देश में बार-बार ‘हिंदू-मुसलमान’ करने वाले कौन?
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बलबीर पुंज
देश में बार-बार ‘हिंदू-मुसलमान’ करने वाले कौन?
प्रतिदिन की समस्याओं से जनमानस का ध्यान भटकाकर, देश में बार-बार हिंदू-मुसलमान कौन कर रहा है? वास्तव में, यह विकृत विमर्श एक राजनीतिक उद्योग के रूप में गहरी जड़ें जमा चुका है। अभी हाल ही में देश के अलग-अलग कोनों से जिस प्रकार विद्यालयों और उसके विद्यार्थियों पर ‘अत्याचार’ के समाचार सामने आए हैं, उसने इस कटु सच्चाई को पुन: रेखांकित कर दिया है। इन घटनाओं में से जिस एक मामले को सांप्रदायिक रंग देने अर्थात्— ‘हिंदू बनाम मुस्लिम’ बनाने का प्रयास हो रहा है, उसमें उत्तरप्रदेश स्थित मुजफ्फरनगर के एक निजी प्राथमिक स्कूल और उसके घटनाक्रम को स्वघोषित सेकुलरवादी, वाम-उदारवादी और मुस्लिम जनप्रतिनिधियों का बड़ा वर्ग सुलगाने का प्रयास कर रहा है।
आखिर मुजफ्फरनगर का पूरा मामला क्या है? बीते शुक्रवार (25 अगस्त) क्षेत्र के खुब्बापुर गांव स्थित नेहा पब्लिक स्कूल की शिक्षिका-प्रधानाचार्य तृप्ता त्रिपाठी के निर्देश पर एक छात्र को उसके सहपाठियों द्वारा थप्पड़ मारने का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। घटना 24 अगस्त की है, जिसमें एक मुस्लिम छात्र पांच का गुणन सारणी (पहाड़ा) सुनाने में विफल हो गया। इस पर 60 वर्षीय तृप्ता, जो कि स्वयं को हृदयरोगी और विकलांग बताती हैं— उन्होंने कक्षा के अन्य छात्रों को उसे थप्पड़ मारने का निर्देश दे दिया। बकौल मीडिया रिपोर्ट, इस स्कूल में कुल 50-60 छात्र हैं, जिनमें लगभग आधे मुस्लिम हैं। कई परिवार पहले से उस स्कूल में अपने बच्चों को दिए जाने वाले शारीरिक दंड के बारे में जानते थे। यक्ष प्रश्न है कि पहले किसी ने क्यों इसका विरोध नहीं किया?
वायरल वीडियो में आरोपी शिक्षिका कहती दिख रही है, “मैंने तो डिक्लेयर कर दिया, जितने भी मोहम्मडन बच्चे हैं, इनके वहां चले जाओ”। इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि यह वाक्य आधा अधूरा है। अब पूरा मामला क्या था? इसका खुलासा वह चोरी-छिपे वीडियो बनाने वाले पीड़ित छात्र के भाई नदीम ने किया है। उसके अनुसार, शिक्षिका उन मुस्लिम महिलाओं की शिकायत कर रही थी, जो अपने बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान नहीं देतीं। यही नहीं, छात्र के पिता ने मीडिया से बात करते हुए पूरे घटनाक्रम को हिंदू-मुस्लिम का मामला होने से इनकार किया है। अब पूरा मामला स्कूल में शिक्षक के आचरण और स्कूली छात्रों के साथ हुए अभद्र व्यवहार से संबंधित था। परंतु इसे तथाकथित ‘इस्लामोफोबिया’ का मुद्दा बना दिया गया।
इस पृष्ठभूमि में जिस दूसरी घटना की मीडिया के एक हिस्से में केवल चर्चा हुई है, उसके विशुद्ध रूप से सांप्रदायिक होने या न होने का निर्णय पाठक ही करें। जिस समय मुजफ्फरनगर के घटनाक्रम को ‘हिंदू-मुस्लिम’ के नैरेटिव सांचे में डाला जा रहा था, ठीक उसी कालांतर में मुजफ्फरनगर से लगभग 500 किलोमीटर दूर जम्मू के कठुआ स्थित सरकारी स्कूल में दसवीं के एक छात्र को इतनी बेरहमी से पीट दिया गया कि उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ गया, जो चार दिन अस्पताल में उपचार के बाद अपने घर लौट आया है। उस छात्र का अपराध केवल इतना था कि उसने अपनी कक्षा के ब्लैकबोर्ड पर ‘जय श्रीराम’ लिख दिया था।
