शिव और शक्ति, अभिव्यक्ति के विविध रूप

शिव और शक्ति, अभिव्यक्ति के विविध रूप

शिव और शक्ति, अभिव्यक्ति के विविध रूपशिव और शक्ति, अभिव्यक्ति के विविध रूप

वाराणसी। विश्व संवाद केंद्र, काशी की ओर से रुद्राक्ष इण्टरनेशनल कन्वेंशन सेंटर (वाराणसी) में आयोजित तीन दिवसीय काशी शब्दोत्सव – 2023 के दूसरे दिन छः सत्र आयोजित हुए।

प्रथम सत्र – शिव और शक्ति, अभिव्यक्ति के विविध रूप

शिव और शक्ति अभिव्यक्ति के विविध रूप चर्चा सत्र में वक्ता संस्कृत की विद्वान डॉ. सुचेता परांजपे ने कहा कि शक्ति का अर्थ है ऊर्जा। उन्होंने ऋग्वेद का उदाहरण देते हुए कहा कि एक समय था जब कन्याओं को वेदश्री कहा जाता था और ये कन्याएं पुरुषों के समकक्ष सभी कार्य करती थीं। भारतीय परंपरा में गृहणी का ही अर्थ घर है। उन्होंने अथर्ववेद का उदाहरण देते हुए ‘ब्रह्मचर्येण कन्या’ की बात कही। उन्होंने ‘गृहणी गृह मुच्यते, सर्वधर्म चारिणी’ की बात करते हुए कहा कि एक स्त्री जिस भूमिका में काम करती है, उसे वही स्थान प्राप्त होता है।

मुख्य अतिथि पद्मश्री डॉ. रजनीकांत ने कहा कि शिव और शक्ति को कला, संगीत के दृष्टिकोण से भी देखा जाता है। काशी को भगवान शिव ने स्वयं बसाया है। जहां शान्तचित व आनन्द है। वहां शिव और शक्ति एक साथ है। काशी ही एक ऐसा नगर है, जहां महाश्मशान पर भी होली खेली जाती है। हमें शिव के समाजवाद पर चलना चाहिए, दुनिया के तमाम देश आदि पुरुष शिव को आराध्य देव मानते हैं। भगवान शिव का मृदंग, डमरू व नटराज रूपी प्रतिमा दुनिया भर के कलाकारों के लिए अदभुत है। शिव और शक्ति को कला संगीत की दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए।

लेखिका व संपादक सोनाली मिश्र ने साहित्य की बात करते हुए कहा कि शिव और शक्ति का साहित्य में भी विविध आयाम हैं। उन्होंने पितृ सत्तात्मक व्यवस्था को गलत आधार बताया। उन्होंने शिव और शक्ति की अवधारणा अनुशासन और संरक्षण से दिया। शिव-शक्ति की अभिव्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में है, हिन्दी साहित्य में स्त्रियों को लेकर ज्यादा बात हो। शिव शक्ति का कॉन्सेप्ट यूनिवर्सल है। फेमिनिज्म का अर्थ पुरूष विरोधी नहीं होना चाहिए, वैसे ही एंटी फेमिनिज्म महिला विरोधी नहीं होना चाहिए।

वक्ताओं ने प्रश्न के उत्तर में कहा कि शिव और शक्ति की अवधारणा नारी और पुरुष की समानता से युक्त है, इस पर प्रश्न करना सर्वथा उचित है।

प्रथम सत्र (समानान्तर) – भक्ति साहित्य-पराधीन सपनेहु सुख नाहीं

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शताब्दी सभागार में शब्दोत्सव समारोह में भक्ति साहित्य-पराधीन सपनेहु सुख नाहीं चर्चा सत्र में मुख्य अतिथि नंदकिशोर पाण्डेय ने कहा कि भक्ति साहित्य ने देश को एक बनाने में सहायता की। भक्ति साहित्य ने सभी लोगों को ईश्वर को जानने का अवसर दिया। भक्ति साहित्य ने धर्मों को युग के अनुरूप बनाया। श्रीरामचरितमानस उसका उदाहरण है। सती प्रथा हमारी परंपरा नहीं रही है, इसका उदाहरण महाराज दशरथ के निधन पर कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा का सती न होना है।

