श्रीरामचरितमानस के अपमान का कारण
बलबीर पुंज
श्रीरामचरितमानस के अपमान का कारण
बिहार के शिक्षा मंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर सिंह द्वारा गोस्वामी तुलसीदास द्वारा कृत श्रीरामचरितमानस का अपमान सार्वजनिक विमर्श में है। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय के समारोह में इस महाकाव्य को समाज बांटने वाला बताया। यह कोई पहला मामला नहीं है। वास्तव में, यह उस रुग्ण मानसिकता का पर्याय है, जिसे भारत की बहुलतावादी सनातन संस्कृति और परंपरा से घृणा है। मुख्यत: यह चिंतन वामपंथी विचारधारा के केंद्र में है। इसी दर्शन ने भारत का रक्तरंजित विभाजन करवाने में मुख्य सहयोगी की भूमिका निभाई और आज भी यह ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ का वैचारिक अधिष्ठान है।
भारतीय लोकतंत्र में किसी भी विषय पर एक से अधिक विचार हो सकते हैं। इसे हमारे संविधान में निहित ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और भी अधिक स्वाभाविक बनाता है। प्रो.चंद्रशेखर ने रामचरितमानस पर अपनी जो राय प्रकट की, उसका बचाव करते हुए बिहार के उप-मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के शीर्ष नेता तेजस्वी यादव ने कहा, “संविधान हमें बोलने की स्वतंत्रता देता है।” यह सच है। परंतु क्या इस अधिकार का उपयोग केवल श्रीरामचरितमानस और अन्य हिंदू परंपराओं की विवेचना के लिए ही हो सकता है? क्या एकेश्वरवादी मजहब— विशेषकर इस्लामी-ईसाइयत संबंधित साहित्य-प्रथाएं ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ प्रेरित चर्चा से मुक्त हैं?
भाजपा नेत्री (निलंबित) नूपुर शर्मा के साथ क्या हुआ? उसने अपने वक्तव्य में उन्हीं बातों को दोहराया था, जिसका उल्लेख अक्सर मुल्ला-मौलवी और जाकिर नाइक जैसे विवादित इस्लामी विद्वान अपनी तकरीरों में करते हैं। तब भी रातोंरात देश-विदेश में नूपुर और उसके द्वारा टीवी चर्चा में की गई कुछ सेकंड की टिप्पणी को सांप्रदायिक घृणा के मूर्त रूप में परिभाषित कर दिया गया। कई खाड़ी-मध्यपूर्व देशों में उनके वक्तव्य के विरुद्ध देशविरोधी प्रस्ताव पारित हुए। भारत के साथ अन्य इस्लामी देशों में नूपुर के विरुद्ध भारी हिंसक प्रदर्शन हुआ, तो कई इस्लामी संगठनों ने उसके खिलाफ ‘सिर तन से जुदा’ के फतवे जारी कर दिए। यह कोई कोरी धमकियां नहीं हैं। स्थिति अब भी कितनी गंभीर है, इसका संकेत राजस्थान स्थित उदयपुर में कन्हैयालाल और महाराष्ट्र के अमरावती में उमेश कोल्हे की जिहादियों द्वारा की गई नृशंस हत्या में मिलता है। उन दोनों का ‘अपराध’ केवल यह था कि उन्होंने नूपुर की अभिव्यक्ति का समर्थन किया था। अनुमान लगाना कठिन नहीं कि नूपुर पर खतरा कितना विकराल है। इसका अनुमान प्रसिद्ध लेखक-उपन्यासकार सलमान रुश्दी पर गत वर्ष हुए प्राणघातक हमले से लगाया जा सकता है, जिन पर उनकी ‘सैटेनिक वर्सेस’ पुस्तक के विरुद्ध लगभग 35 वर्ष पहले फतवा जारी हुआ था।
इस पृष्ठभूमि में प्रो.चंद्रशेखर के बयान की निंदा तो हुई, परंतु नूपुर-रुश्दी मामले जैसी हिंसक प्रतिक्रिया दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखी। ऐसा इसलिए, क्योंकि भारतीय सनातन संस्कृति-परंपरा में विचारों के लिए हिंसा का कोई स्थान नहीं है। चंद्रशेखर मामले में अब तक सामने आई सामान्य जनप्रतिक्रिया ने पुन: रेखांकित कर दिया है कि इस भूखंड का मूल वैदिक दर्शन, अद्वैतवादी अवधारणा की तुलना में कहीं अधिक समरसपूर्ण, सहनशील, उदार और विश्व कल्याणकारी है। अनादिकाल से जिस भारतीय दर्शन को ‘एकम् सद् विप्रा: बहुधा वदंति’ रूपी वैदिक मूलमंत्र से प्रेरणा मिल रही है, उसे विगत एक सहस्राब्दी से ‘मेरा ही ईश्वर सर्वोच्च’, ‘मेरा ही मजहब सच्चा’ और कालांतर में रुग्ण वामपंथ से चुनौती मिल रही है।
