अंश के आधार पर पूर्ण का विवेचन नहीं हो सकता

अंश के आधार पर पूर्ण का विवेचन नहीं हो सकता

हृदयनारायण दीक्षित

अंश के आधार पर पूर्ण का विवेचन नहीं हो सकताअंश के आधार पर पूर्ण का विवेचन नहीं हो सकता

अंश के आधार पर पूर्ण का विवेचन नहीं हो सकता। विवेचन में देश काल के प्रभाव का ध्यान रखना आवश्यक होता है। देश काल के प्रभाव में समाज की मान्यताएं बदलती रहती हैं। वाल्मीकि रामायण विश्वप्रसिद्ध महाकाव्य है। रामायण का रचनाकाल लगभग ईसा पूर्व 500 वर्ष माना जाता है। तुलसीदास ने रामकथा पर आधारित रामचरितमानस सोलहवीं सदी में लिखी थी। रामचरितमानस उत्कृष्ट काव्य है। करोड़ों हिन्दू इसे धर्मग्रन्थ जैसा सम्मान देते हैं। एक समय सूरीनाम, मॉरीशस, कम्बोडिया, थाईलैण्ड आदि देशों में भारत से जाकर बसने वाले लोग रामचरितमानस की प्रतियां भी साथ ले गए थे। लेकिन कुछ राजनेता मानस की कथित नारी अपमान व शूद्र सम्बंधी चैपाइयों को लेकर आक्रामक हैं। वे इसे जलाने या प्रतिबंधित करने की मांग कर रहे हैं। शूद्र शब्द भी इस विवाद का हिस्सा है। उनके वक्तव्यों से सामाजिक विभाजन का खतरा है। वे अगड़े पिछड़े के विभाजन में राजनैतिक भविष्य तलाश रहे हैं।

डॉ० आंबेडकर की पुस्तक ‘हू वेयर शूद्राज‘ – ‘शूद्र कौन थे‘ पठनीय है। उन्होंने इसमें सृष्टि और शूद्रों के उद्भव के सम्बंध में भारतीय ग्रंथों और पाश्चात्य विद्वानों के विचार निरस्त किए हैं। उन्होंने वैदिक साहित्य के रचयिता आर्यों को नस्ल मानने, भारत पर आक्रमण करने व भारत के निवासी दास और दस्यु को आर्यों से भिन्न मानने से इंकार किया। आर्यों को श्वेत नस्ल और दास व दस्यु को काली नस्ल नहीं माना। आर्यों की दासों और दस्युओं पर विजय, विजय के बाद दास बनाने व उन्हें शूद्र बनाने की बात भी गलत बताई। आर्यों में रंगभेद की भावना व आर्यों द्वारा चातुर्वण्य का निर्माण भी नहीं माना। डॉ० आंबेडकर ने ऋग्वेद के छठवें, सातवें, आठवें और दसवें मण्डल के सूक्तों के हवाले से कहा, “आर्यों और दासों में नस्लों का संघर्ष नहीं था।” रंगभेद का खण्डन करते हुए उन्होंने ऋग्वेद से उद्धरण दिए हैं, ‘‘वैदिक आर्यों में रंगभेद नहीं था। कुछ गोरे थे। कुछ काले थे। श्रीराम व श्रीकृष्ण श्याम वर्ण के थे। ऋग्वेद के ऋषि दीर्घतमस व कण्व श्याम वर्ण के थे।”

डॉ० आंबेडकर के अनुसार ”शूद्र शब्द पहले किसी वर्ण या वर्ग का सूचक नहीं था। वह एक गण या समूह का नाम था।” भारत पर सिकंदर के आक्रमण पर इतिहासकारों ने लिखा है कि, ‘‘यहाँ के स्वाधीन गणराज्यों में सौदरि नाम का गण था। सौदरि गण सिकंदर से लड़ा था।” डॉ० आंबेडकर ने महाभारत व पुराणों का उल्लेख करते हुए कहा कि ”इसमें शूद्रों के गणसंघ का उल्लेख है। छान्दोग्य उपनिषद में राजा जानश्रुति शूद्र थे। उन्होंने रैक्व ऋषि से वेदविद्या प्राप्त की थी। ऋग्वेद के एक ऋषि कवषऐलूश शूद्र थे।” उन्होंने पूर्वमीमांसा के दार्शनिक जैमिनि, महाभारत, श्रोत्र सूत्र, कात्यायन श्रोत्र सूत्र आदि ग्रंथों का हवाला देते हुए लिखा है कि, ‘‘शूद्र गण को सभी धार्मिक कर्मकाण्ड करने के अधिकार थे।‘‘ शूद्र आर्य थे। शूद्र क्षत्रिय थे। आर्य समुदाय के अनेक प्रसिद्ध राजा शूद्र थे।” लेकिन राजनीति वोटबैंक के लिए अगड़ा पिछड़ा विभाजन पर आमादा है। डॉ० आंबेडकर ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में (9 मई 1916) जाति उत्पत्ति पर शोध में लिखा है कि “जाति धर्म का नियम मनु द्वारा प्रदत्त नहीं है और न ही वह ऐसा कर सकता था।” शोधपत्र में कहते हैं, ‘‘ब्राह्मण अनेक गलतियां करने के दोषी रहे हों, मैं कह सकता हूँ कि वे ऐसे थे। लेकिन जाति व्यवस्था को गैरब्राह्मणों पर लादने की उनकी क्षमता नहीं थी।”

