हिन्दू जीवन पद्धति में कर्तव्य प्रधानता है

हिन्दू जीवन पद्धति में कर्तव्य प्रधानता है

हृदयनारायण दीक्षित

हिन्दू जीवन पद्धति में कर्तव्य प्रधानता हैहिन्दू जीवन पद्धति में कर्तव्य प्रधानता है

भारतीय जीवन रचना हिन्दू और हिन्दुत्व की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। इसे रिलीजन, पंथ और मजहब की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। हिन्दू जीवन पद्धति में कर्तव्य प्रधानता है। बीते सोमवार को देश की सर्वोच्च न्यायपीठ ने कहा कि, ‘‘हिन्दू एक महान धर्म है”। उन्होंने कहा कि तत्व मीमांसा के आधार पर शायद हिन्दुत्व सबसे महान जीवन मार्ग होगा। न्यायमूर्ति केएस जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की पीठ ने उक्त महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिए हैं। न्यायमूर्ति जोसेफ ने स्वागत योग्य टिप्पणी की है कि, ‘‘मैं एक ईसाई हूँ, लेकिन मैं हिन्दुत्व को भी पसंद करता हूँ और इसका अध्ययन करने का भी प्रयास करता हूँ। इसकी महानता को समझने के भी प्रयास किए जाने चाहिए।” न्यायमूर्तियों के कथन में भारतीय दर्शन की तत्व मीमांसा का भी उल्लेख किया गया है। उन्होंने कहा है कि, ‘‘तत्व मीमांसा के आधार पर संभवतः हिन्दुत्व सबसे महान धर्म होगा। तत्व मीमांसा के आधार पर इसका भाव ठीक से समझा जा सकता है।”

तत्व मीमांसा का अर्थ है सृष्टि के मूलभूत तत्वों के आधार पर सत्य का विवेचन करना। वैशेषिक दर्शन में भी तत्व मीमांसा का समुचित प्रयोग हुआ है। वैशेषिक दर्शन में गुणों की संख्या 17 बताई गई है। पदार्थ धर्म संग्रह में गुणों की सूची में सात गुण और जोड़े गए हैं। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में 24 गुण बताए गए हैं। वे रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, बुद्धि, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार। वैशेषिक दर्शन में आत्मा को भी द्रव्य माना गया है। मीमांसा स्वतंत्र दर्शन भी है। इसे जैमिनि ने सूत्र रूप दिया है। यह धर्म जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है। न्यायमूर्तियों ने उचित ही तत्व मीमांसा की ओर इशारा किया है।

हिन्दू और हिन्दुत्व एक विशेष प्रकार की जीवन शैली हैं। सर्वोच्च न्यायपीठ की ताजा टिप्पणी नई नहीं है। सन 1995 में भी सर्वोच्च न्यायपीठ ने हिन्दुत्व को जीवन की एक शैली बताया था। तब के प्रधान न्यायधीश जे० एस० वर्मा ने हिन्दुत्व को जीवन शैली बता कर सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया था। इससे पहले भी न्यायालय की सकारात्मक टिप्पणियां आई हैं। 1966 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि ‘‘यह मजहब नहीं है। यह एक विशेष प्रकार की संस्कृति को प्रकट करने वाला शब्द है”। दुनिया में भिन्न भिन्न प्रकार की जीवन शैली प्रचलित हैं।

मजहब, रिलीजन या पंथ विश्वास आधारित हैं। ये आस्था के विषय हैं। जीवन शैली किसी देवदूत की उद्घोषणा का परिणाम नहीं होती। प्रत्येक जीवन शैली का अपना एक अनुभव शास्त्र होता है। परस्पर कार्य व्यवहार के लिए एक विशेष प्रकार की आचार संहिता का विकास होता है। जीवन शैली में मानव जीवन के सभी कार्य व्यापार समाहित हैं। सोचने की दृष्टि भी जीवन शैली का भाग होती है। जीवन शैली में ही जीवन के ध्येय सम्मिलित होते हैं। जीवन को सर्वोत्तम बनाने के लिए प्राचीन अनुभव, परंपरा और ज्ञान विज्ञान से लाभ उठाया जाता है। प्रत्येक जीवन शैली का एक भूक्षेत्र होता है। उस भूक्षेत्र में रहने वाले निवासियों का साझा इतिहास होता है। सबके स्वप्न और उमंग साझा होते हैं। भारत के लोकजीवन में भी सबका साझा इतिहास है। न करने योग्य कार्यों की सूची भी एक समान है। करणीय और अनुकरणीय कार्यों के प्रति प्रतिबद्धता भी एक जैसी है।

