अमर बलिदानी टंट्या भील

अमर बलिदानी टंट्या भील

4 दिसंबर 1889 महानायक टंट्या भील का बलिदान

रमेश शर्मा

अमर बलिदानी टंट्या भीलअमर बलिदानी टंट्या भील

स्वतंत्रता के जिस शुभ्र प्रकाश में हम आज स्वछंद श्वांस ले रहे हैं। यह साधारण नहीं है। इसके पीछे अगणित हुतात्माओं का बलिदान हुआ है। कुछ को हम जानते हैं, याद करते हैं, गीत गाते हैं, लेकिन कितने ऐसे हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते। जिन्हें हम याद तक नहीं करते हैं, जिनका उल्लेख इतिहास के पन्नों पर मिल तो जाता है पर अत्यल्प। ऐसे योद्धा अनगिनत हैं, जिन्होंने इस राष्ट्र के लिये, राष्ट्र की संस्कृति के लिये बलिदान दिया और समय की परतों में कहीं खो गये।

महानायक टंट्या भील ऐसे ही बलिदानी हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने अपराधी कहा और स्वतंत्रता के बाद की आरंभिक पीढ़ियों ने भी वही माना। लेकिन अब सच सामने आ रहा है, इतिहास की परतें खुल रहीं हैं, हम उनके बलिदान से अवगत हो रहे हैं और इस वर्ष मध्यप्रदेश सरकार और समाज दोनों उनका स्मरण कर रहे हैं। जनजाति समाज से आने वाले हिन्दू नायक टंट्या भील की संघर्ष गाथा से भी परतें उठ रहीं हैं और समाज उनके शौर्य, वीरता और संकल्पशीलता से अवगत हो रहा है।हालांकि वन अंचलों में उनकी किंवदंतियां हैं। वे कहानियों में अमर हैं, पर इतिहास के पृष्ठों पर उतना स्थान नहीं, पर्याप्त विवरण भी नहीं।

कोई कल्पना कर सकता है कि दो हजार सशस्त्र सिपाहियों की अंग्रेजी फौज उनके पीछे सालों तक पड़ी रही, लेकिन वे हाथ न आये, अंग्रेजों को छकाते रहे, न रुके न थके और अंत में अंग्रेजों ने एक चाल चली। वे जिसे शक्ति से न पकड़ पाये उसे धोखा देकर पकड़ा। इसके लिये एक ऐसा विश्वासघाती गणपत सामने आया, जिसकी पत्नी टंट्या भील को राखी बाँधती थी। टंट्या श्रावण की पूर्णिमा को राखी बंधवाने आये और राखी का यह बंधन उन्हें फाँसी के फंदे पर ले गया।

उनका प्रभाव 1700 गांवों तक था। वे अंग्रेजों और उनके दलालों के सख्त दुश्मन थे। जब वे किशोर वय के थे, तब उन्होंने अंग्रेजी फौज और उसके दलालों का जन सामान्य पर अत्याचार देखा था। उन्होंने अपने समाज और गाँवों में ढाया गया कहर देखा था, यह अंग्रेजों द्वारा 1857 की क्रान्ति के दमन का दौर था। क्रांति की असफलता के बाद अंग्रेजों ने उन भूमिगत लोगों को ढूंढा, जो भूमिगत हो गये थे। उनकी तलाश में गाँव के गाँव जलाये गये। जनजातियों पर जुल्म ढा कर पूछताछ हुई। यह सब दृश्य टंट्या की आँखों में जीवन भर सजीव रहे। इसलिये उनके निशाने पर अंग्रेजी सिपाही और उनके सहायक व्यापारी और माल गुजार आ गये। उन्होंने जनजाति समाज के युवकों की टोली बनाई। वे तात्या टोपे से मिले, मराठों की छापामार युद्ध का तरीका सीखा और अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़ दिया अभियान।

अमर बलिदानी टंट्या भील का जन्म खंडवा जिले की पंधाना तहसील के अंतर्गत ग्राम बड़दा में हुआ था। उनके पिता भाऊसिंह एक सामान्य कृषक थे। माता का निधन बचपन में हो गया था। एक समय ऐसा भी आया जब पिता भी कुछ दिनों के लिये बंदी बनाये गये। टंट्या का पालन मामा मामी के यहाँ हुआ। उनका शरीर दुबला पतला और लंबा था, उनमें फुर्ती अद्भुत थी। मनोबल इतना कि बिना रुके मीलों दौड़ सकते थे। जनजातियों की भाषा में जो पौधा पतला और लंबा होता है उसे ‘तंटा’ कहते हैं। यही नाम पड़ गया जो आगे चलकर टंट्या हो गया।

