रक्षाबंधन का पर्व और संघ

रक्षाबंधन का पर्व और संघ

डॉ. कृष्ण गोपाल

रक्षाबंधन का पर्व और संघ

रक्षाबंधन के पर्व का महत्व भारतीय जनमानस में प्राचीन काल से गहरा बना हुआ है। यह बात सच है कि पुरातन भारतीय परंपरा के अनुसार समाज का शिक्षक वर्ग होता था, वह रक्षा सूत्र के सहारे इस देश की ज्ञान परंपरा की रक्षा का संकल्प शेष समाज से कराता था। सांस्कृतिक और धार्मिक पुरोहित वर्ग भी रक्षा सूत्र के माध्यम से समाज से रक्षा का संकल्प कराता था। हम यही पाते हैं कि किसी भी अनुष्ठान के बाद रक्षा सूत्र के माध्यम से उपस्थित सभी जनों को रक्षा का संकल्प कराया जाता है। राजव्यवस्था के अन्दर राजपुरोहित राजा को रक्षा सूत्र बाँध कर धर्म और सत्य की रक्षा के साथ साथ संपूर्ण प्रजा की रक्षा का संकल्प कराता था। कुल मिलाकर भाव यही है कि शक्ति सम्पन्न वर्ग अपनी शक्ति सामर्थ्य को  ध्यान में रखकर समाज के श्रेष्ठ मूल्यों का एवं समाज की रक्षा का संकल्प लेता है। संघ के संस्थापक  परम पूज्य डॉक्टर साहब हिन्दू समाज में सामरस्य स्थापित करना चाहते थे तो स्वाभाविक रूप से उनको इस पर्व का महत्व भी स्मरण में आया और समस्त हिन्दू समाज मिलकर समस्त हिन्दू समाज की रक्षा का संकल्प ले, इस सुन्दर स्वरूप के साथ यह कार्यक्रम (उत्सव) संघ में स्थापित हो गया।

वैसे तो हिन्दू समाज के परिवारों में बहनों द्वारा भाइयों  को रक्षा सूत्र बांधना, यह इस पर्व का स्थायी स्वरूप था। संघ के उत्सवों के कारण इसका अर्थ विस्तार हुआ। सीमित अर्थों में न होकर व्यापक अर्थों में समाज का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक वर्ग की रक्षा का संकल्प लेने लगा। समाज का एक भी अंग अपने आपको अलग-थलग या असुरक्षित अनुभव न करने पाये – यह भाव जाग्रत करना संघ का उद्देश्य है।

