अयोध्या में श्रीराम मंदिर राष्ट्रीय मूल्यों और आचरण का प्रतीक है – डॉ. मोहन भागवत
मुंबई/ नई दिल्ली, 9 अक्टूबर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत का कहना है कि राम मंदिर का आंदोलन भले ही समाप्त हो गया हो पर श्रीराम का विषय कभी समाप्त नहीं होगा। हिंदी मासिक ‘विवेक’ के साथ साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ”श्रीराम भारत के बहुसंख्यक समाज के लिए भगवान हैं और जिनके लिए भगवान नहीं भी हैं, उनके लिए आचरण के मापदंड तो हैं ही। भगवान श्रीराम भारत के उस गौरवशाली भूतकाल का अभिन्न अंग हैं, जो भूतकाल भारत के वर्तमान और भविष्य पर गहरा प्रभाव डालता है। राम थे, हैं, और रहेंगे। जबसे श्रीराम प्रकट हुए हैं तब से यह विषय है और आगे भी चलेगा। श्रीराम जन्मभूमि का आंदोलन जिस दिन ट्रस्ट बन गया उस दिन समाप्त हो गया।”
डॉ. भागवत ने कहा कि अयोध्या में श्रीराम मंदिर मात्र पूजा पाठ के निमित्त नहीं है, वह राष्ट्रीय मूल्यों और आचरण का प्रतीक है। उन्होंने कहा ” पूजा पाठ करने के लिए हमारे पास बहुत मंदिर हैं। इस के लिए इतना लंबा प्रयास करने की हिंदू समाज को कोई जरूरत नहीं थी। वास्तविकता यह है कि ये प्रमुख मंदिर इस देश के लोगों के नीति एवं धैर्य को समाप्त करने के लिए तोड़े गए थे। इसलिए हिंदू समाज की तब से ही यह इच्छा थी कि ये मंदिर फिर से खड़े हो जाएँ। स्वतंत्र होने के बाद वे खड़े हो रहे हैं, लेकिन केवल प्रतीक खड़े होने से काम नहीं चलता। जिन मूल्यों एवं आचरण के वे प्रतीक हैं, वैसा बनना पड़ता है।”
उन्होंने कहा कि हमें श्रीराम के आदर्श को, उस आचरण को, उन मूल्यों को अपने हृदय में धारण करना होगा। इसी लिए यह मंदिर बनाने का आग्रह है। सरसंघचालक ने कहा ”देश में इस संदर्भ में जागरूकता आनी चाहिए। इस भावना को सम्मान दिया जाना चाहिए। हमारे आदर्श श्रीराम के मंदिर को तोड़कर, हमें अपमानित करके हमारे जीवन को भ्रष्ट किया गया। हमें उसे फिर से खड़ा करना है, बड़ा करना है, इसलिए भव्य-दिव्य रूप से राम मंदिर बन रहा है।”
”काशी विश्वनाथ और मथुरा श्रीकृष्ण जन्मभूमि मुक्ति का आंदोलन भी क्या भविष्य में चलाया जायेगा?,” इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, ”हमको नहीं पता, क्योंकि हम आंदोलन करने वाले नहीं हैं। श्रीराम जन्मभूमि का आंदोलन भी हमने शुरू नहीं किया, वह समाज द्वारा बहुत पहले से चल रहा था। अशोक सिंहल जी के विश्व हिंदू परिषद में जाने से भी बहुत पहले से चल रहा था। बाद में यह विषय विश्व हिंदू परिषद के पास आया। हमने आंदोलन प्रारंभ नहीं किया, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में हम इस आंदोलन से जुड़े। कोई आंदोलन शुरू करना यह हमारे एजेंडे में नहीं रहता है। हम तो शांतिपूर्वक संस्कार करते हुए प्रत्येक व्यक्ति का हृदय परिवर्तन करने वाले लोग हैं। हिंदू समाज क्या करेगा, यह मुझे पता नहीं, यह भविष्य की बात है। इस पर मैं अभी कुछ नहीं कह सकता हूँ। मैं इतना बताना चाहता हूँ कि हम लोग कोई आंदोलन शुरू नहीं करते।”
