वैश्विक हिंदूफोबिया का सूत्रधार कौन?

वैश्विक हिंदूफोबिया का सूत्रधार कौन?

बलबीर पुंज

वैश्विक हिंदूफोबिया का सूत्रधार कौन?

‘हिंदूफोबिया’ स्थापित सत्य है। हाल की घटनाओं ने इसके फिर से वैश्विक होने का खुलासा किया है। इसमें एक मामला तो कनाडा में हिंदुओं के पवित्र प्रतीक ‘स्वास्तिक’ पर वहां के सत्ता-अधिष्ठान द्वारा विषवमन से जुड़ा है, तो दूसरा भारतीय इतिहासकार डॉ.विक्रम संपत के विरुद्ध अंतरराष्ट्रीय अभियान से संबंधित है। ऐसे विकृत विमर्श के दूरगामी प्रभाव से देश में स्थिति यह हो गई है कि हिंदू बहुल भारत के गैर-हिंदू बहुल राज्यों के मुख्यमंत्री पद पर एक हिंदू आसीन होना दुस्साध्य हो गया है, तो ‘हिंदू’ बहुल भारत में ‘असहिष्णुता’ और मुस्लिमों में ‘असुरक्षा की भावना’ का बेसुरा राग अलापा जा रहा है, साथ ही ‘हिंदुत्व’ की तुलना घोषित ‘इस्लामी आतंकवाद’ से करने का असफल प्रयास किया जा रहा है।

उत्तरप्रदेश, मणिपुर सहित जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे है, उनमें गोवा, उत्तराखंड के बाद 20 फरवरी को पंजाब की सभी सीटों पर भी मतदान संपन्न हो गया। मैं कोई ज्योतिषी नहीं कि इन चुनावों के परिणामों की भविष्यवाणी कर सकूं। यह 10 मार्च को मतगणना के पश्चात स्पष्ट होगा। किंतु पंजाब में मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर जिस प्रकार स्वघोषित सेकुलरवादियों ने विमर्श बनाया, उसने ‘हिंदूफोबिया’ को फिर से रेखांकित कर दिया। जब बीते वर्ष कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद और पार्टी से इस्तीफा देने को विवश किया, तब चरणजीत सिंह चन्नी पर दांव खेलने से पहले पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश पार्टी ईकाई के हिंदू नेता सुनील कुमार जाखड़ के नाम पर लगभग सहमति बन चुकी थी। किंतु गांधी परिवार की निकटवर्ती अंबिका सोनी ने यह कहकर उनका पत्ता काट दिया कि सिख बहुल पंजाब में पगड़ीधारी ही मुख्यमंत्री हो सकता है। इससे क्षुब्ध जाखड़ ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा, “…क्या हिंदू होना अपराध है…पंजाब पंजाबियों का है…।” यह स्थिति तब है, जब स्वतंत्रता के बाद पंजाब का पहला मुख्यमंत्री हिंदू (गोपाल चंद भार्गव) ही था और हरियाणा के अलग होने तक प्रदेश में कुल तीन हिंदू मुख्यमंत्री बन चुके थे। पिछले 56 वर्षों से पंजाब में कोई हिंदू मुख्यमंत्री नहीं रहा है। इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि पंजाब की बहुसंख्यक जनसंख्या अपने समाज से बाहर के व्यक्ति को स्वीकार नहीं करेगी। इसी विकृत मानसिकता के कारण जम्मू-कश्मीर में कोई गैर-मुस्लिम मुख्यमंत्री नहीं बन पाया है।

वास्तव में, यह वामपंथ प्रेरित छद्म-सेकुलरवाद की पराकाष्ठा है, जिसमें वृहत हिंदू समाज को जाति-पंथ के आधार पर बांटने और इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को एकजुट करने का जहरीला चिंतन है। पंजाब के अतिरिक्त देश के जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, वे अपनी आस्था के कारण मुख्यमंत्री बनने के मापदंड पर खरे नहीं उतरते। यह परिदृश्य तब है, जब हिंदू बहुल केरल, महाराष्ट्र, असम, राजस्थान, बिहार, मणिपुर, पुड्डुचेरी, आंध्रप्रदेश और गुजरात में क्रमश: सी.एच.मुहम्मद (1979), अब्दुल रहमान अंतुले (1980-82), सैयदा अनवरा तैमूर (1980-81), अब्दुल गफूर (1985-86), बरकतुल्ला खान (1971-73), एम.ओ.एच फारूक (1967-68, 1969-74 और 1985-89), मोहम्मद अलीमुद्दीन (1972-74), ईसाई वाई.एस.राजशेखर रेड्डी (2004-09), जगनमोहन रेड्डी (2019 से लगातार) और जैन समाज से विजय रुपाणी (2016-21) बन मुख्यमंत्री चुके है। यही नहीं, हिंदू बहुल भारत में कई गैर-हिंदू राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति और राज्यपाल भी बन चुके है। इससे यह स्थापित होता है कि मजहबी विभाजन के बाद खंडित भारत का सनातन हिंदू चरित्र ही बहुलतावाद, लोकतंत्र और सेकुलरवाद जैसे मूल्यों की एकमात्र गारंटी है और जिन प्रदेशों में हिंदू बहुसंख्यक है, वहां ही ये मूल्य सुरक्षित हैं।

‘हिंदूफोबिया’ केवल भारत तक सीमित नहीं। किसान आंदोलन को लेकर भारत और मोदी सरकार को लोकतंत्र पर ‘ज्ञान’ देने वाला कनाडा जहां अपने देश में कोविड टीकाकरण विरोधी प्रदर्शनों के बाद ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ लगाकर प्रदर्शनकारियों को घोड़ों के पैरों तले कुचलकर लोकतंत्र के प्रति अपनी ‘खोखली प्रतिबद्धता’ का परिचय दे रहा है, तो हिंदुओं के पवित्र प्रतीक ‘स्वास्तिक’ को लांछित भी कर रहा है। वास्तव में, भारत-हिंदू विरोधी कुनबा दशकों से क्रूर जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर की नाजी सेना के प्रतीक ‘हकेनक्रेज’ की तुलना हिंदुओं के अनादिकालीन शुभ और सात्विक प्रतीक ‘स्वास्तिक’ से कर रहा है, जो बौद्ध और जैन समुदाय में भी पवित्र है। जब कनाडा में प्रदर्शनकारियों ने ‘हकेनक्रेज’ और श्वेत प्रभुत्व के नस्लीय प्रतीक ‘कू क्लक्स क्लैन’ झंडों को लहराया, तो ‘स्वास्तिक’ पर प्रतिबंध संबंधित विधेयक कनाडाई संसद में प्रस्तुत कर दिया। इसके पीछे कनाडा में भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त खालिस्तानी तत्वों का हाथ है। कनाडा और अमेरिका के प्रभावशाली हिंदू संगठनों इसपर आपत्ति जताई है, तो इस संबंध में भारत ने ट्रूडो सरकार से की बात है।

हिंदू-दर्शन से घृणा केवल आस्थावान लोगों, संबंधित जीवनशैली, प्रतीक-चिन्हों और परंपराओं तक सीमित नहीं है। इसके समर्थक, पैरोकार और हितों की बात करने वाले भी वामपंथी-सेकुलर-जिहादी-इवेंजिल कुनबे का निशाना बनते रहे है। उनके कोपभाजन का हालिया शिकार इतिहासकार डॉ.विक्रम संपत हुए है, जिनका एकमात्र ‘अपराध’ यह है कि उन्होंने भारत में इस्लामी आक्रमणों (हिंदुओं के नरसंहार-बलात्कार, मंदिर तोड़ने और जबरन मतांतरण सहित) और वीर सावरकर आदि को लेकर स्थापित विकृत नैरेटिव को सफलतापूर्वक चुनौती देने का ‘दुस्साहस’ किया है। चूंकि सोशल मीडिया के युग में वास्तविकता को छिपाना या उपलब्ध तथ्यों (आत्मकथा, अन्य वृतांत सहित) को विकृत करना कठिन है, इसलिए मार्क्स-मैकॉले मानसपुत्र तर्कों के बजाय उसे लांछित करने और बिना आधार झूठा बताने पर बल दे रहे है।

इसी पृष्ठभूमि में डॉ.संपत पर इस जमात ने ‘साहित्यिक चोरी’ का आरोप लगाकर वैश्विक अभियान छेड़ दिया, जिस पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने संबंधित सामग्री प्रकाशित करने पर रोक लगा दी है। संपत पर आरोप लगाने वालों में अमेरिकी विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर- अनन्या चक्रवर्ती और रोहित चोपड़ा के साथ ऑड्रे ट्रुश्के भी शामिल है, जिनका साहित्य क्रूर मुगल औरंगजेब और अन्य इस्लामी आक्रमणकारियों के महिमामंडन से युक्त है। ट्रुश्के का ‘हिंदूफोबिया’ 2021 में आयोजित ‘डिसमेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व’ में बतौर प्राथमिक प्रतिभागी और अमेरिकी रटगर्स विश्वविद्यालय में हिंदू छात्रों के प्रति उनकी घृणा से भी स्पष्ट है। वास्तव में, वामपंथी इस बात से अधिक कुंठित और बौखलाए हुए है कि जिन विचारों पर वे केवल अपना ही विशेषाधिकार समझते थे, अपना लिखा-कहा अंतिम वाक्य और अन्य विमर्श को चर्चा का हिस्सा बनने योग्य ही नहीं मानते थे- वह सब मई 2014 से सनातन संस्कृति प्रेरित वैचारिक अधिष्ठान को वांछित स्थान मिलने, देश-दुनिया में गैर-वामपंथी बुद्धिजीवियों के उदय और उनकी जनस्वीकार्यता होने से गौण होता जा रहा है।

सच तो यह है कि विश्व में जो लोग वैचारिक कारणों से ‘हिंदूफोबिया’ का शिकार है, वह भारतीय उपमहाद्वीप में 8वीं शताब्दी से हिंदुओं-बौद्ध-जैन-सिखों पर इस्लाम, तो 16वीं सदी से ईसाइयत के नाम पर हुए अत्याचारों को ‘सत्ता का संघर्ष’ बताकर उसके पीछे की ‘मजहबी अवधारणा’ जैसे ‘काफिर-कुफ्र’ और ‘हेरेटिक’ दर्शन को छिपाना चाहते है। विगत 20 जनवरी को इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस त्रिरुमूर्ति ने कहा था, “संयुक्त राष्ट्र ने इस्लामोफोबिया, क्रिश्चियनोफोबिया और यहूदीफोबिया जैसे अब्राहमिक मजहबी पर ध्यान दिया गया है… और इन तीनों की चर्चा होती है। किंतु कुछ अन्य मजहबों- विशेषकर हिंदू, बौद्ध और सिखों को लेकर भय का समकालीन वातावरण भी गंभीर चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र संघ को इसपर विशेष ध्यान देना चाहिए।” क्या भारत-हिंदू विरोधी वैश्विक सांठगांठ में ऐसा संभव है?

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