सेल्यूलर जेल – राष्ट्रीय तीर्थ

सेल्यूलर जेल - राष्ट्रीय तीर्थ

डॉ. अन्नाराम शर्मा

सेल्यूलर जेल - राष्ट्रीय तीर्थसेल्यूलर जेल

अखिल भारतीय साहित्य परिषद लेखक दल की अण्डमान- निकोबार यात्रा के दौरान सेल्यूलर जेल के दर्शन-भ्रमण का यह वृत्तांत पाठकों को देशभक्तों द्वारा उठाये गए कष्टों और उनके बलिदानों से परिचित कराने के साथ ही अंग्रेजों की क्रूरता का अहसास भी कराता है। हम भारतवासियों के लिए सेल्युलर जेल राष्ट्रीय तीर्थ ही है।

श्रीधर जी पराड़कर एक कुशल संगठनकर्ता तो हैं ही, प्रखर वक्ता, चिन्तक और साहित्यकार भी हैं। लेखकों से वे बेहद आत्मीय संबंध रखते हैं। उन्हीं की योजना से अखिल भारतीय साहित्य परिषद् के लेखक दल की यह अण्डमान यात्रा हुई थी।

पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार यात्री दल के सदस्य दिल्ली में एकत्र हुए। वहां से हवाई जहाज द्वारा चेन्नई पहुँचे। वहां सभी पोर्ट ब्लेयर जाने वाले हवाई जहाज में सवार हुए। दोपहर का समय था। वीर सावरकर हवाई अड्डे पर उतरते हुए विमान में भारतमाता का जयघोष गूंजा। हम बाहर निकले। चिन्मय आश्रम के संचालक श्री शुद्धानन्द जी हमें स्वयं लेने आए थे। सभी साहित्यकारों ने उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया। प्रारम्भिक परिचयोपरान्त जीपों में सवार होकर हम चिन्मय आश्रम पहुँचे। सूर्य छिपने वाला था। अस्तगामी सूर्य और इस आश्रम के मध्य फैले असीम जल सौन्दर्य को उलीच ही रहा था तभी स्वामी जी की उपस्थिति का अहसास हुआ। वे मेरे पीछे खड़े मुस्करा रहे थे। उन्होंने बताया “वह सामने पानी में उभरा हुआ द्वीप देख रहे हो न आप, वह वाईपर द्वीप है। इसी द्वीप पर स्त्रियों को फाँसी दी जाती थी।” मैं चौंका। छोटे से आकार के इस द्वीप के साथ कितनी बर्बर घटनाएं, चीखें और कराहें लिपटी हैं। सोचकर ही मैं सिहर उठा। द्वीप पर अन्धेरा उतरने लगा था। स्वामी जी ने बताया, यहां का समय मुख्य भारतभूमि से एक घण्टा आगे रहता है। इसी कारण यहाँ सूर्योदय एवं सूर्यास्त भी लगभग एक घण्टे पहले हो जाते हैं।

सायं लगभग छह बजे हम सेल्यूलर जेल देखने पहुँचे। यह जेल संसार भर में काले पानी की सजा के लिए कुख्यात रही है, पर स्वतंत्रता के पश्‍चात् इसे राष्ट्रीय तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है। मुख्य द्वार पर पर्यटकों की गहमागहमी थी। जेल का विशाल भवन फ्लड लाइटों से जगमगा रहा था। ध्वनि एवं प्रकाश का कार्यक्रम प्रारम्भ होने वाला है। जेल के अहाते में सैंकड़ों पर्यटक कुर्सियों पर बैठे हैं-निर्वाक, साँस रोके हुए, निश्‍चल। मातृभूमि की मुक्ति का नाद सुनने के लिए मनुष्य भीतर-बाहर स्वयं को कितना साधता है, कितना उत्कण्ठित, पर गम्भीर रहता है वह-इसकी अनुभूति यहीं हुई। वन्दे मातरम् की धुन से कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। जेल के इतिहास को, उसके नायकों और उनके दुर्घर्ष संघर्ष, साहस एवं त्याग को ओजपूर्ण वाणी में प्रस्तुत किया गया।पर्दे पर विनायक दामोदर सावरकर का चित्र उभरते ही भारतमाता के जयकारों से पूरा परिसर गूँज उठा। वीर सावरकर के परिवार द्वारा किए गए त्याग एवं कष्ट गाथाओं से दर्शक भाव विह्वल हो गए। जेलर बेरी की आतंकपूर्ण नीति और निमर्मता के दृष्टांत सुन दर्शकों की मुट्ठियां कस गईं। उस एक घण्टे के कार्यक्रम में त्याग, श्रद्धा, भक्ति, उत्साह, क्रोध, शोक, बलिदान और विस्मय-कितने ही भाव डूबते उतराते रहे। आखिर शो समाप्त हुआ। श्रीधर जी ने पास ही खड़े पीपल की जड़ों से मिट्टी उठाकर डिबिया में भर ली। सभी उस पवित्र रज कण को मस्तक पर लगा कर गौरवान्वित हुए। रात्रि लगभग नौ बजे हम आश्रम लौटे।

यात्रा का दूसरा व तीसरा दिन रोस आईलैण्ड व हैवलॉक द्वीप के नाम रहा। चौथा दिन पोर्ट ब्लेयर नगर के भ्रमण हेतु निश्‍चित था।