राम मंदिर तथा राष्ट्र निर्माण में विभिन्न संप्रदायों और पंथों की भूमिका को लेकर संघ के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा, ”जिनके स्वार्थों पर आघात होता है, वे लोग बार-बार अलगाव व कट्टरता फैलाने का प्रयास करते हैं। वास्तव में हमारा ही एकमात्र देश है जहाँ पर सब के सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश है जहाँ पर उस देश के वासियों की सत्ता में दूसरा संप्रदाय रहा हो जो उस देश के वासियों का नहीं और वह अभी तक चल रहा है? ऐसा कोई नहीं। वह केवल हमारा देश ही है। इस्लाम के आक्रमण से कुछ समय पहले मुसलमान भारत में आये। आक्रमण के साथ बहुत अधिक संख्या में आए। बहुत सारा खून-खराबा, संघर्ष, युद्ध, बैर का इतिहास रहा है। फिर भी हमारे यहाँ मुसलमान हैं। हमारे यहाँ इसाई हैं। उनके साथ किसी ने कोई बुरा नहीं किया। उन्हें तो यहाँ सारे अधिकार मिले हुए हैं।उन्हें तो यहाँ सारे अधिकार मिले हुए है, पर पाकिस्तान ने तो अन्य मतावलंबियों को वे अधिकार नहीं दिए। हिंदुस्थान का बँटवारा कर मुसलमानों के रहने के लिए पाकिस्तान बना। उस समय की स्थिति के अनुसार भारत में हिंदुओं की ही चलेगी और किसी की नहीं चलेगी, ऐसा हमारे संविधान ने नहीं कहा। हमारी संविधान सभा में सब प्रकार के लोग थे। बाबासाहेब आंबेडकर भी यह मानते थे कि जनसंख्या की अदला-बदली होनी चाहिए। परंतु उन्होंने भी यहाँ जो लोग रह गए उन्हें स्थानांतरित (Transfer ) करना पड़े, ऐसा संविधान नहीं बनाया। उनके लिए भी एक जगह बनाई गई। यह हमारे देश का स्वभाव है और इस स्वभाव को हिंदू कहते हैं। हम किसकी पूजा करते हैं, उससे हिंदू का कोई संबंध नहीं है। धर्म जोड़ने वाला, ऊपर उठाने वाला, समाज को एक सूत्र में पिरोने वाला होना चाहिए।”
शिक्षा नीति के बारे में उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में कहा, ”हमें पढ़ना है लेकिन पैसे के लिए नहीं। लेकिन पढ़ाई आपको भूखा रखने के लिए भी नहीं है। अगर आप पढ़ोगे तो अपना जीवन ठीक से चला सकोगे इतना आत्मविश्वास होना चाहिए। लेकिन केवल आपका जीवन ठीक चले इसके लिए शिक्षा नहीं है। सबका जीवन आप ठीक चला सकें इसलिए आपको शिक्षित होना है। यह दृष्टि वह प्राप्त कर ले, इसके लिए घर के संस्कार भी उपयुक्त हों, विद्यालय का पाठ्यक्रम, शिक्षकों का आचरण और समाज का वातावरण यह चारों बातें ऐसी होनी चाहिए। आप जो प्रश्न कर रहे हैं वह सिर्फ शिक्षा नीति के बारे में है लेकिन शिक्षा तो इन चारों से होती है। इन चारों का भी विचार करना होगा। हमारी शिक्षा दुनिया के संघर्ष में खड़ा होकर अपना और अपने परिवार का जीवन चला सके इतनी कला और इतना विश्वास देने वाली होनी चाहिए। दूसरा इस दुनिया से मैंने लिया है तो इस दुनिया को मैं वापस करूँगा, इसके लिए मुझे जीना है। तीसरी बात यह जीवन जीते समय जो शिक्षा मुझे मिली है, उसके आधार पर सब अनुभवों में से मैं जीवन के लिए कुछ सीख लूँगा, जीवन के उतार-चढ़ावों में से जाते समय मैं जीवन के आनंद को ग्रहण करूंगा। सकारात्मक दृष्टिकोण निर्माण होगा। शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए। अभी जो शिक्षा नीति बनी है उसमें कुछ कदम इस तरफ बढ़े हैं, यह अच्छी बात है। लेकिन इसे पूर्णता नहीं माननी चाहिए। पूर्ण नीति सरकार जब भी बनाएगी तब बनाएगी, पर तब भी इसका क्रियान्वयन केवल शिक्षा व्यवस्था नहीं करती है, धर्म और समाज भी करता है। सब मिलाकर इस वातावरण को बनाकर हमें चलना है।”
भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति के संदर्भ में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा,”हम स्त्रियों का बराबरी में योगदान चाहते हैं। उनको बराबरी में लाना पड़ेगा। उनको सक्षम करना पड़ेगा, उनको प्रबोधन देना पड़ेगा, उनको सशक्त बनाना पड़ेगा। कर्तृत्व उनमें है। उनको बाकी मदद करने की जरूरत नहीं है। हमने जो दरवाजा बंद किया है केवल वह खोलना पड़ेगा। उनको ना तो देवी बनाकर पूजा घर में बंद रखो और ना ही दासी बना कर उसे किसी कमरे में बंद करो। उनको भी बराबरी से काम करने दो, जिम्मेदारी लेने दो इसके लिए उसे सशक्त बनाओ। उसे आगे बढ़ाओ। अगर उसकी इच्छा है तो आर्थिक दृष्टि से वह संपूर्ण हो सके, ऐसी उसको कला दो और अवसर दो। इस दिशा में हम थोड़े-थोड़े आगे बढ़ रहे हैं। यह हम करेंगे तो वह बराबरी से अपना सहभाग और सहयोग करेगी। … “इसलिए यह बराबरी का सहभाग और बराबरी की तैयारी”, महिलाओं के बारे में यह स्थायी विचार होना चाहिए।”
कोरोना से उपजी चुनौतियों के विषय में श्री भागवत ने कहा, ”आज अपने देश में विशेषकर युवा पीढ़़ी में अपने देश को बड़ा बनाने की चाह है। सौभाग्य से घटनाएँ ऐसी घट रही है कि हमारा विश्वास अधिक से अधिक बढ़ रहा है। कोरोना की आपत्ति में स्वतंत्रता के बाद पहली बार यह दृश्य हमने देखा कि बिना किसी के बताए पूरा-पूरा समाज एक साथ खड़ा हो गया। किसी ने भी सरकार की राह नहीं देखी। स्वयं से होकर किया।…हमने देखा कि कोरोना के समय अनेक मालिकों ने अपने मजदूरों को बिना काम के भी रखा, छोड़ा नहीं, उन्हें पूरा वेतन दिया। अब मालिक अपना उद्योग शुरु करने जा रहे हैं तो बहुत अधिक स्थानों पर यह अनुभव आ रहा है कि मज़दूर कह रहे हैं कि उस समय आपने हमको पाला, अब आप कठिनाई में हैं तो आप वेतन बाद में दे देना। हम कार्य प्रारंभ करते हैं। सब मिलाकर समाज एक साथ खड़ा हुआ है। दूसरी बात, शासन व्यवस्था, प्रशासन व्यवस्था जो कुछ कहती है उसका अपने समाज के अनुशासन के स्त्तर का देखेंगे तो उसकी तुलना में उसने उसका बहुत अच्छा पालन किया है। और सिर्फ पालन ही नहीं किया, एक विश्वास का नाता भी दिखा।”
‘रामराज्य की संकल्पना क्या है और उसे हम वर्तमान में किस प्रकार से पूरी कर सकते हैं?,’ इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, ”लोगों की नियत-नीति, भौतिक अवस्था, राजा की नियत-नीति और भौतिक अवस्था यानि राज्य शासन में जितने भी लोग हैं और इस बीच जो प्रशासन है यह तीनों की जो गुणवत्ता (क्वालिटी) है। वह गुणवत्ता हमको फिर से लानी पड़ेगी। उस क्वालिटी को रामराज्य कहते हैं। उसके परिणाम यह है कि रोग नहीं रहते, असमय मृत्यु नहीं होती, कोई भूखा नहीं, कोई प्यासा नहीं, कोई भिखारी नहीं, कोई चोर नहीं, कोई दंड देने के लिए नहीं तो फिर दंड क्या करें। यह सारी बातें परिणाम स्वरूप है क्योंकि उसके मूल में राज्य व्यवस्था-प्रशासन व्यवस्था और सामाजिक संगठन इन तीनों की एक वृत्ति है। राम के अवतार लेने से यह नहीं होगा। राम का अवतार तो बाधा हटाने के लिए था। समाज की ऐसी स्थिति थी इसलिए बाधाएँ हटने के बाद यह सब हो गया। तो आज समाज की स्थिति रामराज्य जैसी बनानी पड़ेगी। क्योंकि आज राजा भी और प्रशासन भी समाज से ही जा रहा है। हम वहां से शुरू करेंगे तो राम राज्य आएगा।”
(हिंदी मासिक ‘विवेक’ के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी के साक्षात्कार के प्रमुख अंश)