अमेरिका, जिसका उपचार रोग से अधिक घातक है

अमेरिका, जिसका उपचार रोग से अधिक घातक है

बलबीर पुंज

अमेरिका, जिसका उपचार रोग से अधिक घातक हैअमेरिका, जिसका उपचार रोग से अधिक घातक है

कई व्यक्तियों की भांति कुछ राष्ट्र भी अपनी गलतियों से कभी नहीं सीखते। संभवत: वे बार-बार उन्हीं भूलों को दोहराने के लिए अभिशप्त हैं। अमेरिका इसका सबसे उपयुक्त उदाहरण है। बीते 16 दिसंबर को भारत ने 1971 के युद्ध पर पाकिस्तान पर विजय की स्वर्ण जयंती मनाई। इस अवसर पर बांग्लादेश में आयोजित समारोह में भारतीय राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी शामिल हुए। जब इसकी राजकीय तैयारियां जोरों पर थीं, तब उससे पहले अमेरिका ने 9-10 दिसंबर को आयोजित वर्चुअल लोकतंत्र सम्मेलन में बांग्लादेश को आमंत्रित नहीं किया। प्रतिकूल इसके, अमेरिका ने इस्लामी आतंकवाद के प्रमुख गढ़ पाकिस्तान को निमंत्रण भेज दिया। यह अलग बात है कि चीनी टुकड़ों पर पल रहे पाकिस्तान ने इस आयोजन से किनारा किया। यही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस के दिन अमेरिका ने जिन देशों (चीन, रूस, म्यांमार और उ.कोरिया सहित) के 10 संगठनों और 15 व्यक्तियों को प्रतिबंधित में डाला, उसमें बांग्लादेश के प्रमुख अर्धसैनिक बल रैपिड एक्शन बटालियन (आरएबी) के सात पूर्व और वर्तमान अधिकारी भी शामिल रहे।

बांग्लादेश 18 करोड़ की जनसंख्या वाला एक मुस्लिम बहुल देश है। इसका संविधान इस्लाम प्रदत्त है और दावा करता है कि यहां सभी गैर-इस्लामी मजहबों के अनुयायियों को बराबरी का दर्जा प्राप्त है। इसपर कई अवसरों पर प्रश्नचिन्ह लग चुका है, क्योंकि घोषित इस्लामी इको-सिस्टम में गैर-मुस्लिमों के प्रति सहिष्णुता, बहुलतावाद, समग्रता और बराबरी की भावना का पनपना ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा के कारण असंभव है। उदाहरणस्वरूप, 1947 में विभाजन के समय बांग्लादेश, जिसे तब पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था- वहां 28-30 प्रतिशत जनसंख्या हिंदू-बौद्ध मतावलंबियों की थी, जो अब घटकर 9 प्रतिशत रह गए। इस वर्ष भी दुर्गा पूजा के दौरान हजारों की संख्या में इस्लामी भीड़ ने कुरान के अपमान का बहाना बनाकर चुन-चुनकर अनगिनत हिंदुओं, 100 से अधिक मंदिरों और घरों पर हमले किए थे। इसमें 10 की मौत भी हो गई थी। इससे पहले इसी वर्ष मार्च में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बांग्लादेश यात्रा के दौरान भी उन्मादी इस्लामी भीड़ ने कई हिंदू मंदिरों को निशाना बनाया था।

क्या अमेरिका के बांग्लादेश विरोधी आचरण का कारण बांग्लादेश की उपरोक्त हालिया मजहबी घटनाएं हैं? यदि ऐसा होता, तो अमेरिका ने लोकतंत्र सम्मेलन में इस्लामी पाकिस्तान को आमंत्रित और मानवाधिकार हनन के मामले में उस पर प्रतिबंध लगाने से निग्रह क्यों किया, जहां के भी इस्लामी इको-सिस्टम में हिंदू-सिख 1947 में 15-16 प्रतिशत से घटकर 1.5 प्रतिशत से कम रह गए हैं, आए-दिन गैर-मुस्लिम युवतियों का जबरन मतांतरण बाद निकाह करा दिया जाता है, बचे-कुचे मंदिर-गुरुद्वारों पर हमले होते हैं और ईशनिंदा के नाम पर इस्लामी भीड़ द्वारा आरोपी की हत्या कर दी जाती है। हाल ही में सियालकोट स्थित कपड़ा कारखाने में बतौर महाप्रबंधक काम करने वाले श्रीलंकाई प्रियंता कुमारा को उन्मादी इस्लामी भीड़ ने ईशनिंदा के आरोप में पीट-पीटकर और जीवित जलाकर मार डाला था।

अमेरिका ने जिस प्रमुख बांग्लादेशी अर्ध सैनिकबल आरएबी पर प्रतिबंध लगाया है, उसने हालिया हिंदू-विरोधी दंगों पर काबू पाने के साथ इस्लामी कट्टरवाद-आतंकवाद की कमर तोड़ने में मुख्य भूमिका निभाई है। बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना अपने पिता और बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर्रहमान की भांति पंथनिरपेक्षता और लोकतंत्र की पक्षपोषक रही हैं। इन्हीं विचारों और उनकी रक्षा हेतु प्रतिबद्धता के कारण बांग्लादेशी कट्टर इस्लामी, हसीना को “मुर्तद” (इस्लाम का त्याग करने वाला) मानते हैं।

यह किसी से छिपा नहीं कि बांग्लादेशी मुख्य विपक्षी दल- बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी), जमात-ए-इस्लामी से लेकर हिफ़ाज़-ए-इस्लाम जैसे कट्टरपंथी समूह- इस्लाम में पंथनिरपेक्षता का विरोध करते हैं। यही कारण है कि जब बीएनपी इस्लामी कट्टरपंथियों के सहयोग से बांग्लादेश की सत्ता में होती है, तब वहां अल्पसंख्यक हिंदुओं, बौद्धों और ईसाइयों के खिलाफ नरसंहार के मामले बढ़ जाते हैं। इस पृष्ठभूमि में अमेरिका द्वारा आरएबी पर कार्रवाई से वहां खालिस शरीयत के पक्षधर फिर से एकजुट होंगे, जो हसीना सरकार, हिंदू-बौद्ध आदि अल्पसंख्यकों और भारत के लिए ठीक नहीं।

बांग्लादेश की इस्लामी पार्टियां और समूह को भारत-हिंदू विरोधी चिंतन की प्रेरणा इस्लामी आक्रांताओं, उनके विषैले दर्शन से 1947 में भारत के रक्तरंजित विभाजन और उससे जन्मे पाकिस्तान में 1970-71 के दानवीय शासनकाल से मिलती है। 1970 के पाकिस्तानी चुनाव (अपने जन्म का पहला चुनाव) में शेख मुजीबुर्रहमान की आवामी लीग को बहुमत प्राप्त हुआ था। पश्चिमी पाकिस्तान के सैन्य शासकों और पंजाबी-उर्दूभाषी मुस्लिम राजनीतिज्ञों को एक बंगाली मुसलमान द्वारा सरकार चलाना स्वीकार नहीं हुआ। तब सैन्य तानाशाह याह्या खान ने मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर लिया, जिसके परिणामस्वरूप पूर्वी पाकिस्तान की स्वायत्तता हेतु मुक्तिवाहिनी का संघर्ष प्रारंभ हो गया और इसे कुचलने के लिए मार्च 1971 में पाकिस्तानी सेना ने मध्यकालीन इस्लामी अभियान छेड़ दिया। तब सेना को मजहब के नाम पर रजाकार, अल-बद्र और अल-शम्स जैसे इस्लामी संगठनों का समर्थन मिला। लाखों लोगों को मार दिया गया, तो पाकिस्तानी सैनिकों और उसके सहयोगियों ने चार लाख से अधिक महिलाओं-युवतियों का बीभत्स बलात्कार करके आधुनिक विश्व का सबसे काला अध्याय लिख दिया।

इस मजहबी दंश का शिकार अधिकांश हिंदू हुए, जिससे पूर्वी पाकिस्तान से भारत में अभूतपूर्व पलायन हुआ। जब दिसंबर 1971 में तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ने पूर्वी बंगाल में पाकिस्तानी सेना के क्रूर अत्याचारों से निपटने हेतु सैन्य विकल्प चुना, तब अमेरिका के तत्कालीन निक्सन प्रशासन ने पाकिस्तान के सहयोग हेतु बंगाल की खाड़ी में अपना जंगी जहाज तैनात कर दिया। चीन भी तब अपनी भारत विरोधी नीतियों के कारण पाकिस्तान का समर्थन कर रहा था। आज वही अमेरिका, बांग्लादेशी आरएबी पर प्रतिबंध लगाकर शेख हसीना सरकार के इस्लामी आतंकवाद विरोधी नीतियों को कुंद करने का प्रयास कर रहा है। स्पष्ट है कि विश्व के किसी भी मामले में अमेरिकी उपचार, बीमारी से अधिक घातक सिद्ध हुआ है।

ऐसी ही गलती अमेरिका अफगानिस्तान के मामले में भी कर चुका है। 1980 के दशक में जिन मुजाहिद्दीनों को अमेरिका ने पाकिस्तान-सऊदी के सहयोग से अफगानिस्तान में ‘काफिर’ सोवियत संघ के खिलाफ ‘जिहाद’ हेतु खड़ा किया और उन्हें हथियार-पैसे दिए, वह 1994 से तालिबान बनकर लगभग तीन दशकों से भारतीय उपमहाद्वीप की क्षेत्रीय शांति-सुरक्षा को गंभीर चुनौती दे रहा है। यही नहीं, वर्ष 2001 में न्यूयॉर्क के 9/11 आतंकी हमले के बाद जिस तालिबान को अमेरिका ने अफगानिस्तान से खदेड़ा, जिसमें उसके 7,000 से अधिक सैनिक तालिबानी गोली का शिकार बने और उसके लगभग 160 लाख करोड़ रुपये स्वाह हुए- उसी तालिबान को ‘अच्छे-बुरे’ में बांटकर अमेरिका ने दो दशक बाद उससे दोहा में समझौता कर लिया और परोक्ष रूप से तालिबान को सत्ता सौंपकर अफगानिस्तान से चलता बना।

यह ठीक है कि सभी जिम्मेदार देशों की विदेश-नीति में अपना हित सर्वोपरि होता है, किंतु उन्हें श्रेष्ठ जीवंत जीवनमूल्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता। अमेरिका जहां विश्व का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र है, तो भारत इस संदर्भ में सबसे बड़ा देश है। जैसे आज इन दोनों देशों में एक स्वाभाविक सहयोग है, वैसा दशकों पहले भी होना चाहिए था। किंतु उसने अपने विशुद्ध हितों के लिए रूस (सोवियत संघ सहित) से शीतयुद्ध की आड़ में आतंकवाद के कारखाने पाकिस्तान का सामरिक-आर्थिक समर्थन किया और आज भी स्थिति अधिक बदली नहीं है। अमेरिका फिर वैसी ही गलती, चीन से अपने कटु संबंधों के कारण दोहरा रहा है। उसके द्वारा बांग्लादेश में आतंकवाद विरोधी आरएबी पर प्रतिबंध लगाना और पाकिस्तान को लोकतंत्र मानना- इसका प्रमाण है।

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