अनुसूचित जनजातियों के जीवन में बसे हैं हिंदू एकता के तत्व

अनुसूचित जनजातियों के जीवन में बसे हैं हिंदू एकता के तत्व

रामस्वरूप अग्रवाल

अनुसूचित जनजातियों के जीवन में बसे हैं हिंदू एकता के तत्वअनुसूचित जनजातियों के जीवन में बसे हैं हिंदू एकता के तत्व

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में जनजातियों की जनसंख्या 10 करोड़ 42 लाख 81 हजार चौंतीस है जो कि देश की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है। यह विशाल जनसंख्या वन, पहाड़ आदि में सामाजिक और भौगोलिक अलगाव में रहती आई है। परन्तु, इन जनजातियों के निकट जाएंगे तो पता चलेगा कि भले ही इनकी पूजा पद्धति, नृत्य, संगीत, त्योहार, वेशभूषा भिन्न हो, लेकिन इनके जीवन में भी हिंदू समाज की एकता के तत्व समाए हुए हैं। हिंदू समाज में विभिन्नता के दर्शन सर्वदूर होते हैं। महाराष्ट्र के लोगों की भाषा, वेशभूषा, नृत्य, गीत-संगीत व कई त्योहार राजस्थान के लोगों से भिन्न हैं। यह स्थिति देश के सभी भागों की है। इसके बावजूद सब में एकता के तत्व समाए हुए हैं।

जनजातीय समुदाय के गीत, संगीत, नृत्य और जीवन के हर पहलू में राम और कृष्ण रचे बसे हैं। आज की कई जनजातियां मानती हैं कि रामायण में वर्णित नाग, कोल, किरात, भील, निषाद, वानर आदि उनके पूर्वज थे। प्रभु श्रीराम अपने चौदह वर्ष के वनवास-काल में जनजातियों के साथ ही रहे। निषादराज गुह राम के मित्र थे। राम को सरयू पार कराने वाले केवट, लंका भेजे गए दूत अंगद, रामसेतु बनाने में अग्रणी जाम्बवंत तथा सीता की खोज करने वाले हनुमान-सभी तो जनजातीय समुदाय से थे। जनजातीय महिला शबरी के प्रेम में वशीभूत राम ने उसके जूठे बेर खाए।

जनजातियों की अपनी-अपनी रामायण या रामकथा है। भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में बसने वाली कर्बी जनजाति अपनी मूल उत्पत्ति राम-रावण युद्ध से बताती है। कर्बी रामायण के अनुसार रामायण से ही उनके गीतों की रचना होने लगी। छोटा नागपुर (झारखंड) के बिरहोर जनजातियों की रामायण कहती है कि भगवान सिंगबोंगा ने पृथ्वी का निर्माण कर रावण को सौंपी जो आततायी हो गया तो भगवान राम ने जन्म लेकर मानव समूह को आतंक से मुक्त कराया।

मुंडारी रामायण तथा गुजरात व राजस्थान के वनवासी क्षेत्रों में भीलोड़ी रामायण प्रचलित है। इस रामायण में 17 गीतों में राम कथा का वर्णन किया गया है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के गोंड समाज के राम महाबली, न्यायप्रिय एवं प्रजापालक हैं। कमार जनजाति, साओर एवं संथाल आदि जनजातियों में भी रामकथा का पठन-पाठन होता है। गोंड एवं उसकी उपजातियों में ‘करमा’ एक नृत्य गीत है, जिसे ‘गोंडी नृत्य’ कहते हैं। इसमें श्रीराम का स्मरण किया जाता है। विदर्भ में स्थित कोलाम जनजाति में रामभक्ति उनके गीतों में समाई हुई है। विदर्भ के ही अमरावती जिले के मेलाघाट क्षेत्र में स्थित कोरकू जनजाति का मानना है कि राम का नाम लेना ही जीवन का अंतिम सत्य है। ‘राम नाम लेना, ओ मैना, राम नाम लेना’

राजस्थान में मीणा जनजाति के लोग दीपावली, दशहरा, होली तो मनाते ही हैं, वे सावन में शिवजी पर जल चढ़ाते भी मिल जाएंगे। मृत्यु होने पर दाह संस्कार और अस्थियों को गंगाजी या सोरों जी ले जाया जाना आदि हिंदू समाज की ही परम्पराएँ उनमें देखने को मिलती हैं। वस्तुतः जनजाति समाज जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों में प्रभु श्रीराम का स्मरण करते हैं। जनजातियों के मिथक, गीत, काव्य, कथा-कहानी के उपलब्ध साहित्य से इसकी पुष्टि होती है।

ऐसे जनजातीय समाज को हिंदुओं से अलग करने की अंग्रेजों की चाल रही। देश की स्वाधीनता के बाद 1950 में राष्ट्रपति के आदेश से अनुसूचित जनजातियों की सूची प्रकाशित की गई। परन्तु, इस आदेश में यह लिख कर कि अनुसूचित जनजाति से कन्वर्टेड (मतांतरित) ईसाई या मुसलमान व्यक्ति भी जनजाति का बना रहेगा, जनजातीय समुदाय को तोड़ने में प्रमुख भूमिका निभा रहा है। जो नियम अनुसूचित जाति पर लागू हैं, वे ही नियम जनजातियों पर भी लागू होने चाहिए अन्यथा इस वर्ग को ‘स्व-तंत्रता’ का अहसास कैसे होगा?

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