उन्होंने महामना जी के दृष्टिकोण की चर्चा करते हुए कहा कि शिक्षा दृष्टि व राष्ट्र चेतना की जो सोच उस समय रखी थी, वह आने वाले कल के लिए भी सभी अर्थों में प्रासंगिक है। धर्म, विज्ञान, तकनीकी, महिला शिक्षा, कला, संगीत आदि मालवीय जी की दूरगामी सोच की परिणति है।

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता मिथिलेश नन्दनी शरण ने कहा कि संस्कृतियां भाषा में सांस लेती हैं। किसी भी देश की यदि संस्कृति मलिन होती है तो उसकी भाषा भी मलिन हो जाएगी। भाषा के स्तर से किसी भी देश की संस्कृति की भव्यता को समझा जा सकता है। जो भी संसार में प्रकाशित होता है, वह जलता है, ऐसे में महान संतों के तप को हमेशा याद रखना चाहिए। जिनके आशीर्वचनों से हम प्रकाशमान होने की गति पर हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता 127 वर्षीय वयोवृद्ध पद्मश्री स्वामी शिवानंद महाराज ने की।

द्वितीय सत्र – भारतीय इतिहास लेखन की विसंगतियां

वर्तमान में साँची बौद्ध भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय की कुलपति नीरजा गुप्ता ने कहा कि लिखे हुए इतिहास का हम इसलिए विरोध करते हैं कि यह भारत के गौरव को बदल रहा है। इतिहास का पुर्नपाठ करना आवश्यक है। यह राष्ट्रगौरव के लिए अत्यंत आवश्यक है। रामायण, महाभारत के अस्तित्व को राष्ट्रविरोधी ताकतें नकारने का प्रयास कर रही हैं।

वक्ता एवं लेखक रतन शारदा ने कहा कि भारत के इतिहास के अन्दर हमारी ज्ञान पंरपरा का उल्लेख नहीं है। नये शोध का विरोध करने वाले आज भी हैं। सत्र के वक्ता एवं सम्पादक प्रफुल्ल केतकर ने कहा कि सबसे बड़ी विसंगति इतिहास लेखन में नहीं, बल्कि हिस्ट्री राइटिंग में है। गलती ये है कि इतिहास को हमने हिस्ट्री मान लिया, जबकि इतिहास वो होता है जो हुआ है, जो देखा गया है। उसे इतिहास लिखता है। भारत कभी भी भाषा के आधार पर नहीं बंटा। संकट हमारे धर्म पर है, संस्कृति पर है, मंदिर पर है।

द्वितीय सत्र (समानान्तर) – देशाटन-एकात्म भारत का दर्शन

विशिष्ट वक्ता एवं इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के सदस्य सचिव प्रो. सच्चिदानन्द जोशी ने कहा कि आदि गुरु शंकराचार्य ने पूरे भारत का भ्रमण किया। भारत सदा से देशाटन का स्थान रहा है। शंकराचार्य ने पूरे देश का भ्रमण किया, चिंतन और शास्त्रार्थ किया तथा देशाटन का महत्व बताया। वेदों में भारत के नौ अरण्य क्षेत्रों, पर्वतीय क्षेत्रों, नदियों आदि पर्यटन स्थलों का विस्तृत वर्णन है। यही भारत के पर्यटन का आधार है। गुरुनानक देव ने 38 हजार किलोमीटर यात्रा कर पूरे भारत में संदेश दिया और भारत का दर्शन किया। देश में कुम्भ पर, नर्मदा परिक्रमा एवं पण्डरपुर की यात्रा भी पर्यटन का आधार है। ये सभी अनन्तकाल से चली आ रही हैं। इसी क्रम में उन्होंने पण्डरपुर की यात्रा का वृत्तचित्र भी दिखाया।
मुख्य अतिथि प्रसिद्ध चिकित्सक एवं शिक्षाविद् सरोज चूडामणि गोपाल ने कहा कि हमारा भारत स्वर्णिम देश है। काशी एक अद्भुत नगरी है। जब तक हम यह देश न घूमे और न देखे तो जीवन अधूरा है। देशाटन को अपने जीवन का भाग जरूर बनाइये, व्यर्थ विचारकों ने हमारे देश का नुकसान ही किया है। विचार ही सबसे बड़ी शक्ति है।