छात्र को अधमरा करने वाले कोई और नहीं, उसके स्कूल के प्रधानाचार्य मोहम्मद हाफिज और शिक्षक फारुक अहमद हैं। समाचार के अनुसार, जब फारूक ने ब्लैकबोर्ड पर छात्र द्वारा ‘जय श्रीराम’ का नारा लिखा देखा, तब उसने अपना आपा खोकर अन्य सहपाठियों के सामने उस छात्र को जमीन पर गिराकर बुरी तरह पीट दिया। जब इससे भी उसका मन नहीं भरा, तो फारुक छात्र को प्रधानाचार्य के कार्यालय ले गया और दरवाजा बंद करके उसने हाफिज के साथ मिलकर फिर से छात्र की लात-घूसों से पिटाई कर दी। दोनों ने बुरी तरह चोटिल छात्र को यह भी धमकी दी है कि यदि उसने फिर से ‘जय श्रीराम’ लिखने का दुस्साहस किया, तो वे उसे मौत के घाट उतार देंगे। इसके बाद दोनों शिक्षकों ने एक स्कूली कर्मचारी को कक्षा में भेजकर ‘जय श्रीराम’ का नारा पानी से साफ करवा दिया।
श्रीराम, भारतीय सनातन संस्कृति की आत्मा है। उनका जीवन इस भूखंड में बसे लोगों के लिए आदर्श है। विश्वभर के करोड़ों श्रद्धालुओं के लिए श्रीराम भगवान हैं। तभी तो गांधीजी ने आदर्श समाज की संकल्पना में रामराज्य को देखा, तो अंतिम सांस लेते समय केवल राम का नाम लिया। यही नहीं, भारतीय संविधान की हस्तलिखित हिंदी-अंग्रेजी मूलप्रतियों में श्रीराम के भी चित्र अलंकृत हैं। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उनसे प्रेरणा लेकर असंख्य स्वाधीनता संग्रामियों ने अपने प्राणों की आहुति दी या जेल गए और उन्हीं की प्रेरणा से देश के पुनर्निर्माण का मार्ग निर्धारित हुआ था। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज उसी देश में ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाना ‘सांप्रदायिक’, तो इसका उद्घोष करने वालों के साथ मारपीट करना ‘सेकुलरवाद’ हो गया है।
आखिर क्या कारण है कि सेकुलरवादी-वामपंथी-जिहादी कुनबे को कठुआ के बजाय केवल मुजफ्फरनगर मामले में ही सांप्रदायिकता दिख रही है? इसका कारण उनकी विकृत संवेदनशीलता प्रेरित परिभाषा है, जिसमें पीड़ित का मुसलमान और आरोपी का हिंदू, वह भी उच्च जाति का होना आवश्यक है। विपरीत स्थिति वाले मामलों पर वे आक्रोश जताना तो दूर, उसका संज्ञान लेना भी पसंद नहीं करते।
इस समूह के लिए मुजफ्फरनगर का मामला अपने फर्जी “देश में मुस्लिम सुरक्षित नहीं” नैरेटिव के अनुकूल इसलिए भी था, क्योंकि इसमें तथ्यों को तोड़-मरोड़कर घटना को हिंदू-मुसलमान का रंग देना, कठुआ मामले की तुलना में बहुत आसान और स्वाभाविक था। क्या इस प्रकार के दोहरे मापदंड और मजहबी कट्टरता पर चयनात्मक दृष्टिकोण से किसी भी समाज में दीर्घकालीन समरसता, सांप्रदायिक सौहार्द और शांति संभव है?
वास्तव में, मुजफ्फरनगर मामले पर सेकुलरवादी-वामपंथी-जिहादी जमात द्वारा ‘हिंदू-मुस्लिम’ का दूषित नैरेटिव स्थापित करना, अभागी नूपुर शर्मा प्रकरण को दोहराने का प्रयास है। तब वह कुनबा मोदी विरोध के नाम पर भारत को विश्व बिरादरी में कलंकित करने में आंशिक रूप से सफल भी हो गया था। इस बार उनका उद्देश्य आगामी 9-10 सितंबर को दिल्ली में आयोजित होने वाले भव्य जी-20 सम्मेलन से पहले दुनियाभर में बहुलतावादी भारत के विरुद्ध वातावरण बनाना है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)