सीरियस मैन : वंचित समाज पर विमर्श स्थापित करने का दिशाहीन प्रयास

सीरियस मैन : वंचित समाज पर विमर्श स्थापित करने का दिशाहीन प्रयास

फ़िल्म समीक्षा

डॉ. अरुण सिंह

सीरियस मैन : वंचित समाज पर विमर्श स्थापित करने का दिशाहीन प्रयास

फिल्म : सीरियस मैन
कलाकार : नवाजुद्दीन सिद्दीकी, नासर, इंदिरा तिवारी, श्वेता बसु प्रसाद, संजय नार्वेकर
निर्देशक : सुधीर मिश्रा
लेखन टीम : भुवनेश मांडालिया
ओटीटी : नेटफ्लिक्स

हमारे देश में वंचित समाज पर विमर्श अकादमिक चर्चा का विषय रहा है। इसमें जो अतिवादिता का दृष्टिकोण सामने आया है, वह समाज में न्याय और समानता नहीं, विध्वंस पैदा करता है। हाल ही में नेटफ्लिक्स पर प्रदर्शित हुई फ़िल्म “सीरियस मैन” वंचित समाज पर विमर्श के नाम पर कई सवाल खड़े करती है। यहाँ एक तथाकथित अनुसूचित समुदाय से आने वाला पूर्वाग्रही व्यक्ति, अय्यन मनि अपने सामान्य पुत्र को “असामान्य” सिद्ध करने के लिए अतिवादिता और अनुचित साधनों का सहारा लेता है। आदित्य सामान्य बच्चा है, पर वह राजनीति, मीडिया, व दिशाहीन विमर्श का मोहरा बन जाता है। वह कोई विज्ञान विशेषज्ञ नहीं है। उसका पिता उसे रट्टू तोता बना देता है, अंततः वह अपना रटा हुआ पाठ भूल जाता है और उसका तिलिस्म बिखर कर चूर-चूर हो जाता है। राजनेता केशव और अनुजा का “100 प्रतिशत शुद्ध वंचित” का विचार भी इसे संभाल नहीं पाता। आदी “सर्कस का जोकर” बनकर रह जाता है।

कॉन्वेंट विद्यालय में ईसाई प्रधानाचार्य अय्यन को ईसाई धर्म में अंतरण के लिए लालच देती है, पर वह ऐसा नहीं करता। यह दृश्य वर्तमान मतांतरण की ओर इंगित करता है। अय्यन भगवान गणेश की प्रतिमा का “अमेरिकीकरण” अपने निजी स्वार्थ के लिये करता है, अपने समुदाय के भले के लिए नहीं। एक निश्चित एजेंडा के अंतर्गत समाज को जातियों और समुदायों में बांटकर हिंदू संस्कृति और हिन्दू देवी देवताओं का तिरस्कार आजकल फैशन में है। अंग्रेज़ी वर्णमाला की आरती उतारना निज भाषाओं के अस्तित्व को खतरे में डालना है। 1991 में अय्यन को “गाँव में घुसने नहीं दिया जाना” तथ्यात्मक प्रतीत नहीं होता। अपवाद हो सकता है, परंतु सामान्य परिस्थिति में ऐसा 1991 में नहीं था।

डॉ. आचार्य से सीखे ज्ञान को अय्यन धूर्ततापूर्ण उद्देश्य की पूर्ति में लगाता है, पर जब रहस्योद्घाटन होता है तो उसे अपने यथार्थ का भान होता है। डॉ. आचार्य ठीक ही समझाते हैं उसे : “तुम्हारा आक्रोश उचित है, पर तुम्हारी प्रतिक्रिया ठीक नहीं है।” आदी की प्रतिभा को अभी पुष्पित होना है, वह प्रदर्शन हेतु नहीं है। आज की शिक्षा व्यवस्था में गला काट प्रतियोगिता के दौर पर भी यह फ़िल्म प्रश्न खड़े करती है। गालियों से भरे संवादों के माध्यम से निर्देशक फ़िल्म के कलात्मक सौन्दर्य को बिगाड़ता ही है। गालियों के बिना भी अपनी बात ढंग से कही जा सकती है। मंझा हुआ अभिनय फ़िल्म को दमदार बनाता है।

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