जीवन शैली सामान्य आचार संहिता नहीं होती। इसका एक जीवन दर्शन भी होता है। दर्शन बुद्धि विलास नहीं होता। दर्शन में व्यक्ति और अस्तित्व के बीच के सम्बंध होते हैं। सृष्टि निर्माण के आदितत्व, आदिकारण और आदि हेतु जैसे प्रश्न दर्शन का विषय बनते हैं। हिन्दू दर्शन बहुआयामी है। भारत में 6 प्राचीन दर्शन और महावीर व बुद्ध को मिलाकर 8 दार्शनिक विचारधाराएं हैं। अध्ययन के दौरान सभी विचारधाराएं भिन्न भिन्न दिखाई पड़ती हैं। यहाँ दार्शनिक विचारधाराओं से अपनी दिशा तय करने की स्वतंत्रता है। भारतीय दर्शन का मुख्य उद्देश्य दुख समाप्ति है। सृष्टि रहस्यों की जानकारी दुख का निवारण करती है और सुख प्राप्त कराती है। दर्शन का सामाजिक गठन पर भी प्रभाव पड़ता है। सामाजिक रिश्तों पर भी दर्शन अपना प्रभाव डालता है। गीत, संगीत, कला और साहित्य लोक से जीवनरस प्राप्त करते हैं। दार्शनिक ज्ञान की प्रयोगशाला भी है। हिन्दू दर्शन में लोक और शास्त्र के बीच कोई द्वन्द या द्वैत नहीं है। शास्त्र लोक अनुभवों से सामग्री लेता है। लोक शास्त्र से सुखपूर्ण जीवनशैली के सूत्र लेता है। हिन्दू दर्शन में सूक्ष्म से स्थूल की यात्रा है। प्रमाण अनुमान और शब्द विश्लेषण के आधार बनते हैं। प्रमाण और अनुमान सुस्पष्ट हैं। प्राचीन ऋषियों से लेकर आधुनिक काल तक उपलब्ध ज्ञान शब्द प्रमाण की श्रेणी में आता है। दर्शन में भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और विचार भिन्नता भी है। सभी विचारों अनुभवजन्य विश्वासों और शब्द प्रमाण का केन्द्रीय विचार ‘एक सत्य‘ ही है।

ऋग्वेद के ऋषि बता गए हैं कि, ‘‘यहाँ अनेक देवता हैं। इन्द्र हैं। अग्नि हैं। लेकिन सत्य एक है। विद्वान उसे भिन्न भिन्न नामों से पुकारते हैं। एक सत्य की यह ध्वनि ऋग्वेद से लेकर महाभारत की गीता और अष्टावक्र – जनक संवाद की अष्टावक्र महागीता तक विस्तृत है। अष्टावक्र ने जनक को बताया था कि, ‘‘वह विराट तत्व ज्योतिरेकं है। वह एक है। अभिव्यक्तियाँ अनेक हैं। विश्व के सभी प्राणी भिन्न भिन्न रूपों के बावजूद उस परम एक का विस्तार हैं। समूची वसुधा एक परिवार है -वसुधैव कुटुंबकम। प्रकृति और मनुष्य के बीच प्रगाढ़ आत्मीयता हिन्दू दर्शन का मुख्य तत्व है। इस जीवन दृष्टि में सूर्य विश्व परिवार के मुखिया हैं। ऋग्वेद में चन्द्रमा विराट पुरुष का मन हैं – चन्द्रमा मनसो जाता। चन्द्रमा पृथ्वी का भाई है और हम सब पृथ्वी के पुत्र हैं। इसी रिश्ते में माता दादी हम सबको सिखाती थी की चन्द्रमा मामा हैं। धरती माता हैं। आकाश पिता हैं। नदियां माताएं हैं। वनस्पतियां देवता हैं।

समूची सृष्टि और हम एक हैं। एक का ही विस्तार हैं। सब आत्मीय हैं। सब परिजन हैं। सबके प्रति हमारे दायित्व हैं। हिन्दू जीवन पद्धति में कर्तव्य प्रधानता है। अधिकार महत्वपूर्ण नहीं है। हिन्दू जीवनशैली में जीवन के सारे कर्म धर्म हैं। प्रकृति में एक सतत् यज्ञ चल रहा है। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि, ‘‘अन्न से सभी प्राणी पोषण पाते हैं। अन्न वर्षा से पैदा होता है और वर्षा यज्ञ से आती है। यज्ञ सत्कर्मों से होता है।” यह यज्ञ अग्नि में सविधा डालकर हवन करना नहीं है। श्रीकृष्ण ने सत्कर्मों को यज्ञ बताया है। दार्शनिक स्तर पर यज्ञ को भी ‘उस एक‘ को यज्ञ प्रतीक के माध्यम से समझाया गया है। इस प्रतीक के अनुसार ”ब्रह्म अग्नि में ब्रह्म की आहुति देता है। ब्रह्म ही स्वाहा बोलता है। ब्रह्म ही ब्रह्म को अर्पित करता है। अग्नि में सविधा डालने वाले मंत्र भी ब्रह्म हैं। ब्रह्म ही आहुति प्राप्त करता है।” हिन्दू जीवन शैली तनावग्रस्त विश्व की सभी चुनौतियों का उपचार है। हिन्दू हिंसक नहीं हो सकता। आक्रामक नहीं हो सकता। किसी दूसरे देश पर हमला करने की बात भी नहीं सोच सकता। हिन्दू अखिल विश्व का लोकमंगल चाहते हैं। इस आलेख के माध्यम से निवेदन है कि सब अपने जीवन कर्म में हिन्दुत्व का अंश जोड़कर कुछ प्रयोग करें। इसके परिणाम खूबसूरत आएँगे। हिन्दू दर्शन में आत्मरूपांतरण की विराट क्षमता है।

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