सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा..

सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा..

बलबीर पुंज

सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा..सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा..

हालिया वैश्विक घटनाक्रम में हिंदुस्तान की स्थिति क्या है? देश का एक वर्ग, जिसे हम सेकुलर-वामपंथी-जिहादी कुनबा भी कह सकते हैं- वह बीते कुछ वर्षों, विशेषकर मई 2014 से लगातार अपने भारत-हिंदू विरोधी एजेंडे की पूर्ति हेतु देश को कभी ‘मुसलमानों के लिए असुरक्षित’, ‘देश में भय का वातावरण’, तो ‘लोकतंत्र खतरे में है’ या फिर ‘नागरिक अधिकारों के हनन’ जैसे जुमलों को निरंतर रट रहा है। यह भी दिलचस्प है कि जिस विश्व में यह जमात देशविरोधी विषवमन कर रही है, उसी दुनिया में उथल-पुथल मची हुई और इन्हें अब भी हिंदुस्तान ही सबसे अधिक ‘असुरक्षित’ लग रहा है।

शुरुआत अपने पड़ोसी देशों के साथ करते हैं। पाकिस्तान में क्या हो रहा है? यहां एक बार फिर ‘जनता द्वारा’ चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। यह किसी से छिपा नहीं है कि पाकिस्तान के सत्ता अधिष्ठान में कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों और सेना की तूती बोलती है। घोषित इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें इसलिए भी खोखली हैं और संभवत: आगे भी रहेंगी, क्योंकि जिस ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से प्रेरित सर सैयद अहमद खां के ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ ने भारत का रक्तरंजित विभाजन करके इस देश को जन्म दिया, उसके वैचारिक अधिष्ठान में ही लोकतंत्र, बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता का कोई स्थान नहीं है। स्वयं पाकिस्तान की स्थापना का उद्देश्य ही लोकतंत्र का विरोधाभास है। चीन का दुमछल्ला बनने की भी पाकिस्तान बड़ी कीमत चुका रहा है। राजनीतिक अस्थिरता के बीच ध्वस्त आर्थिकी ने उसके संकट को कई गुना बढ़ा दिया है।

वित्तीय संकट से श्रीलंका भी जकड़ा हुआ है। श्रीलंका में आर्थिक बदहाली इतनी बढ़ गई है कि इसने लोगों के मुंह से निवाला तक छीन लिया है। इससे पैदा हुए भारी जनाक्रोश और हिंसक प्रदर्शनों को नियंत्रित करने हेतु वहां के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने देश पर एक अप्रैल को आपातकाल थोप दिया था, जिसे 4-5 अप्रैल की आधी रात हटा लिया गया। अधिकांश श्रीलंकाई नागरिकों को न तो पर्याप्त विद्युत आपूर्ति मिल रही है और न ही खाने-पीने की वस्तुएं व आवश्यक दवाएं मिल पा रही हैं। उन्हें ईंधन की भारी कमी का भी सामना करना पड़ रहा है। जो वस्तुएं वहां उपयोग हेतु उपलब्ध भी हैं, उनकी कीमतें आसमान छू रही हैं।

दो दशकों से जिस चीन के निवेश और भारी-भरकम कर्ज ने श्रीलंका को इस स्थिति में पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है, वह ही संकट के समय वहां से भाग खड़ा हुआ है। वैसे भी चीन अपनी अधिनायकवादी मानसिकता और मानवाधिकारों के हनन के लिए कुख्यात रहा है। भारत सहित 17 देशों के साथ चीन का सीमा विवाद, अपने देश में करोड़ों मुस्लिम नागरिकों पर मजहबी प्रतिबंध के साथ तिब्बत आदि में दमन- इसका प्रमाण है। ऐसे में भारत, श्रीलंका के लिए देवदूत बनकर उभरा है। आलेख लिखे जाने तक, भारत ने 40 हजार मीट्रिक टन डीज़ल, तो 40 हजार टन चावल की सहायता की है, तो एक अरब डॉलर की आर्थिक सहायता करने का वचन भी दिया है। इस पृष्ठभूमि में मुझे उस विकृत “ग्लोबल हंगर इंडेक्स” रिपोर्ट का स्मरण होता है, जिसमें दावा किया गया था कि दुनिया के 117 देशों की सूची में 138 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत की स्थिति, पड़ोसी देश पाकिस्तान (22 करोड़) और श्रीलंका (2 करोड़) से भी खराब है। इसे आधार बनाकर देश का सेकुलर-वामपंथी-जिहादी कुनबा कई बार मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर चुका है।

श्रीलंका के अतिरिक्त भारत ने तालिबान शासन (खालिस शरीयत) के बाद संकट में आए अफगानिस्तान को भी बीते माह मानवीय आधार पर कई खेपों में 50 हजार टन गेहूं, 13 टन जीवनरक्षक दवाइयां, चिकित्सीय उपकरण और पांच लाख कोविड रोधी टीके की खुराकों के साथ अन्य आवश्यक वस्तुओं (ऊनी वस्त्र सहित) को भेजा था। फिर हमारे देश का एक कुनबा, वर्तमान भारतीय नेतृत्व को मुस्लिम विरोधी मानता है। क्या यह सत्य नहीं भारत ही नहीं, अपितु शेष विश्व में मुस्लिम समाज का एक वर्ग ‘असुरक्षा की भावना’ का शिकार है, जिसकी जड़ें ‘काफिर-कुफ्र’ की अवधारणा में मिलती हैं?