हिंदू श्रुति-स्मृति शास्त्रों-ग्रंथों को कलंकित करने वाली मानसिकता सदियों पुरानी है। जब 16वीं शताब्दी में विदेशी इस्लामी आक्रांताओं का जिहाद उत्तर-पश्चिम भारत में चरम पर था, तब देश के दक्षिणी छोर में फ्रांसिस ज़ेवियर नामक ‘जेसुइट मिशनरी’ कदम रखा। इस समय मजहबी अभियान में हिंदू समाज— विशेषकर ब्राह्मण किस प्रकार रोड़ा बने हुए थे, यह फ्रांसिस द्वारा 31 दिसंबर 1543 को रोम के तत्कालीन शासक को लिखे पत्र से स्पष्ट होता है। तब उसने कहा था, “यदि ब्राह्मण विरोध नहीं करते, तो हम वहां सभी (हिंदुओं) को ईसा मसीह के शरण में ले आते।” कालांतर में, फ्रांसिस मानसबंधुओं ने ब्रितानियों के साथ मिलकर अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु ब्राह्मणों का दानवीकरण करना प्रारंभ किया। इसके लिए उन्होंने कई हिंदू शास्त्रों-ग्रंथों की विकृत व्याख्या की, तो मनगढ़ंत ‘आर्य आक्रमण सिद्धांत’ को जन्म दिया। बाद में वामपंथियों-जिहादियों ने अपने निहित हिंदू-भारत विरोधी स्वार्थ हेतु इसे अपना लिया। यह तब है, जब स्वयं संविधान निर्माता डॉ.अंबेडकर इन झूठे विमर्शों को ध्वस्त कर चुके थे। अब भी गोस्वामी तुलसीदासजी कृत रामायण की चौपाई:- “ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।” का कपटपूर्ण विवेचना की जाती है।
श्रीरामचरितमानस को तुलसीदासजी ने अपने शब्दों में पिरोया है। इसमें विभिन्न पात्रों द्वारा बोले गए संवाद भी हैं। ये शब्द न ही श्रीराम के हैं और ना रामायण के ऐसे चरित्र के, जिसे हिंदू आराध्य मानते हों। राम लंका जाने हेतु समुद्र से विनती करते हैं। परंतु वह हठी है। राम की प्रार्थना को अनसुना कर देता है, तब राम क्रोधित होकर कहते हैं, “बिनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति॥” अर्थात्- तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब राम बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती। तब भयभीत समुद्र कहता है, “प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥ ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥” अर्थात्- प्रभु ने अच्छा किया, जो मुझे शिक्षा (दंड) दी, किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गँवार, क्षुद्र, पशु और स्त्री— ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। सच तो यह है कि श्रीरामचरितमानस में अन्य नारियों के साथ माता शबरी, केवट, निषादराज और गिद्धराज जटायु को जिस श्रेष्ठ भाव से चित्रित किया गया है, वह भारतीय समाज के सभी वर्गों (वंचितों सहित) को जोड़ने वाला और सम्मान देने वाला है।
रामायण-महाभारत आदि वैदिक महाकाव्यों पर चर्चा हो, उस पर आपत्ति नहीं— परंतु अन्य मजहबों के वाङ्मयों पर विस्तृत चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए? यही दोगलापन भारतीय लोकतंत्र और सेकुलरवाद की कलई खोलता है। जब तक ऐसे दोहरे मापदंड चलते रहेंगे, तब तक भारत में सांप्रदायिक विद्वेष की संभावना बनी रहेगी।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)