तृतीय सत्र – संस्कृति, हिन्दुत्व और आधुनिकता

पत्रकार एवं लेखक अरुण आनंद ने कहा कि वर्तमान समय में शाश्वत मूल्यों का प्रवाह प्रसन्नता का विषय है। यह बात सही है कि वर्तमान में हिन्दुत्व का प्रभाव बढ़ा है। लेकिन हम लोग जो हिन्दुत्व को प्रवाह दे रहे हैं कहीं न कहीं इसमें कमी है। हमारे पास मैटिरियल बहुत है। लेकिन उसको कैसे संप्रेषित करें, जिससे आम जन को भी बात समझ में आए। आज एक नए शब्दकोश की आवश्यकता है, जिससे आज की नई पीढ़ी को हिन्दुत्व के बारे में बताया जा सके।

पद्म भूषण देवी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में काशी में विराजमान हैं और ज्योति का अर्थ प्रकाश से है। हमें सबसे पहले यह समझने की आवश्यकता है कि हिदुत्व संस्कृति और आधुनिकता क्या है, संस्कृति क्या है और संस्कृति बोध क्या है। उन्होंने कहा कि हमारा परिवेश, हमारा स्थान, हमारा देश ही हमारी संस्कृति है। इसमें अनुशासन व्यवहार ज्ञान इन सभी चीजों का बोध संस्कृति से मिलता है। हम हमारे संस्कारों से परिष्कृत होते हैं। हमारे यहां स्त्री को लेकर तमाम राजनीतिक चर्चाएं होती हैं। लेकिन हमारे यहां स्त्री को सबसे ऊंचा स्थान दिया गया है। उन्होंने ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’ का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि हमारा हिन्दुत्व केवल भारत में नहीं विश्व में है। सारे विश्व को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में अगर प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त करना हो तो हिन्दुत्व के आधार पर ही किया जा सकता है. हिन्दुत्व का अर्थ परिष्कृत ज्ञान से है। हमारा परिवेश ज्ञान और शास्त्र है तो वैज्ञानिक है। हमें अपने हिन्दुत्व पर गर्व करना चाहिए।

विशिष्ट वक्ता गोविन्द वल्लभपन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक बद्रीनारायण ने कहा कि हमारा दिमाग पश्चिमी संरचना से अभिभूत है। परंपरा परिवर्तित होती है, आधुनिकता आगे की तरफ देखती है। लेकिन इस आधुनिकता में हम मौलिकता को भूल जाते हैं। हिन्दुत्व एक सनातन दर्शन है। जिसमें समाहन की बेहद क्षमता है।

सत्र की वक्ता एवं रूस की विद्वान प्रो. शांति श्री पं. दुलिपुड़ी ने कहा कि हिन्दू मूल्यों को परिभाषित करता है। उन्होंने कहा कि मैं स्त्रीवादी हूँ। हम मातृ सत्तात्मक त्योहार के रूप में दशहरा मनाते हैं। इसलिए हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। हमारी संस्कृति ही हमारी ताकत है। जब हम मौलिकता की बात करते हैं, तब हम विविधता को उत्सव के रूप में मानते हैं।

तृतीय सत्र (समानान्तर) – भारतीय सिनेमा के विभिन्न दौर

मुख्य अतिथि फिल्म निर्माता-निर्देशक डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने कहा कि वर्तमान समय में सिनेमा से अधिक प्रभाव सोशल मीडिया का हो गया है। उन्होंने चिन्ता व्यक्त की कि वेब सिरीज में भारतीय संस्कृति के विरुद्ध बड़ा असत्य परोसा जा रहा है, इसे भी रोकना आवश्यक है। भारतीय सिनेमा द्वारा षड्यंत्र के अन्तर्गत प्रस्तुत भारत विरोधी फिल्मों को दर्शक मिल रहा है, जबकि भारतीय परम्परा पर बनने वाले सिनेमा को दर्शकों का अभाव हो रहा है। इस सन्दर्भ में महर्षि व्यास का यह कथन सही है कि वेदों को भी अशिक्षित एवं मूर्खों से डर लगता है। उन्होंने आह्वान किया कि दर्शक राष्ट्रीय फिल्मों को समर्थन दें, जिससे हिन्दुत्व आधारित फिल्में बन सकें। भारतीय नैतिकता, परम्परा को आधार बनाकर भारतीय फिल्म निर्माताओं को फिल्में बनानी चाहिए। हमें सिनेमा में संघर्ष नहीं समन्वय खोजना चाहिए क्योंकि भारत का दृष्टिकोण भी संघर्ष नहीं, समन्वय है।

