समाज की समरूपता के लिए आवश्यक है समान नागरिक संहिता

समाज की समरूपता के लिए आवश्यक है समान नागरिक संहिता

सुखदेव वशिष्ठ

समाज की समरूपता के लिए आवश्यक है समान नागरिक संहिता

समान नागरिक संहिता को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद देशभर में इस पर चर्चा शुरू हो गई है। समान नागरिक संहिता का समर्थन करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि आधुनिक भारतीय समाज ‘धीरे-धीरे समरूप होता जा रहा है, धर्म, समुदाय और जाति के पारंपरिक अवरोध अब खत्म हो रहे हैं’ और इस प्रकार समान नागरिक संहिता अब उम्मीद भर नहीं रहनी चाहिए। आदेश में कहा गया, ‘भारत के विभिन्न समुदायों, जनजातियों, जातियों या धर्मों के युवाओं को जो अपने विवाह को संपन्न करते हैं, उन्हें विभिन्न पर्सनल लॉ, विशेषकर विवाह और तलाक के संबंध में टकराव के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दों से जूझने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।’

साल 1985 के ऐतिहासिक शाहबानो मामले सहित समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों का जिक्र करते हुए, न्यायालय ने कहा कि, ‘संविधान के अनुच्छेद 44 में उम्मीद जताई गई है कि राज्य अपने नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को हकीकत में बदलेगा। यह महज एक उम्मीद बनकर नहीं रहनी चाहिए।’

शाहबानो मामले में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि समान नागरिक संहिता परस्पर विरोधी विचारधारा वाले कानूनों के प्रति असमान निष्ठा को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य को पाने में मदद करेगी। सरकार पर देश के नागरिकों को समान नागरिक संहिता के लक्ष्य तक पहुंचाने का दायित्व है। शीर्ष अदालत ने समय-समय पर समान नागरिक संहिता की जरूरत को रेखांकित किया है, हालांकि, ‘यह स्पष्ट नहीं है कि इस संबंध में अब तक क्या कदम उठाए गए हैं।’

अदालत का निर्देश

अदालत ने निर्देश दिया कि आदेश की एक प्रति कानून और न्याय मंत्रालय के सचिव को उचित समझी जाने वाली आवश्यक कार्रवाई के लिए भेजी जाए। अदालत इस पर सुनवाई कर रही थी कि क्या मीणा समुदाय के पक्षकारों के बीच विवाह को हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (hindu marriage act) के दायरे से बाहर रखा गया है। जब पति ने तलाक मांगा तो पत्नी ने तर्क दिया कि हिन्दू विवाह अधिनियम उन पर लागू नहीं होता क्योंकि मीणा समुदाय राजस्थान में एक अधिसूचित अनुसूचित जनजाति है। अदालत ने महिला के रुख को खारिज करते हुए कहा कि वर्तमान मामले ‘सब के लिए समान’ ‘इस तरह की एक संहिता की आवश्यकता को उजागर करते हैं, जो विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि जैसे पहलुओं के संबंध में समान सिद्धांतों को लागू करने में सक्षम बनाएंगे।

दोनों पक्षों ने बताया कि उनकी शादी हिन्दू रीति-रिवाजों और समारोहों के अनुसार हुई थी और वे हिन्दू रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। अदालत ने कहा कि हालांकि हिन्दू की कोई परिभाषा नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अगर जनजातियों के सदस्यों का हिन्दूकरण किया जाता है, तो उन पर हिन्दू विवाह अधिनियम लागू होगा।

वर्तमान स्थिति

वर्तमान में अधिकांश भारतीय कानून, सिविल मामलों में एक समान नागरिक संहिता का पालन करते हैं, जैसे- भारतीय अनुबंध अधिनियम, नागरिक प्रक्रिया संहिता, माल बिक्री अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, भागीदारी अधिनियम, साक्ष्य अधिनियम आदि। हालांकि राज्यों ने कई कानूनों में कई संशोधन किये हैं। परंतु धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानूनों में अभी भी विविधता है। हाल ही में कई राज्यों ने एक समान रूप से मोटर वाहन अधिनियम, 2019 को लागू करने से इनकार कर दिया था।

सरला मुद्गल वाद (1995) भी इस संबंध में काफी चर्चित है, जो बहुविवाह के मामलों और इससे संबंधित कानूनों के बीच विवाद से जुड़ा हुआ था।

प्रायः यह तर्क दिया जाता है ‘ट्रिपल तलाक’ और बहुविवाह जैसी प्रथाएं एक महिला के सम्मान और उसके गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। केंद्र ने सवाल उठाया है कि क्या धार्मिक प्रथाओं को दी गई संवैधानिक सुरक्षा उन प्रथाओं तक भी विस्तारित होनी चाहिये जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।

समान नागरिक संहिता

समान नागरिक संहिता का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है, जबकि एकरूपता से देश में राष्ट्रीय भावना को भी बल मिलेगा। यह कानूनों का सरलीकरण, समान संहिता विवाह, विरासत और उत्तराधिकार के साथ ही विभिन्न मुद्दों से संबंधित जटिल कानूनों को सरल बनाएगी। परिणामस्वरूप समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म में विश्वास रखते हों।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द सन्निहित है और एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य को धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियमों के बजाय सभी नागरिकों के लिये एक समान कानून बनाना चाहिये। समान नागरिक संहिता को लागू करने से वर्तमान में मौजूद सभी व्यक्तिगत कानून समाप्त हो जाएंगे, जिससे उन कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात की समस्या से भी निपटा जा सकेगा।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, जो किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में निहित समानता की अवधारणा के विरुद्ध है।

समाज के सभी वर्गों में परस्पर विश्वास निर्माण के लिये सरकार और समाजसेवियों को प्रयास करने होंगे। नए भारत के निर्माण में समान नागरिक संहिता मील का पत्थर साबित होगी।

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