महाविकट लंबे पराधीनता काल के दौरान समाज का प्रत्येक वर्ग ही संकट में था। सभी को अपने अस्तित्व की सुरक्षा एवं प्राण रक्षा की चिंता थी। इस कारण समाज के छोटे-छोटे वर्गों ने अपने चारों ओर बड़ी दीवारें बना लीं। समाज का प्रत्येक वर्ग अपने को अलग रखने में ही सुरक्षा का अनुभव कर रहा था। इसका लाभ तो हुआ, किंतु भिन्न-भिन्न वर्गों में दूरियां बढ़तीं गईं। हिन्दू समाज में ही किन्हीं भी कारणों से आया दूरी का भाव बढ़ता चला गया। कहीं-कहीं लोग एक दूसरे को स्पर्श करने से भी भयभीत थे। कुछ लोग, कुछ लोगों की परछाईं से भी डरने लगे। जातियों के भेद गहरे हो गये। भाषा और प्रांत की विविधताओं में कहीं-कहीं सामञ्जस्य के स्थान पर विद्वेष का रूप प्रकट होने लगा। यह विखण्डन का काल था। ऐसा लगता था कि हिन्दू समाज अनगिनत टुकड़ों में बंट जायेगा। सामञ्जस्य एवं समरसता के सूत्र और कम होते गये। विदेशी शक्तियों ने बजाय इसके कि इसको कम किया जाये, आग में घी डालने का काम किया। विरोधों का सहारा लेकर खाई को चौड़ा किया। विविधता में विद्वेष पैदा करने में वे लोग सिद्धहस्त थे।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू समाज की इस दुर्दशा का दृश्य देखा तो न केवल इसकी पीड़ा का अनुभव किया वरन् इसके स्थायी निवारण का संकल्प लिया। रक्षाबंधन के पर्व को सनातन काल से सामरस्य का पर्व माना गया है। यह आपसी विश्वास का पर्व है। इस पर्व पर जो-जो सक्षम थे, वे अन्य को विश्वास दिलाते थे कि वे निर्भय रहें। किसी भी संकट में सक्षम उनके साथ खड़े रहेंगे। संघ ने इसी  विश्वास को हजारों स्वयंसेवकों के माध्यम से समाज में पुनर्स्थापित करने का श्रेयस्कर कार्य किया। रक्षाबंधन के पर्व पर स्वयंसेवक परम पवित्र भगवा ध्वज को रक्षा सूत्र बांधकर उस संकल्प का स्मरण करते हैं, जिसमें कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षित: अर्थात् हम सब मिलकर धर्म की रक्षा करें। समाज में मूल्यों का रक्षण करें। अपनी श्रेष्ठ परंपराओं का रक्षण करें। यही धर्म का व्यावहारिक पक्ष है। तभी तो धर्म सम्पूर्ण समाज की रक्षा करने में सक्षम हो सकेगा। धर्म बाहरी तत्व नहीं है। हम सबमें छिपी या मुखर उदात्त भावनाओं का नाम है। हमारा जो व्यवहार लोकमंगलकारी है, वही धर्म है। ध्वज को रक्षा सूत्र बांधने का हेतु भी यही है कि समाज के लिये हितकर उदात्त परंपरा का रक्षण करेंगे। स्वयंसेवक भी एक दूसरे को स्नेह-सूत्र बांधते हैं। जाति, धर्म, भाषा, धन संपत्ति, शिक्षा या सामाजिक ऊंच नीच का भेद अर्थहीन है। रक्षाबंधन का सूत्र इन सारी विविधताओं और भेदों के ऊपर एक अभेद की सृष्टि करता है। इन विविधताओं के बावजूद एक सामरस्य का स्थापन करता है। इस नन्हें से सूत्र से क्षण भर में स्वयंसेवक परस्पर आत्मीय भाव से बंध जाते हैं। परम्परा का भेद और कुरीतियों का कलुष कट जाता है। प्रेम और एक दूसरे के प्रति समर्पण का भाव गहराई तक सृजित होता है।

कार्यक्रम के उपरांत स्वयंसेवक अपने समाज की उन बस्तियों में चले जाते हैं जो सदियों से वंचित एवं उपेक्षित हैं। वंचितों एवं उपेक्षितों के बीच बैठकर उनको भी रक्षा सूत्र बांधते और बंधवाते हुए हम उस संकल्प को दोहराते हैं जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- समानम् सर्व भूतेषु। यह अभूतपूर्व कार्यक्रम है जब लाखों स्वयंसेवक इस देश की हजारों बस्तियों में निवास करने वाले लाखों वंचित परिवारों में बैठकर रक्षाबंधन के भाव को प्रकट करते हैं। विगत वर्षों के ऐसे कार्यक्रमों के कारण हिंदू समाज के अंदर एक्य एवं सामरस्य भाव-संचार का गुणात्मक परिवर्तन दिखाई दे रहा है। इसके पीछे संघ के इस कार्यक्रम की महती भूमिका है। भाव यही है कि सम्पूर्ण समाज, सम्पूर्ण समाज की रक्षा का व्रत ले। लोग श्रेष्ठ जीवन मूल्यों की रक्षा का व्रत लें। सशक्त, समरस एवं संस्कार संपन्न समाज ही किसी देश की शक्ति का आधार हो सकता है। इसी प्रयत्न में संघ लगा है. रक्षा बंधन का यह पर्व इस महाअभियान के चरणरूप में है।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)

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