अजीब दास्तांज : कुंठा की दास्तानें (फ़िल्म समीक्षा)

अजीब दास्तांज़ : कुंठा की दास्तानें (फ़िल्म समीक्षा)

डॉ. अरुण सिंह

अजीब दास्तांज़ : कुंठा की दास्तानें (फ़िल्म समीक्षा)

अभी 16 अप्रैल को नेटफ्लिक्स पर “अजीब दास्तांज” नामक एक फ़िल्म – कॉलाज प्रदर्शित हुआ है। चार लघु फिल्मों का समूह। कुंठाओं का अतिशय प्रदर्शन ही इन लघु फिल्मों का वैशिष्ट्य है। यहां विवाहेत्तर/समलैंगिक संबंध कुंठाओं के प्रस्फुटन की परिणति मान लिए जाते हैं। निर्धन वर्ग उच्च – मध्यमवर्गीय लोगों से प्रतिस्पर्धा करता दिखाई पड़ता है। जहां भौतिक संपन्नता है, वहां भी घोर असंतुष्टि और लिप्सा है।

पहली लघु फिल्म “मजनू” स्वार्थ, प्रतिघात और प्रतिशोध से सिक्त है। शक्ति – लिप्सा के केंद्र में रहते संबंधों में लेशमात्र भी विश्वसनीयता नहीं है। वेब सीरीज “मिर्ज़ापुर” का असर दिखाई पड़ता है निर्देशन और पटकथा में। बबलू का बाहुबल राज की चालाकी और प्रतिशोध के आगे धरा रह जाता है। लिपाक्षि मोहरा बना ली जाती है। ब्राह्मण को चालाक प्रदर्शित किया गया है। समलैंगिकता को अनावश्यक ही कथानक में ठूंसा गया है। अब निर्देशक यह नहीं करें तो, धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी कैसे सिद्ध होंगे? गीत “बगियन में भंवरा” की पंक्ति “काहे सताए नटखट नंदलाल” का राज और लीपाक्षि के लिए प्रयोग करना अत्यंत घृणित है।

“खिलौना” में वीभत्स, महानगरीय वर्ग – संघर्ष प्रस्तुत किया गया है। यह संभ्रांत वर्ग का यथार्थ हो सकता है, परन्तु इसका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। मीनल के मन में अभिजात्य लोगों के प्रति एक पूर्वाग्रही आक्रोश है। उनके जैसा संपन्न बनने की महतवाकांक्षा भी पालती है वह। सुशील स्त्रियों की परस्पर डाह का शिकार बन जाता है। विनोद अग्रवाल की लम्पटता और मूर्खता उसी पर भारी पड़ जाती है। बिन्नी, जो कि एक छोटी बच्ची है, से जो संवाद बुलवाए गए हैं, वे सर्वथा ही अनुपयुक्त, अनैतिक और अवैधानिक हैं। बिन्नी की उपस्थिति में ही सुशील और उसकी बड़ी बहन मीनल रति – क्रिया करते हैं। अवयस्क बालिका के मुख से फ़ूहड़ संवाद सुनना बहुत चुभता है। यह सिनेमा की रचनाधर्मिता नहीं, निर्लज्जता और अपराध है। बिन्नी फिल्म के चरित्र के अतिरिक्त एक जीवंत बालिका, इनायत वर्मा भी है। उसके मन पर ऐसे संवादों और कथानक का क्या प्रभाव पड़ा होगा? यथार्थ के नाम पर मनगढ़ंत ढकोसला परोसा जा रहा है।

“गीली पुच्ची” में भी कुंठित समलैंगिकता प्रदर्शित की गई है। जाति भेद भी डाल दिया गया है। भारती के लिए उसकी समलैंगिकता उसके कर्म से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, पर फिर भी वह इस जाल में फंस जाती है। प्रिया अपना काम साध लेती है, पर असंतुष्ट है। सब तरफ कुंठा है। क्या यह नकारात्मकता ही समाज का यथार्थ है?

लघु – फिल्म “अनकही” में संवेदनाओं से खेलने हेतु स्वार्थपूर्ण विवाहेत्तर संबंध जोड़े जाते हैं और स्वार्थ – सिद्धि के पश्चात तोड़ दिए जाते हैं। नताशा बधिर फोटोग्राफर कबीर के साथ यही करती है।

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2 thoughts on “अजीब दास्तांज : कुंठा की दास्तानें (फ़िल्म समीक्षा)

  1. आजकल सिनेमा से रचनाधर्मिता और यर्थाथ की अपेक्षा करना बेमानी प्रतीत होता है । फूहड़ता, अश्लीलता, बेतुके संवाद ही सिनेमा का पर्याय बन चुके है । जिसे ये “समाज का आईना” शीर्षक से परोसते है ।

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