अनन्त विजय ने कहा कि वर्तमान समय में पौराणिकता से अधिक आतंकवाद एवं साम्प्रदायिकता पर फिल्में बन रही है। शायद इसीलिए महात्मा गांधी ने अपने जीवन में फिल्म देखने से परहेज किया। सरदार पटेल ने अपने समय में राष्ट्रीय फिल्मों को प्रोत्साहित किया।

वी. शांताराम ने सामाजिक समस्या पर फिल्म बनायी। उसके पश्चात सामाजिक समस्याओं पर दौर चला। वर्तमान समय में सामाजिक समस्याओं एवं सुधार की जगह भारत विरोधी फिल्में बन रहीं है, जो खतरनाक हैं। निर्माता और निर्देशक निरन्तर संघर्ष करते हुए फिल्में बनाते हैं और दर्शकों का समर्थन मिलने पर ही उनकी वास्तविक सफलता होती है। अच्छी फिल्में आत्मबल की द्योतक होती हैं।

फिल्म निर्माता-निर्देशक ओम राउत ने कहा कि वर्तमान समय में पौराणिक फिल्म बनाना एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि उस समय का वातावरण, पात्र, परिवेश बनाना एक चुनौती होती है। उस चुनौती की प्रक्रिया वर्तमान तकनीकी से ही सम्भव हो सकी है। रामायण का चरित्र अनन्त है। उसे सम्पूर्ण रूप में एक साथ पर्दे पर लाना कठिन है। रामायण के सन्दर्भ में समझ अवस्था के साथ बदलती है। रामायण के सहारे सृष्टि के क्रम को समझ सकते हैं। इसलिए रामायण एवं पौराणिक कथा सन्दर्भ पर फिल्में आवश्यक हैं। भारतीय स्वाभिमान एवं सेना के शौर्य आदि विषयों पर फिल्म बनाने के लिए बड़ी कानूनी बाधाएं आती हैं, जिसे हटाना चाहिए।

सत्र के अध्यक्ष पद्मश्री शिवनाथ मिश्र ने कहा कि शास्त्रीय संगीत आधारित धार्मिक फिल्मों का निर्माण होना चाहिए जो इस समय में नहीं हो रहा है।

काशी शब्दोत्सव – 2023 स्मारिका का लोकार्पण

काशी शब्दोत्सव के दूसरे दिन के अन्तिम सत्र में प्रो. ओम प्रकाश सिंह, पूर्व निदेशक- मदन मोहन मालवीय पत्रकारिता संस्थान (काशी विद्यापीठ) द्वारा संपादित काशी शब्दोत्सव – 2023 स्मारिका का लोकार्पण हुआ। स्मारिका में कुल 14 लेख प्रकाशित है, जिसमें महामहोपाध्याय डॉ. गोपीनाथ कविराज, डॉ. भगवान दास, डॉ. विद्यानिवास मिश्र, जयशंकर प्रसाद, वासुदेव, द्वारा काशी की महिमा पर लेख लिखे गए हैं। स्मारिका के सम्पादक मण्डल में प्रो. भारतेन्दु कुमार सिंह, प्रो. शैलेश कुमार मिश्र, प्रो. मनीषा मेहरोत्रा, डॉ. लहरी राम मीणा, डॉ. अमित कुमार उपाध्याय शामिल हैं। स्मारिका का लोकार्पण निर्माता-निर्देशक डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने किया। लोकार्पण समारोह में मंच पर पद्मश्री शिवनाथ मिश्र, ओम राउत, अनंत विजय, नरेन्द्र ठाकुर (अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख) उपस्थित थे।

इंदिरा फाइल्स पुस्तक का लोकार्पण

काशी शब्दोत्सव -2023 में विष्णु शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ‘इंदिरा फाइल्स’ का लोकार्पण चन्द्र प्रकाश द्विवेदी ने किया। पुस्तक में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन और कृतत्व के बारे में चर्चा की गई है।

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