दुनिया के सभी प्राचीन ग्रंथ देश काल परिस्थिति के आधार पर लिखे गए हैं। सैकड़ों वर्ष बाद उनके कुछ अंशों की संगति आधुनिक मूल्यों से भिन्न हो सकती है। लेकिन इसी आधार पर ग्रंथ को खारिज नहीं कर सकते। बुद्ध पंथ ईसा पूर्व 500 वर्ष पुराना है। बौद्ध ग्रंथ ‘अंगुत्तरनिकाय चक्कतुनिपात‘ में उल्लेख है कि, ‘‘स्त्री वर्ग सन्तापी ईर्ष्यालु और बुद्धिहीन है।‘‘ मार्क्सवादी चिंतक डॉ० रामविलास शर्मा ने अंगुत्तरनिकाय (भाग 1) पृष्ठ 29 से उद्धरण दिए हैं, ‘‘भिक्षुओं इस बात की सम्भावना नहीं है कि स्त्री सम्यक, सम्बुद्ध हो। इस बात की सम्भावना है कि पुरुष अर्हत, सम्यक, सम्बुद्ध हो।” ऐसे विचार आधुनिक काल के संगत नहीं हैं। मूलभूत प्रश्न है कि क्या कुछ वाक्यों के आधार पर हम विश्वविख्यात बुद्ध दर्शन को खारिज कर दें। हम बुद्ध का आदर करते हैं।

महान संत कबीर (पंद्रहवीं सदी) के भजन सबद लोकप्रिय हैं। उनमें शंकराचार्य का अद्वैत दर्शन है। लेकिन नारी के विषय में कबीर की उक्ति है, ‘‘नारी नसावे तीनि सुख जा नर पास होई/भक्ति मुक्ति निज ज्ञान में पैसि न सके कोई।‘‘ – अर्थात नारी किसी पुरुष की निकटता में तीन गुणों का नाश करती है। भक्ति, मुक्ति व ज्ञान की क्षति करती है।” इसी तरह एक और दोहे में कहते हैं, ‘‘नारी कुण्डा नरक का बिरला थांबे बाग/कोई साधू जन उबरै सब जग मुअन लाग।” – अर्थात नारी नरक का कुआं है। बिरले ही इससे बच पाते हैं। शेष इसमें गिर कर मर जाते हैं।” ऐसे उद्धरण आधुनिक सन्दर्भ में किसी को भी अनुचित लग सकते हैं। कबीर का मूल्यांकन ऐसे उद्धरणों के आधार पर नहीं किया जा सकता। इसी आधार पर उनकी निंदा भी नहीं की जा सकती। कबीर के तमाम दोहे व भजन प्रगतिशील विचारों से समृद्ध हैं। यूनानी दार्शनिक प्लेटो की विश्व प्रसिद्ध रचना ‘रिपब्लिक‘ (गणतंत्र) में भी स्त्री अपमान जैसी बातें हैं। प्लेटो ने ‘द डायलॉग्स ऑफ प्लेटो‘ खण्ड 2 (रिपब्लिक) में बताया है, ‘‘जो काम पुरुष के हैं। वे सब नैसर्गिक रूप से स्त्रियों को दिए जा सकते हैं, लेकिन इन सब में स्त्री पुरुष से कमजोर होती है।” यहाँ स्त्री की क्षमता पर प्रश्न है। प्लेटो लिखते हैं, ‘‘जिनके लिए हम चिंता प्रकट करते हैं, जिनके लिए कहते हैं कि उन्हें अच्छा आदमी बनना चाहिए, उन्हें हम स्त्रियों का अनुकरण न करने देंगे।” ऐसे कथन आधुनिक समाज के मूल्यों के विपरीत हो सकते हैं। लेकिन कुछ एक कथनों के आधार पर क्या हम ‘रिपब्लिक‘ को फूंक देने का नारा लगाएंगे? विश्व में अनेक प्रतिष्ठित प्राचीन रचनाएं हैं। भारत में ज्यादा हैं। इनके कुछ अंश विशेष संदर्भ में हैं। कुछ आधुनिक समाज की कालसंगति में नहीं है। हम उन्हें पसंद करें, न करें, यह हमारा अधिकार है। लेकिन ऐसी रचनाओं को कथित आपत्तिजनक अंशों के बहाने खारिज नहीं किया जा सकता।

अंश के आधार पर समग्र विश्लेषण नहीं हो सकता। अमरीकी विद्वान जॉन गॉडफ्रे सैकसे ने एक सुंदर कविता में लिखा है कि, ‘‘6 अंधे लोग ज्ञान प्राप्ति के लिए हाथी देखने गए थे। पहले ने हाथी के पेट को सहलाया और कहा “हाथी और कुछ नहीं दीवार होता है।“ दुसरे ने गजदंत छुए और कहा हाथी और कुछ नहीं भाला है। तीसरे के हाथ में सूंड़ आई, उसने कहा हाथी सांप है। चौथे के हाथ में घुटने आए, उसने कहा हाथी पेड़ है। पांचवें के हाथ में कान आए, उसने कहा कि हाथी पंखा है। छठवें के हाथ में पूँछ आई, उसने कहा हाथी रस्सा है। छहों अपने अल्प अनुभव के आधार पर अंशतः सही थे। सम्पूर्णता में छहों गलत थे। यही स्थिति रामचरितमानस के निंदकों की है। वे समग्रता में नहीं देखते। खंडित विचार से राजनैतिक लाभ उठाना चाहते हैं। इससे सामाजिक विभाजन का खतरा है।

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