राजस्थान : मंदिर और गोशाला का तो क्या, मुसलमान खुश रहने चाहिए

राजस्थान : मंदिर और गोशाला का तो क्या, मुसलमान खुश रहने चाहिए

राजस्थान : मंदिर और गोशाला का तो क्या, मुसलमान खुश रहने चाहिएराजस्थान : मंदिर और गोशाला का तो क्या, मुसलमान खुश रहने चाहिए

जयपुर। अलवर के राजगढ़ में वर्षों पुराने मंदिरों और कठूमर में एक दशक से चल रही गोशाला को राजस्थान सरकार ने अतिक्रमण मानते हुए ढहा दिया। इन मामलों में प्रदेश की राजनीति गर्माई हुई है और सत्तारूढ़ कांग्रेस व विपक्षी भाजपा के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है, लेकिन इनसे अलग हट कर इन मामलों को देखा जाए तो स्पष्ट तौर पर लगता है कि सरकार के अधिकारी अपनी मनमर्जी से कार्रवाई कर रहे हैं।  जिस तरह से ये कार्रवाइयां की गई हैं, वे बिना राजनीतिक संरक्षण के सम्भव नहीं हैं। इनके माध्यम से  मुस्लिम तुष्टिकरण के रूप में राजनीतिक लाभ लेने के हर सम्भव प्रयास किए जा रहे हैं, भले ही बहुसंख्यक समाज की आस्था को चोट पहुंचे।

राजगढ़ में मंदिर तोड़े जाने की घटना के मामले में यह कहा जा रहा है कि यहां की नगरपालिका में भाजपा का बोर्ड है और इसी बोर्ड ने 8 सितम्बर 2021 यानी अतिक्रमण हटाए जाने की कार्रवाई के लगभग छह माह पहले कस्बे में गौरव पथ के निर्माण के लिए बाधा बन रहे अतिक्रमणों को हटाने का प्रस्ताव पारित किया था और इसी आधार पर नगरपालिका प्रशासन ने यह कार्रवाई की है। घटना के सामने आने के बाद जिला कलक्टर ने जो प्रेसनोट जारी किया, उसमें कहा गया है कि सभी बाधाओं को चिन्हित कर और नियमानुसार नोटिस दे कर यह कार्रवाई की गई है।

अब इस मामले में प्रश्न यह उठता है कि जो निर्णय सितम्बर 2021 में हो गया, उसमें कार्रवाई करने में इतना समय क्यों लगा? जब अतिक्रमण हटाने ही थे तो बोर्ड के निर्णय को लागू करने में छह माह का समय क्यों लगाया गया और इस समय ही यह कार्रवाई क्यों की गई? कहीं यह करौली हिंसा के मामले में कांग्रेस सरकार पर लग रहे आरोपों से ध्यान हटाने का प्रयास तो नहीं?

एक प्रश्न यह भी है कि जो प्रस्ताव पारित किया गया है, उसमें बाधाओं को चिन्हित कर अतिक्रमण हटाए जाने की बात थी। धार्मिक स्थलों के मामले संवेदनशील होते हैं और जब प्रशासन इन्हें चिन्हित कर रहा था तो क्या उसके संज्ञान में यह नहीं आया कि इनमें कुछ मंदिर भी हैं। क्या अधिकारियों को यहां बने हुए धार्मिक स्थलों के बारे में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से चर्चा नहीं करनी चाहिए थी? क्या इन धार्मिक स्थलों में मंदिरों के स्थान पर कोई दरगाह, मजार या मस्जिद होती तो भी प्रशासन इसी तरह कार्रवाई कर देता? ये मंदिर तो 100-200 साल पुराने बताए जा रहे हैं, ऐसे में ये अतिक्रमण की श्रेणी में कैसे आ गए?

इस विषय का किस तरह से राजनीतिकरण किया गया, उससे जुड़ा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यहां के स्थानीय कांग्रेस जनप्रतिनिधि स्वयं नगरपालिका बोर्ड की उस मीटिंग में उपस्थित थे, जिसमें गौरव पथ निर्माण के लिए अतिक्रमण हटाए जाने का निर्णय लिया गया। यानी वे ना सिर्फ इस निर्णय के बारे में जानते थे, बल्कि इसके सहभागी भी थे और स्थानीय जनप्रतिनिधि होने के नाते प्रशासन ने उन्हें अतिक्रमण के नाम पर मंदिर तोड़ने के बारे में अवगत न कराया हो इसकी सम्भावना भी न के बराबर है। ऐसे में वे चाहते तो मंदिरों को तुड़वाने से रोक सकते थे, लेकिन शायद वे अपनी पार्टी लाइन पर चलते हुए मुस्लिम तुष्टिकरण का कोई अवसर चूकना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने यह कार्रवाई होने दी।

