अंग्रेजी के मोह से मुक्त हो भारत

अंग्रेजी के मोह से मुक्त हो भारत

हृदय नारायण दीक्षित

अंग्रेजी के मोह से मुक्त हो भारतअंग्रेजी के मोह से मुक्त हो भारत

भाषा अद्भुत लब्धि है। भाषा से समाज बना। समाज ने भाषा का संर्वद्धन किया। भाषा सामूहिक सम्पदा है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता का समूचा ज्ञान भारतीय भाषाओं में उगा। विचारों का जन्म और विकास मातृभाषा की ही गोद में होता है। मातृभाषा अभिव्यक्ति का स्वाभाविक माध्यम होती हैं। भारत में अनेक समृद्ध भाषाएं हैं। लेकिन विदेशी भाषा अंग्रेजी की ठसक है। अंग्रेजी के जानकार विशिष्ट विद्वान माने जाते हैं। अंग्रेजी ज्ञान श्रेष्ठता है। अंग्रेज भारत आए। अंग्रेजी लाए। अंग्रेजी के साथ अपनी संस्कृति भी लाए। अंग्रेजों व अंग्रेजी विद्वानों ने प्रचारित किया कि भारत पहले राष्ट्र नहीं था। अंग्रेजों ने ही भारत को राष्ट्र बनाया। इस सबसे राष्ट्रीय क्षति हुई। केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने भोपाल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर आयोजित कार्यक्रम में अंग्रेजी के आकर्षण पर टिप्पणी की है, ‘‘अंग्रेजी के मोह के कारण हम अपनी प्रतिभा का 5 प्रतिशत उपयोग ही देश के विकास में कर पा रहे हैं। आज भी 95 प्रतिशत बच्चे मातृभाषा में पढ़ते हैं। जिस दिन स्थानीय भाषा में पढ़े बच्चों की देश की हर व्यवस्था में पूछ होगी, उस दिन भारत विश्व फलक पर सूर्य की भांति चमकेगा।‘‘ शाह की चिंता सही है। भारत को अंग्रेजियत और अंग्रेजी के मोह से मुक्त होना चाहिए।

अंग्रेजी को विश्वभाषा कहा जाता है। लेकिन जापान, रूस, चीन आदि देशों में अंग्रेजी की कोई हैसियत नहीं है। एशिया महाद्वीप के 48 देशों में भारत के अलावा किसी भी देश की मुख्य भाषा अंग्रेजी नहीं है। अजरबैजान की भाषा अजेरी और तुर्की है। इसराइल की हिब्रू। उज्बेकिस्तान की उज्बेक। ईरान की फारसी। सऊदी अरब, सीरिया, इराक, जॉर्डन, यमन, बहरीन, कतर व कुवैत की भाषा अरबी है। चीन व ताइवान की भाषा मंदारिन है। श्रीलंका की सिंहली व तमिल है। अफगानिस्तान की पश्तो। तुर्की की तुर्की है। यूरोप अंग्रेजी भाषी माना जाता है। लेकिन यूरोप के 43 देशों में से 40 की भाषा अंग्रेजी नहीं है। यहां डेनमार्क की डेनिश। चेक गणराज्य की चेक। रूस की रूसी। स्वीडेन की स्वीडिश। जर्मनी की जर्मन। पोलैंड की पोलिश। इटली की इटैलियन। ग्रीस की ग्रीक। यूक्रेन की यूक्रेनी। फ्रांस की फ्रेंच। स्पेन की स्पैनिश। सिर्फ ब्रिटेन की भाषा अंग्रेजी व आयरलैंड की आयरिश व अंग्रेजी है। इसके बावजूद भारत में अंग्रेजी महारानी है।

