे लोग पारंगत थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू समाज की इस दुर्दशा का दृश्य देखा तो न केवल इसकी पीड़ा का अनुभव किया, साथ ही इसके स्थायी निवारण का संकल्प लिया। रक्षाबंधन के पर्व पर स्वयंसेवक परम पवित्र भगवा ध्वज को रक्षा सूत्र बांधकर उस संकल्प का स्मरण करते हैं, जिसमें कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षित: और यतो धर्मस्ततो जयः। समाज में मूल्यों का रक्षण करें।अपनी श्रेष्ठ परंपराओं का रक्षण करें। यही धर्म का व्यावहारिक पक्ष है। तभी तो धर्म सम्पूर्ण समाज की रक्षा करने में सक्षम हो सकेगा। सशक्त, समरस एवं संस्कार संपन्न समाज ही किसी देश की शक्ति का आधार हो सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने उद्भव से ही इसी प्रयत्न में रत है।
(लेखक सहायक आचार्य एवं शोधकर्ता हैं)