13 जुलाई 1830 : अंग्रेजों द्वारा चर्च और बाइबल के साथ भारत में उच्च शिक्षा की शुरुआत
कलकत्ता में स्कॉटिश चर्च कॉलेज की स्थापना
रमेश शर्मा
13 जुलाई 1830 : अंग्रेजों द्वारा चर्च और बाइबल के साथ भारत में उच्च शिक्षा की शुरुआत
यह संस्था आज भी कलकत्ता में स्थित है और विश्व भर में अपनी ख्याति रखती है। इसकी स्थापना को अब 193 वर्ष हो रहे हैं। यह संस्था चर्च के निर्देशन में आरंभ हुई थी। इसका उद्देश्य भारत में चर्च और बाइबल को आगे रखकर भारत की युवा पीढ़ी को शिक्षित करना था। अंग्रेजों ने इसके समन्वय के लिये राजा राम मोहन राय का चेहरा आगे रखा था।
प्रतिवर्ष यह संस्था अपना स्थापना दिवस मनाती है, जिसमें सभी भारतीय जन भाग लेते हैं। कुछ पुराने विद्यार्थी भी आकर अपने संस्मरण सुनाते हैं। पर कितने लोग जानते हैं कि अंग्रेजों ने यह संस्था भारत में भारत की ज्ञान परंपराओं को समाप्त करने के लिये आरंभ की थी, जो उनके जाने के 76 वर्ष बाद भी न केवल फल-फूल रही है, अपितु एक विशाल वृक्ष का आकार ले चुकी है। ऐसा आकार जिसे कम करना या सीमित करना मानो असंभव लगता है। इसे आरंभ किया गया था तब इस पर पूरा नियंत्रण और निर्देशन चर्च का था। इसमें बाइबल के अनुसार शिक्षा दी जाती थी, जो प्रबंध समिति में थोड़े बदलाव के साथ आज भी यथावत है। यदि आज भारत में भारतीय संस्कृति का क्षय हो रहा है तो इसके लिये उच्च शिक्षा प्रसार की ऐसी यात्रा ही जिम्मेदार है, जिसकी नींव अंग्रेजों ने इस संस्था के माध्यम से 13 जुलाई 1830 में डाली थी। यह संस्था अंग्रेजों की उस नीति की नींव है, जिसमें अंग्रेज कहते थे कि यदि भारत को भारत में समाप्त करना है तो उसकी जड़ों को समाप्त कर अपनी जड़ें जमानी होंगी। इसके लिये उन्होंने शिक्षा पद्धति को ही माध्यम बनाया। शिक्षा की एक ऐसी दिशा तैयार की, जिससे भारतीय जन अपनी भाषा, भूषा और संस्कृति में हीनता अनुभव करें और अंग्रेजियत पर गर्व करें। इसके लिये पादरियों ने पूरे देश का भ्रमण किया और योजना तैयार की। फिर कलकत्ते का चयन हुआ। कुछ ऐसे लोग भी तलाशे गये जो ईस्ट इंडिया कंपनी के पुराने कर्मचारी और अंग्रेजों के शुभचिंतक थे, जिन्हें सनातन परंपरा अपने पिछड़ेपन का गड्ढा और पश्चिमी जीवन शैली प्रगति का पर्वत लगती थी। इतना करके उन्होंने एक ऐसे लोकप्रिय चेहरे की तलाश की, जो भारतीय समाज की दुर्दशा से मुक्ति के लिए चिंतित था। इस खोज में उनकी नजर राजा राममोहन राय पर पड़ी। राजा राम मोहन राय भारतीय समाज को कुरीतियों से दूर कर आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के योग्य बनाने के अभियान में लगे थे। अंग्रेजों ने इसका लाभ उठाया और उनके सामने इस संस्था से जुड़ने का प्रस्ताव रखा। राजा राममोहन को उच्च शिक्षा के लिये यह मार्ग दिखा और वे जुड़ गये। अंग्रेजों ने उन्हीं को आगे करके यह महाविद्यालय आरंभ किया। महाविद्यालयीन स्तर पर अंग्रेजी शैली में बाइबल की पढ़ाई आरंभ हुई।
उन दिनों भारत में पश्चिमी शिक्षा का आकर्षण तो बढ़ा था पर लोगों को अपनी भाषा से लगाव था। वे अंग्रेजी में पीछे थे। बंगाल अंग्रेजों के व्यापार और शासन दोनों का आरंभिक केन्द्र रहा। वहां के निवासी अंग्रेजों से जुड़ने तो लगे थे, लेकिन स्थानीय निवासियों में अपनी बंगला भाषा के प्रति और अपनी आस्था के प्रति अटूट लगाव था। इस पर ब्रिटेन में विचार हुआ और बीड़ा उठाया स्कॉटलैंड चर्च ने। वहां से एक निश्चित कार्यक्रम और धन लेकर पादरी रेवडेन्ट एलेक्जेंडर डफ कलकत्ता आये। यहां आकर उन्होंने विभिन्न लोगों से भेंट की। पादरी एलेक्जेंडर ने ही राजा राममोहन राय से जुड़ने का आग्रह किया। पादरी अलेक्जेंडर ने राजा राममोहन राय को समझाया कि अंग्रेजी भाषा आज की दुनिया के लिये कितनी आवश्यक है। यह भी समझाया कि बाइबल पढ़ने से धर्म भ्रष्ट नहीं होगा बल्कि ज्ञान बढ़ेगा और यदि दुनिया को देखना समझना है तो अंग्रेजी आवश्यक है क्योंकि अंग्रेजों का शासन दुनिया भर में है। भारतीयों की प्रगति के लिये राजा राममोहन राय को यह बात उचित भी लगी और वे इस संस्था से जुड़ गये। तब इस महाविद्यालय की स्थापना हुई, जिसका नाम रखा गया “स्कॉटिश चर्च कालेज”। पहले वर्ष कुल 6 विद्यार्थी पढ़ने आये। इन विद्यार्थियों के स्वागत के लिये बाकायदा एक आयोजन रखा गया। राजा राममोहन राय ने बैज लगाकर इन विद्यार्थियों का स्वागत किया। इस आयोजन में पादरी अलेक्जेंडर और अंग्रेज अधिकारी भी उपस्थित थे।
आरंभ में इस पर स्कॉटलैंड चर्च महासभा का सीधा नियंत्रण था। फिर 1883 में इसके प्रशासनिक ढांचे में कुछ परिवर्तन हुआ और इसके संचालन के लिये स्थानीय चर्च के साथ मुक्त संस्था का निर्माण हुआ। इसके प्रशासनिक ढांचे में तीसरा परिवर्तन 1908 में हुआ, लेकिन इसका नियंत्रण चर्च के हाथ में जो पहले दिन भी था, वह हर परिवर्तन के साथ यथावत रहा और आज भी है।