हम सबसे पहले सेल्यूलर जेल पहुंचे। इस जेल की एक झाँकी, दो दिन पूर्व रात्रि में हम देख चुके थे, पर दिन के उजाले में खुली आँखों से इसे देखने के लिए मन काफी व्यग्र था। जेल का मुख्य द्वार साधारण सा है। प्रवेश करते ही बायीं ओर शहीद स्मारक बना रहता है, जहां अखण्ड ज्योति प्रज्वलित रहती है। दायीं ओर खुला अहाता और उसके आगे तीन मंजिली इमारतें, प्रत्येक मंजिल में बरामदे और उनके भीतर से झांकती काल कोठरियां-दिन में ही दर्शकों के हृदय को कंपायमान करती हैं। कोठरियां काफी संकीर्ण हैं।पीछे की दीवार में ऊपर रोशनदान बना है, जहां से हल्की प्रकाश-रेखा आ रही है। हमने तीनों मंजिलें देखीं। दूसरी मंजिल की कोठरियों से गुजरते हुए श्रीधर जी एकाएक पलटे। सभी के कदम थम गए। उन्होंने प्रश्‍न किया- “सोचो, अगर आप यहां बन्दी होते तो क्या करते?“ सभी गम्भीर हो गए। आँखे बन्द कर मैंने उस स्थिति की कल्पना की- भारतमाता के नारे, जुलूस, राजद्रोह, गिरफ्तारी, कोर्ट- कचहरी, गवाहियां, गरजता हुआ समुद्र, जहाजों के सायरन, कोड़े, कोल्हू, दहशत, अपमान, गाली-गलौज – उफ् – एक भयंकर दु:स्वप्न – माथा फटने लगा। मैंने घबराकर आँखें खोल दीं। साँसें फूल गईं। यह एक बीहड़ अनुभव था। श्रीधर जी औघड़ पुरुष हैं। बार-बार ऐसे प्रयोग करते हैं। हम आगे बढ़े। चंद कदमों पर ही सावरकर कोठरी है। कोठरी में सामने चौकी पर वीर सावरकर की तस्वीर रखी है। समीप ही उनके गिलास, तसली, घड़ा आदि बर्तन भी हैं। सभी सहयात्री बारी-बारी चौकी के समक्ष घुटने टेक स्वातंत्र्य पुजारी को साष्टांग नमन करते हैं। सभी मौन रहकर श्रद्धांजलि दे रहे हैं। इसी कोठरी की बायीं दीवार पर वीर सावरकर ने कीलों और अपने नाखूनों से ”कमला काव्य“ लिखा था। सृजन के प्रति ऐसा समर्पण वाणी के इतिहास में ढूँढे न मिलेगा। वीर सावरकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक थे। अंग्रेजों ने उन्हें दो-दो आजीवन कारावास दिए। इसी जेल में उनके बड़े भाई भी सजा काट रहे थे। श्रीधर बताने लगे- जब दोनोंभाई बेड़ियों में जकड़े हुए आमने-सामने हुए तो बड़े भैया तड़प उठे, और बोले, “तांत्या, तुम्हें तो बाहर रहकर मातृभूमि की आराधना करनी थी। अब क्रांति जोत बाहर कौन जलायेगा?“ सावरकर बंधुओं के त्याग और कष्टों का स्मरण कर नेत्र डबडबा गए। सभी श्रद्धानत। उनके द्वारा उपयोग में लिए हुए बर्तनों को हमने बार-बार स्पर्श किया। सावरकर कोठरी पर लोहे के दुहरे किवाड़ जड़े हैं- पिंजरे के भीतर पिंजरा – अंग्रेज कितने भयभीत थे उनसे? देखकर विस्मय होता है। ज्योतिष जी बताते हैं, इस जेल में कुल 698 कोठरियां थीं जो सात विंगो में चारों ओर पसरी थीं। इनमें से तीन विंग ही सुरक्षित बची हैं। जेल के मध्य एक वॉच टॉवर बना है। इस टॉवर के विभिन्न तलों में सजायाफ्ता बंदियों के नाम अंकित हैं। मुझे आश्‍चर्य हुआ कि उस सूची में भारत के प्रत्येक भू-भाग के लोगों के नाम थे। टॉवर इतना ऊँचा है कि वहां से जेल की प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखी जा सकती है।

जेल परिसर में एक ओर फाँसी घर बना है, जिसमें आड़े शहतीरों पर रस्सी के तीन फंदे लटक रहे हैं। नीचे फर्श में लकड़ी के फट्टे लगे हैं। उन फट्टों के नीचे तहखाना है। बाहर से बनी तंग सीढ़ियों से हम उस तहखाने में उतरे। छत का जायजा लिया। मन भारी हो गया। बाहर एक दीर्घा में बंदियों को यातना देने के उपकरण रखे हैं जो जेल अधिकारियों की बर्बरता की गवाही दे रहे थे। जेल के ही एक भाग में चित्र दीर्घा बनी है, जिसमें गोरे लोगों के विलास-दृश्य और स्थानीय जनजातियों से लड़े गये उनके युद्धों के चित्र टंगे हैं। जेल-दर्शन में हमें लगभग तीन घण्टे लगे। वहाँ से लौटते हुए हमारी गाड़ी, अबाडीन बाजार से गुजरी। बाजार में काफी रौनक थी। अबाडीन का इतिहास काफी रोमांचक है। यहां अंग्रेजों और स्थानीय जनजातियों के मध्य भयंकर लड़ाई हुई थी।

प्रवास का आखिरी दिन काफी दौड़ भाग भरा था।दोपहर दो बजे फ्लाइट थी। मैंने पुण्य भूमि को नमन कर वहाँ से प्रस्थान किया।

(लेखक अखिल भारतीय साहित्य परिषद, राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष हैं)

पाथेय कण 16 अक्टूबर व 1 नवम्बर 2021 संयुक्तांक में प्रकाशित

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