उन्होंने बचपन में तीर कमान गोफन व लाठी चलाना बहुत अच्छे से सीख लिया था। आगे चलकर उनका विवाह वनवासी युवती कागज बाई से हो गया संतान भी हुई। आरंभिक जीवन एक सामान्य जनजातीय की भांति बीता। वे तीस वर्ष के हो गये। तब दो घटनाएं आसपास घटीं। यह वो समय था, जब ब्रिटिश सरकार 1857 की क्रान्ति के हुए नुकसान को लगान बढ़ा कर वसूल कर रही थी। वनोपज और कृषि उपज मानों बंदूक की ताकत से एकत्र की जा रही थी। यह 1872 के आसपास का कालखंड था। प्राकृतिक आपदा आरंभ हुई, जो लगभग 6 साल चली। कृषि और वनोपज दोनों घटीं। उत्पादन इतना भी नहीं था कि किसान अपना परिवार और पशु पाल सकें। लेकिन वसूली में कोई कटौती न हो सकी। भय और भूख से बेहाल लोगों का पलायन शुरु हुआ। नौबत भुखमरी तक आई। भूख से तड़पते लोग टंट्या से न देखे गये। वह 1876 का वर्ष था और 30 जून की तिथि। टंट्या ने जमींदार से बात की, जो अंग्रेजों के कहने पर अनाज कहीं भेजने वाला था। टंट्या के साथ बड़ी संख्या में जनजातीय व ग्राम के अन्य लोगों ने आग्रह किया कि यह अनाज भूख से मरते लोगों की जीवन रक्षा के लिये दे दो। लेकिन जमींदार अंग्रेजी दबाव से मजबूर था, बात न बनी और अंत में गोदाम पर धावा बोल दिया टंट्या ने, जमींदार के लठैत कुछ न कर सके। इससे अंग्रेज बौखला गये। टंट्या के साथ पूरे गाँव और अंचल के लोगों की गिरफ्तारी हुई यह संख्या 80 बताई जाती है। टंट्या 20 अन्य जनजातीय साथियों के साथ जेल की दीवार फांद कर भाग निकले। बस यहाँ से उनके और अंग्रेजी सिपाहियों के बीच भागदौड़ शुरू हुई। पूरा नवांचल और ग्रामीण क्षेत्र टंट्या के साथ था, कोई पता न बताता था। टंट्या की टीम बढ़ती जा रही थी। हर गाँव में उनके साथी होते। टंट्या के दो ही लक्ष्य होते थे। एक जहाँ कहीं अंग्रेज सिपाही दिखते उन पर हमला बोलना और दूसरे अंग्रेजों के दलाल मालगुजारों और जमींदारों के गोदाम लूटकर अनाज जनता के बीच बांटना।

समय के साथ उनका दायरा बढ़ा। संपूर्ण निमाड़ के साथ इससे लगी महाराष्ट्र की सीमा, खानदेश, विदर्भ होशंगाबाद बैतूल के समस्त पर्वतीय क्षेत्र में उनका दबदबा था। इस क्षेत्र में शायद ही कोई ऐसी रेलगाड़ी सुरक्षित निकली हो, जिस पर टंटया की टीम ने धावा न बोला हो।

उन्हें पकड़ने के लिये एक ओर अंग्रेजों ने इनाम घोषित किये, तो दूसरी ओर दो हजार सिपाहियों की कुमुक ने पीछा शुरू किया। कहते हैं टंटया पशु पक्षी की भाषा समझते थे। मिलिट्री मूवमेंट से भयभीत पशु पक्षी के संकेतों से टंट्या उनकी दिशा समझ लेते थे और सावधान हो जाते थे।

हारकर अंग्रेजों ने एक चाल चली। वनेर गाँव में उनकी बहन रहती थी। वे अक्सर राखी पर वहां जाते थे। अंग्रेजों ने पहले बहनोई से गुप्त संपर्क किया और इनाम का लालच देकर टंट्या को समर्पण के लिये तैयार करने कहा। टंट्या न माने। अंत में 1889 को राखी का त्यौहार आया। गणपत ने आग्रह पूर्वक बुलाया। टंट्या अपने बारह साथियों के साथ राखी बंधवाने आये और वहां पहले से वेश बदल कर उपस्थित अंग्रेज सिपाहियों के हाथ लग गये। उन पर लूट डकैती सिपाहियों से मारपीट और हथियार छीनने के कुल 124 मामले दर्ज थे। इन सब के लिये 4 दिसंबर 1889 को उन्हें फाँसी दे दी गयी। उन पर बहुत अत्याचार हुए कि वे अपने सहयोगियों और साथियों के नाम बता दें। लेकिन टंट्या का मुंह न खुला। यह भी कहा जाता है कि टंट्या के प्राण यातनाओं और भूखा प्यासा रखने में ही निकल गये थे। फांसी पर उनकी मृत देह को लटकाया गया।

जो हो आज अमर बलिदानी टंट्या भील पूरे वन अंचल में मामा के रूप में जाने जाते हैं। हर जनजातीय महिला चाहती है कि उसका भाई टंट्या जैसा हो। टंटया जितने अधिक वन अंचल की लोक गाथाओं, कहानियों और किंवदंतियों में प्रसिद्ध हैं, उतने ही इतिहास में कम।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *