सांस्कृतिक विजय के लिए सांस्कृतिक उपादानों के प्रति श्रद्धा आवश्यक
डॉ.चन्द्र प्रकाश सिंह
सांस्कृतिक विजय के लिए सांस्कृतिक उपादानों के प्रति श्रद्धा आवश्यक
सांस्कृतिक विजय के लिए सत्ता से अधिक अपने सांस्कृतिक उपादानों के प्रति श्रद्धा की आवश्यकता होती है। सांस्कृतिक यात्रा में जय और पराजय इससे तय नहीं होती कि राज्य पर प्रभुत्व किसका हो गया, बल्कि इससे होती है कि राज्य पर प्रतिगामी प्रभुत्व के पश्चात् भी उस संस्कृति को जीने वाले अभिभूत हुए या नहीं हुए, लोक-जीवन में संस्कृति का प्रवाह अवरुद्ध हुआ या नहीं हुआ। यदि लोक-जीवन में सांस्कृतिक समझ और उसके प्रति आस्था, विश्वास और श्रद्धा बनी रहती है तो राज्य के पराभूत हो जाने का बाद भी संस्कृतियाँ जीवित रहती हैं वरना विजय के पश्चात भी संस्कृतियों का लोप हो जाता है।
हम अनेक आक्रमणकारी बर्बरताओं के पश्चात भी अपनी संस्कृति का संरक्षण करने में न केवल सफल रहे हैं, बल्कि हमने साधना, साहित्य और संस्कारों के माध्यम से उसे और अधिक सुदृढ़ भी किया है।
वास्तव में यह दुनिया के लिए एक बहुत बड़ा आश्चर्य है कि एक विशाल समाज जो राज्यसत्ता खो चुका हो, वह अपनी संस्कृति को बचाने में कैसे सफल रहा? इसका एकमेव कारण है कि हमने अपने सामाजिक जीवन में एक सीमा से अधिक राज्य का हस्तेक्षप कभी नहीं स्वीकार किया। हमारी व्यवस्था जनाधारित थी और राज्य एक सीमा से अधिक उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। आज हमारा सम्पूर्ण जीवन राज्याधारित हो गया है। हम बिना राज्य के एक पग चलने मे भी सक्षम नहीं हैं। हमारी प्राचीन व्यवस्थाओं को गुण-अवगुण के विमर्श के बिना ही नकार देना आधुनिकता और विकास का मापदण्ड बन गया है। सांस्कृतिक आस्था से शून्य मानव खड़ा करना हमारी शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य हो गया है।
केरल स्टोरी केवल बालिकाओं के देखने मात्र से संस्कृति की रक्षा नहीं हो सकती, बल्कि अभिभावकों और समाज को देखने और समझने की आवश्यकता है। संस्कृति को जीवन में उतारना पड़ेगा, उसकी अच्छाइयों से अवगत होकर धारण करना पड़ेगा और जड़ता का रूप ले चुकी बुराइयों को छोड़ना पड़ेगा। केरल का समाज यही नहीं कर सका, यह उसी का परिणाम है। केरल जैसा वातावरण एक दिन में नहीं खड़ा होता बल्कि संस्कृति से आस्थाविहीन मानव खड़ा करने में शताब्दियाँ लगती हैं। केरल ने शिक्षा और संस्कार के स्तर पर वह यात्रा पूरी की है और सम्पूर्ण भारत भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है। केरल ने शिक्षा के नाम पर बहुत कुछ खोया है और हम खोते जा रहे हैं। केरल में संस्कृति का उच्छेद हुआ उसके पश्चात केरल की कहानी बनी।
वास्तव में केरल में सांस्कृतिक परिष्कार की आवश्यकता थी, लेकिन सांस्कृतिक उच्छेद हुआ। केरल की कहानी के लिए वह बालिका जितनी जिम्मेदार नहीं है, उससे अधिक उसका परिवार और केरल का समाज जिम्मेदार है। हम कब, कैसे और क्यों बदल रहे हैं, इस पर ध्यान देना आवश्यक है। राज्य को भी दोष देने से पूर्व हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि एक समाज के रूप में हम अपने सांस्कृतिक कर्तव्यों के निर्वहन में कहीं असफल तो नहीं हो रहे हैं और यह स्थिति केवल केरल की नहीं सम्पूर्ण भारत की है कि आज हम विकास का चाहे जितना ढोल पीटें सांस्कृतिक रूप से हम असफल हो रहे हैं। हम संस्कृति का ढोंग भी खड़ा कर करने का प्रयास कर रहे हैं तो उसका भी मानक अमेरिका और यूरोप के आधार पर ही तय कर रहे हैं। हम वैश्विक और विकसित बनने के चक्कर में इतने अंधे हो चुके हैं कि हमारा सांस्कृतिक बनने का प्रयास भी एक दिखावा मात्र है।