भारत पर अनंतकाल तक शासन करना अंग्रेजों का मंसूबा था। भारतीय संस्कृति, सभ्यता व मौलिक चिंतन साम्राज्यवादी हितों से मेल नहीं खाता था। भारत में अंग्रेजी का विस्तार साम्राज्यवादी हितों से जुड़ा रहा है। अंग्रेजी केवल भाषा ही नहीं है। अंग्रेजी की विशेष संस्कृति है। यह भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विरोधी है और श्रेष्ठतावादी है। जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में फूट डालकर अपना स्वार्थ साधा वैसे ही अंग्रेजियत ने भारतीय भाषाओं में भेद किया।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम की भाषा मातृभाषा हिंदी व अन्य क्षेत्रीय भाषाएं थीं। कांग्रेस अपने जन्मकाल से ही अंग्रेजी को वरीयता दे रही थी। गांधी जी ने कहा था, ‘‘अंग्रेजी ने हिंदुस्तानी राजनीतिज्ञों के मन में घर कर लिया है। मैं इसे अपने देश और मनुष्यत्व के प्रति अपराध मानता हूँ।‘‘ (सम्पूर्ण गांधी वांग्मय 29/312) कांग्रेसी शासन ने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा अंग्रेजी माध्यम से ही कराई। हिंदी व क्षेत्रीय भाषा के छात्रों के साथ अन्याय किया। जनता पार्टी की पहली गैर कांग्रेसी सरकार ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषा भाषी छात्रों के साथ न्याय किया। 1979 से हिंदी व क्षेत्रीय भाषा भाषी छात्र भी अपनी भाषा में परीक्षा दे रहे हैं। संस्कृति, सेवायोजन व संवाद की भाषाएं भारतीय हैं। बावजूद इसके अंग्रेजी प्रबुद्ध वर्ग की भाषा बनी। मातृभाषा के उपयोग के अभाव में संस्कृति निष्प्राण होती है। अंग्रेजी को विश्वभाषा बताने वाले आत्महीन ग्रंथि के शिकार हैं। गांधी ने लखनऊ में आयोजित अखिल भारतीय एक भाषा एक लिपि सम्मेलन (1916) में कहा, ‘‘मैं टूटी फूटी हिंदी में बोलता हूँ। अंग्रेजी बोलने में मुझे पाप लगता है।‘‘ लेकिन अंग्रेजी बोलने वाले सभ्य थे। हिंदी बोलने वाले असभ्य थे। गांधी ने कहा था, ‘‘मुझ जैसे लोगों को हिंदी व्यवहार के कारण धक्के खाने पड़ते हैं। किसी के सामने झुकने की आवश्यकता नहीं। वायसराय से भी अपनी भाषा में बात करो।‘‘

संविधान सभा में राजभाषा पर लम्बी बहस हुई थी। अलगू राय शास्त्री ने कहा, ‘‘हिंदी की होड़ है अंग्रेजी के साथ। बांग्ला, तमिल, तेलगु, कन्नड़ से नहीं। अंग्रेजी हुकूमत गई। अंग्रेजी हमारे किसी भी प्रांत की भाषा नहीं है।‘‘ पं० नेहरू ने कहा, ‘‘अंग्रेजी कितनी भी अच्छी हो हम इसे सहन नहीं कर सकते।‘‘ लेकिन अंग्रेजी बनाए रखने के प्रस्ताव पर वे आयंगर से सहमत थे। उन्होंने सभा में कहा था कि हमने अंग्रेजी इस कारण स्वीकार की कि वह विजेता की भाषा थी। राजभाषा प्राविधान के प्रस्तावक एम० जी० आयंगर ने हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा और कहा, ‘‘कि हम अंग्रेजी को एकदम नहीं छोड़ सकते। हिंदी समुन्नत भाषा नहीं है।‘‘ सत्तापक्ष की दृष्टि में अंग्रेजी समृद्ध भाषा थी और हिंदी गरीबी रेखा के नीचे। आर० वी० धुलेकर ने ‘‘हिंदी को राष्ट्रभाषा बताया।” कई सदस्यों ने आपत्ति की। धुलेकर ने कहा, “अंग्रेजी के नाम 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्र का हित साधन नहीं होगा।”

स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वप्न पूरे करने के 5 प्रण बताए हैं। पंच प्रण में ‘‘गुलामी की हर सोच से मुक्ति” महत्वपूर्ण है। अंग्रेजी भारत में गुलामी की सोच का प्रमुख स्तम्भ है। ब्रिटिश सत्ता को भारत छोड़े हुए 75 वर्ष पूरे हो गए हैं। अंग्रेजी संस्कार का दुष्प्रभाव बढ़ रहा है। बेशक अंग्रेजी एक भाषा है। भाषा के रूप में उसका ज्ञान बुरा नहीं है। लेकिन भारत के लिए अंग्रेजी सिर्फ भाषा नहीं है। यह पराधीनता का स्मारक है। अंग्रेजियत के प्रभाव में भारतीय इतिहास लेखन भी दूषित हुआ है। संस्कृति और सभ्यता पर इसका दुष्प्रभाव सुस्पष्ट है। शाह ने उसी भाषण में कहा कि ‘‘अंग्रेजों ने अपना शासन चलाने के लिए भारतीय समाज में कई प्रकार की हीन भावनाओं की निर्मिति की थी। अब इन भावनाओं को त्यागने का समय आ गया है।‘‘अब भारत आत्मविश्वासी राष्ट्र है। राष्ट्र जीवन के सभी क्षेत्रों में उत्साह है।”

संविधान (अनुच्छेद 351) में राजभाषा हिंदी के लिए केन्द्र को निर्देश हैं, ‘‘संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए। उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रवृत्ति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी या और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक हो, वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करे। उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।” संविधान में आठवीं अनुसूची की भाषाओं को हिंदी व संस्कृत से शब्द लेने के निर्देश हैं। अंग्रेजी से शब्द लेने के निर्देश नहीं है। इसी संवैधानिक निर्देश का पालन करते हुए, हम सब को राजभाषा व सभी भारतीय भाषाओं को समृद्ध बनाने का प्रण करना चाहिए। अंग्रेजी संस्कारों से मुक्ति का यही उचित समय है।

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