अतीक की हत्या और अनुत्तरित प्रश्न

अतीक की हत्या और अनुत्तरित प्रश्न

बलबीर पुंज

अतीक की हत्या और अनुत्तरित प्रश्नअतीक की हत्या और अनुत्तरित प्रश्न

बीते दिनों कुख्यात माफिया अतीक अहमद और उसके भाई अशरफ की पुलिस हिरासत में हत्या हो गई। इस घटना ने जहां भारतीय राजनीति, लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रणाली, न्यायपालिका और पुलिस की कमजोर कड़ियों को सामने ला दिया, वहीं अपने पीछे कई सुलगते प्रश्नों को भी छोड़ दिया।

पहला— सरेआम अपराधों को अंजाम देता हुआ हिस्ट्रीशीटर अतीक अहमद, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत जनसमर्थन से पांच बार विधायक और एक बार लोकसभा सांसद बन चुका था। उसका भाई अशरफ भी राजनीति में सक्रिय था। आपराधिक पृष्ठभूमि होने के बाद भी समाजवादी पार्टी आदि ने उससे हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया। आखिर यह राजनीतिक दलों और मतदाताओं की कौन-सी मानसिकता है कि वह हत्या, फिरौती, अपहरण आदि अपराधों में लिप्त कुख्यात को अवसर देते रहे?

दूसरा— अतीक अहमद ने अपना पहला अपराध 1970 के दशक में 17 वर्ष की आयु में किया। वर्ष 1989 में अतीक राजनीति में उतरा और अगले तीन दशकों तक एक भी अपराध में उसका दोष सिद्ध नहीं हो सका। क्यों? इसका उत्तर 2012 के उस घटनाक्रम में मिलता है, जिसमें अतीक की जमानत याचिका पर सुनवाई करने से इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 10 न्यायाधीशों ने स्वयं को अलग कर लिया था। क्या यह सब अतीक के खौफ के समक्ष तत्कालीन न्यायिक प्रणाली के बेबस चेहरे को प्रस्तुत नहीं करता?

बीते 44 वर्षों में 150 आपराधिक मुकदमे दर्ज होने के बाद दुर्दांत अतीक और अशरफ को पहली बार उसके विरुद्ध दर्ज एक मामले में 28 मार्च 2023 को दोषी ठहराया गया। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि मार्च 2017 से पहले जो राजनीतिक संरक्षण अतीक और उसके परिवार को प्राप्त था, वह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार की अपराध के विरुद्ध सख्त नीतियों से एकाएक समाप्त हो गया।

तीसरा— प्रयागराज में 15 अप्रैल को अनिवार्य चिकित्सा जांच हेतु पुलिस सुरक्षा में अतीक-अशरफ को अस्पताल लाया गया था। तब उसे मीडिया से बात करने की स्वतंत्रता दी गई। कई अवसरों पर अहमद बंधु अपनी जान पर खतरा बता चुके थे। इस स्थिति में प्रदेश सरकार और पुलिस का रवैया समझ से परे है। ऐसा क्यों हुआ, इसकी जांच जारी है। दर्ज प्राथमिकी के अनुसार, उत्तरप्रदेश के तीन अलग-अलग क्षेत्रों से आए ये तीनों हत्यारे, अतीक-अशरफ को मारकर ‘बड़ा माफिया’ बनना चाहते थे। यह स्वीकारोक्ति संदिग्ध प्रतीत होती है। यदि तीनों को ‘बड़ा माफिया’ बनना ही था, तो वे घटनास्थल पर तैनात भारी पुलिसबल के बीच इतना बड़ा कांड करके भागने का प्रयास करते, किंतु उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। प्रतिकूल स्थिति में भी तीनों के पुलिसिया मुठभेड़ में मारे जाने की संभावना प्रबल थी। उनके अपराध के लिए तीनों को उमक्रैद या फांसी हो सकती है। हत्यारे साधारण परिवार से आते हैं, तो उनके पास लाखों रुपयों की प्रतिबंधित विदेशी पिस्टल कहां से आई?