बात यदि म्यांमार की करें, तो वहां गत वर्ष से सैन्य शासन है। कई संगठनों का दावा है कि 1 फरवरी 2021 को आंग सान सू की समर्थित सरकार के तख्तापलट के बाद वहां हजारों लोगों को मार दिया गया है, जिसमें प्रदर्शनकारियों के अतिरिक्त प्रतिरोध संघर्षकर्ता, सरकारी अधिकारी और कई नागरिक शामिल हैं। बर्मा पर सैन्य शासन को जहां चीन खुलकर समर्थन दे रहा है, वही अमेरिका के बाइडेन प्रशासन ने म्यांमार में रोहिंग्या आतंकवादियों (प्रतिबंधित अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी) के विरुद्ध हुई सैन्य कार्रवाई को औपचारिक रूप से नरसंहार घोषित कर दिया है।

सच तो यह है कि हाल के वर्षों में अमेरिका अपनी विरोधाभासी और दोहरी नीतियों के कारण कई संकटों का सामना कर रहा है। वर्ष 2001 से दिशाहीन आतंकवाद विरोधी वैश्विक अभियान इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण है। म्यांमारी सेना से पहले अमेरिका ने गत वर्ष बांग्लादेश के जिस प्रमुख अर्ध सैनिक बल आरएबी पर प्रतिबंध लगाया था, उसने हिंदू-विरोधी दंगों पर काबू पाने के साथ इस्लामी कट्टरवाद-आतंकवाद की कमर तोड़ने में मुख्य भूमिका निभाई थी।

रूस-यूक्रेन युद्ध से दोनों ही देश स्वाभाविक रूप से बुरी तरह प्रभावित हैं। इससे अब तक असीम मानवीय और आर्थिक नुकसान हो चुका है। कटु सत्य तो यह है कि यूक्रेन-रूस को इस स्थिति में पहुंचाने में प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से अमेरिका और उसके नेतृत्व वाला 30 सदस्यीय नाटो गठबंधन (दो अमेरिकी और 28 यूरोपीय देश) का हाथ है। यदि यह गुट अपनी रूस विरोधी मानसिकता के कारण यूक्रेन को नाटो में शामिल करने की हठ नहीं करता, तो शायद ही अपने सामरिक हितों की रक्षा हेतु रूस हमले के लिए विवश होता। इस संबंध में अमेरिका द्वारा लाख चेतावनी के बाद भी रूस ने न केवल यूक्रेन पर हमला कर दिया, अपितु कई प्रकार के सख्त आर्थिक प्रतिबंध थोपने के बाद भी अमेरिका, रूस को नहीं रोक पाया है। यह सब स्पष्ट करने हेतु पर्याप्त है कि वर्तमान समय में अमेरिका और उसके प्रभावशाली सहयोगियों की विश्वसनीयता कितनी डगमग है। किसान आंदोलन के समय भारत सरकार को ‘उपदेश’ देने वाले कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो अपने देश में ट्रक-चालकों के ‘शांतिपूर्ण प्रदर्शन’ को घोड़ों के पैरों तले कुचलने के लिए आपातकालीन शक्तियों का उपयोग पहले ही कर चुके है। फिर भी कुछ लोगों को ‘भारत में ही लोकतंत्र खतरे में’ दिखता है।

वैश्विक संकट में भारत की स्थिति क्या है? जब कोई देश अपने घोषित शत्रु राष्ट्र की प्रशंसा करे, तो उससे समकक्ष की ताकत स्वतः स्पष्ट है। कुछ दिन पहले तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे इमरान खान ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था कि भारत की विदेश नीति स्वतंत्र है और उसके अपने लोगों के हितों से जुड़ी है। यह ठीक है कि वैश्विक कारणों से विश्व के अन्य देशों के भांति भारत में भी ईंधन के दाम बढ़ रहे हैं, जिसके परिणाणस्वरूप महंगाई में भी बढ़ोतरी हुई है। किंतु यह भी सच है कि देश में लोकतंत्र, संविधान और कुटिल पड़ोसियों के बीच हमारी सीमाएं पहले से अधिक सुरक्षित हैं। आर्थिक मामले में हमारी स्थिति संतोषजनक है। स्वतंत्र भारत ने पहली बार वित्तवर्ष 2021-22 में 400 बिलियन डॉलर के निर्यात का आकंड़ा पार किया है। इस प्रकार के ढेरों सकारात्मक उदाहरण हैं, जो ‘सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा’ को और भी अधिक प्रासंगिक बनाते हैं।

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