अब इस मामले को लेकर कांग्रेस और भाजपा एक-दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं और राजनीति की जा रही है। लेकिन इस मामले के सभी पक्षों को देखें तो स्पष्ट है कि अधिकारियों ने मनमर्जी से कार्रवाई की है और उन्हें कहीं ना कहीं राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था। अब सरकार चाहे कितना भी यह दावा कर ले कि हम वापस मंदिरों की प्राण-प्रतिष्ठा कराएंगे, लेकिन बुलडोजर से जिस तरह मंदिरों को तोड़ा गया और जिस अपमानजनक ढंग से मूर्तियों को हटाया गया, उसकी छवियां देश और प्रदेश के बहुसंख्यक समाज के मानसपटल पर हमेशा के लिए अंकित रहेंगी। यही कारण रहा कि इस कार्रवाई के विरोध में यहां के अभिभाषक मंडल ने एक दिन के लिए यहां के सभी न्यायालयों में काम का बहिष्कार किया। स्थानीय लोगों में भी कार्रवाई को लेकर जबर्दस्त रोष देखने को मिल रहा है।

दस साल से चल रही गोशाला अतिक्रमण हो गई
राजगढ़ जैसी मनमानी कार्रवाई कठूमर में गोशाला को ध्वस्त करने के मामले में भी देखी गई। वन विभाग इसे न्यायालय सहायक वन संरक्षक के आदेश पर अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई बता रहा है। लेकिन इस मामले में भी कुछ तथ्य हैं जो कार्रवाई के बारे में उत्तर मांगते हैं।

राजस्थान : मंदिर और गोशाला का तो क्या, मुसलमान खुश रहने चाहिए

कठूमर के मैथना की यह श्री हनुमान गोशाला 2012 से संचालित थी। वर्ष 2013-14 में रजिस्ट्रार कार्यालय और सितम्बर 2014 मे गोसेवा निदेशालय में इसका रजिस्ट्रेशन कराया गया। यही नहीं 2017-18 में इस गोशाला को विभाग ने श्रेष्ठ गोशाला का पुरस्कार भी दिया। लेकिन अब वन विभाग का कहना है कि 2014 में इस गोशाला के विरुद्ध सहायक वन संरक्षक के न्यायालय में अतिक्रमण का मामला दर्ज किया गया था। वर्ष 2020 में यानी छह साल बाद इस गोशाला को वन विभाग की भूमि पर अतिक्रमण मान लिया गया और बेदखली के आदेश दे दिए गए। इसके बाद दिसम्बर 2021 में वन विभाग में नोटिस जारी कर सात दिन में जमीन खाली करने को कहा। नहीं माने जाने पर 21 अप्रैल यानी नोटिस जारी करने के चार महीने बाद अतिक्रमण हटाने के नाम पर 425 गोवंश को बेसहारा कर दिया गया।

अब यहां प्रश्न यह उठता है कि जब गोशाला का रजिस्ट्रेशन कराया गया तो प्रबंधन ने निश्चित रूप से बताया होगा कि गोशाला कहां है, तो क्या सरकारी विभाग को यह पता नहीं चला कि यह गोशाला वन विभाग की जमीन पर है? खुद वन विभाग की कोर्ट को यह मानने में छह साल लग गए कि गोशाला वन विभाग की जमीन पर अतिक्रमण है। इसी बीच सरकार के ही विभाग ने इसे श्रेष्ठ गोशाला के रूप में सम्मानित भी कर दिया, क्या तब भी वन विभाग सो रहा था? और सबसे बड़ा प्रश्न वन विभाग की जमीन पर आखिर गोशाला ही तो बनी हुई थी यानी पशुधन ही तो रह रहा था। ऐसे में पूरी गोशाला को ही ध्वस्त कर गोवंश को बेसहारा कर आखिर वन विभाग किस तरह का पशु संरक्षण कर रहा है?

कुल मिला कर देखा जाए तो जिस तरह की घटनाएं राजस्थान के करौली, भरतपुर, अलवर आदि स्थानों पर हो रही हैं, वे सामान्य कानून-व्यवस्था या अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई से अधिक प्रदेश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज की आस्थाओं को चोट पहुंचाने का प्रयास लग रही हैं।

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