नैरेटिव बनाया जा रहा है कि हमलावरों ने ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाकर अतीक-अशरफ को मारा। अभी तक तीनों की किसी भी सामाजिक-धार्मिक संगठन से संबंध होने की पुष्टि नहीं हुई है। यह अकाट्य सत्य है कि मोदी सरकार के साथ प्रदेश की योगी सरकार, देश के सांस्कृतिक विकास में मुख्य भूमिका निभा रही है। लगभग 500 वर्ष पश्चात अयोध्या में श्रीराम मंदिर का पुनर्निर्माण होना और 350 वर्ष बाद काशी विश्वनाथ धाम का भव्य कायाकल्प आदि— इसके जीवंत प्रमाण हैं। कुछ माह पहले सपा-राजद नेताओं द्वारा ‘रामचरितमानस’ को कलंकित करने के बाद अतीक-अशरफ की हत्या में हमलावरों द्वारा उपरोक्त नारा लगाना, कहीं मोदी-योगी सरकार और हिंदुत्व को कलंकित करने के श्रृंखलाबद्ध अभियान का हिस्सा या अतीक-अशरफ हत्याकांड की जांच को भटकाने हेतु तो नहीं है?

सपा, एआईएमआईएम सहित कई विरोधी दल, अतीक-अशरफ की हत्या को ‘मुस्लिम समाज पर हमला’ और ‘मुसलमानों का तथाकथित राजकीय शोषण’ बता रहे हैं। क्या मुस्लिम समुदाय की पहचान अतीक-अशरफ जैसे कुख्यात अपराधियों से होगी या मौलाना अबुल कलाम आजाद, एपीजे अब्दुल कलाम और ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान से? क्यों देश के तथाकथित ‘सेकुलर’ नेता, मुसलमानों को ऐसे अपराधियों से जोड़कर उनके समाज को कलंकित कर रहे हैं? क्या यह सत्य नहीं कि अतीक-अशरफ द्वारा शिकार 20 प्रमुख पीड़ितों में से 13 मुस्लिम समाज से हैं, जिनमें दो नाबालिग लड़कियों का मदरसा से अपहरण कर बलात्कार करने का मामला भी शामिल है?

उपरोक्त नैरेटिव, भारतीय सार्वजनिक जीवन में आई विकृति को ही रेखांकित करता है। अतीक-अशरफ की हत्या से पहले 12 अप्रैल को पुलिसिया मुठभेड़ में अतीक का कुख्यात बेटा असद, मौत के घाट उतार दिया गया था। तब इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘मुस्लिम शोषण’ का मुद्दा बनाकर प्रस्तुत किया गया। यह स्थिति तब थी, जब इस मुठभेड़ से एक दिन पहले उत्तरप्रदेश पुलिस ने ढाई लाख के इनामी बदमाश आदित्य राणा को मुठभेड़ में ढेर कर दिया था। इसी तरह की एक लंबी सूची है, जिसमें विकास दुबे, टिंकू कपिला, मोती सिंह, विनोद कुमार सिंह और मनीष सिंह का नाम भी शामिल है।

सच तो यह है कि पुलिस और कोई भी सुरक्षा एजेंसी किसी को भी शत-प्रतिशत सुरक्षा नहीं दे सकती। जब मारने वाले अपनी जान की परवाह न करें, तो हमला कई गुना घातक हो जाता है। देश-विदेश में ऐसे कई उदाहरण हैं। विश्व के सबसे आधुनिक, शक्तिशाली और संपन्न अमेरिका के चार राष्ट्रपति कड़ी सुरक्षा के बाद भी मौत के घाट उतार दिए गए। भारत में एक प्रधानमंत्री (दिवंगत इंदिरा गांधी) और पूर्व प्रधानमंत्री (दिवंगत राजीव गांधी) की भी सुरक्षाचक्र में होते हुए नृशंस हत्या हो चुकी है।

जो समूह अतीक-अशरफ-असद प्रकरण को कानून-व्यवस्था के ध्वस्त होने से जोड़ रहे हैं, वे 18 अक्टूबर 2019 को लखनऊ में कमलेश तिवारी को अशफाक-मोईनुद्दीन सहित छह जिहादियों द्वारा मौत के घाट उतारने और 16 अप्रैल 2022 को महाराष्ट्र के पालघर में पुलिस बल की उपस्थिति में हिंसक भीड़ द्वारा दो निरीह हिंदू साधुओं की नृशंस हत्या पर अब तक मौन हैं। ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं। कटु सत्य है कि उत्तरप्रदेश का हालिया घटनाक्रम और उस पर आ रही प्रतिक्रिया— हमारी व्यवस्था में दशकों से व्याप्त सड़ांध को ही उजागर करती है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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