जनजाति समाज का सरकारी मतांतरण

जनजाति समाज का सरकारी मतांतरण

दिलमन रति मिंज

जनजाति समाज का सरकारी मतांतरण

भारत की संस्कृति में जिन मजहबों / सम्प्रदायों का विकास हुआ है और उनके विकास की जो परंपराएं पाई गई हैं, उनकी पवित्रता और निरंतरता इतनी सनातन है कि वे सभी मजहब / सम्प्रदाय आज सदियों से निरंतर अस्तित्व में हैं और अपनी अलग पहचान बनाते हुए भी भारत की संस्कृति में रचे बसे हैं।
सदियों पुराने इतिहास में यह कभी देखने को नहीं मिला कि ऐसे किसी भी मजहब का निर्माण किसी राजा या सरकारी बल के द्वारा किया गया हो।

यह पहली बार है जब किसी सरकार ने पहले कैबिनेट और फिर अशासकीय संकल्प विधानसभा में लाकर एक नए मजहब सरना का निर्माण करने का प्रयास किया है। इस मामले में यदि समय के साथ साथ जनजाति समाज स्वयं अपने आप को एक नए मजहब के रूप में बदल लेता तो भारतीय सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से यह मान्य होता परंतु बिना जनजाति समाज की मांग या संघर्ष के इस समाज को हिंदू धर्म से अलग करके भारत की सनातन संस्कृति और परंपरा पर कानून के माध्यम से और उसकी आड़ में उसके अनुयायियों को सरकारी पहचान देने का जो प्रयास हुआ है, वह भारतीय सनातन संस्कृति को विकृत करने की योजना मात्र है।

अंग्रेजों के समय में या आजादी के बाद भी सरकारी तंत्रों ने उन्हें ही मजहब माना है जो स्वयं से, अपने आप में समय के साथ स्थापित हुए हैं। परंतु अंग्रेजों ने जो काम नहीं किया वह काम स्वतंत्रता के बाद मात्र 70 वर्षों के अंतराल में सरकारों ने कर दिया। जिससे भारतीय सनातन संस्कृति एवं उसकी परंपरा को बहुत नुकसान पहुंचा है।

जनजाति समाज आज भी मूल रूप से सनातन संस्कृति में निहित व समरस है। लेकिन 11 नवम्बर को झारखंड सरकार ने विधान सभा में सरना आदिवासी धर्मकोड पर प्रस्ताव पारित कर राज्य में अलगाव के बीज बो दिए। इसका असर अब दूसरे राज्यों में भी देखने को मिलेगा। विघटनकारी शक्तियों को बल मिलेगा। आम व्यक्ति जो इस तरह की राजनीति से पहले ही त्रस्त है, सर्व समाज में समरस होकर रहना चाहता है, ऐसे निर्णयों से निराश ही होता है। आज जब पहले से ही जनजाति समाज मतांतरण और इस कारण दूषित होती अपनी सनातन संस्कृति को बनाए रखने के लिए संघर्षरत है, ऐसे में इस तरह की नीतियों पर प्रश्नचिन्ह उठने स्वाभाविक हैं। जनजाति समाज का आम व्यक्ति क्या चाहता है, क्या सोचता है, कुछ राजनीतिक दल अपने स्वार्थ में उसके स्वर को महत्व ही नहीं देना चाहते। इस निर्णय को देखकर लगता है जैसे जनहित पर सत्ताहित भारी पड़ गया। और डर है इस कलम के हमले से जनजाति समाज कहीं सरकारी स्याही पर निर्भर ना हो जाए और सरकारें आयातित स्याही के रंगों से जनजाति समाज को रंगना न शुरू कर दें।

देखा जाए तो यह विशुद्ध रूप से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 में नागरिकों को दिये गये धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर बलात कब्जा है और उस पर स्वयं के निर्णय को जनजातियों द्वारा लिया गया निर्णय बताने का प्रयास मात्र है।
कुछ राजनीतिक दल उनके पिछड़ेपन का फायदा उठाने के प्रयास में हैं। वे बांटों और राज करो की नीति के अंतर्गत उन्हें बाकी समाज से तोड़कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का कुचक्र रच रहे हैं।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय में कई सारे प्रकरणों में जनजाति समाज के धर्म को लेकर निर्णय हुए हैं जिनकी सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने निश्चित रूप से यह माना है कि जनजातियों की मूल धार्मिक परंपराओं और मूल सामाजिक रीति-रिवाजों का सम्मान होना चाहिए, जोकि सनातन धर्म से ही विकसित हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने डॉक्टर स्टेला कुजुर बनाम दुर्गा हसदा केस में स्पष्ट कहा है कि जनजाति समाज हिंदू है परंतु उस समाज पर वैदिक पद्धति और उसके नियम लागू ना होकर समाज की मूल सामाजिक परंपरा और मूल सामाजिक रीति रिवाज ही लागू होंगे। इस निर्देश के परे सरकारें अपने निहित स्वार्थ की सिद्धि के लिए गरीबी और आधुनिक किताबी साक्षरता की कमी का लाभ उठाकर ऐसे समाज जो सामाजिक मूल्यों पर सर्वोच्च पायदान पर हैं, को गुमराह कर रही हैं। आज सर्व समाज को जागरूक बनना होगा ताकि कोई कभी जाति तो कभी सम्प्रदाय या मजहब के नाम पर हमारा फायदा न उठा पाए।

(लेखक बिलासपुर हाईकोर्ट में अधिवक्ता हैं)

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