आखिर सीमा पर चीन के नवीनतम दुराचार का कारण क्या?

आखिर सीमा पर चीन के नवीनतम दुराचार का कारण क्या?

बलबीर पुंज

आखिर सीमा पर चीन के नवीनतम दुराचार का कारण क्या?आखिर सीमा पर चीन के नवीनतम दुराचार का कारण क्या?

सीमा पर कुटिल चीन के हालिया दुस्साहस का कारण क्या है? डोकलाम (2017) और गलवान (2020-21) प्रकरण के बाद अरुणाचल प्रदेश के तवांग स्थित 17,000 फीट ऊंची यांग्त्से चोटी पर 9 दिसंबर को चीनी पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) सैनिकों ने भारतीय चौकी को हटाने के लिए जबरन भीतर घुसने का प्रयास क्यों किया? 13 दिसंबर को संसद में दिए वक्तव्य में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने बताया, “चीन ने यांगत्से क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर यथास्थिति को ‘एकतरफा’ ढंग से बदलने की कोशिश की, लेकिन भारतीय सेना ने ‘दृढ़ता से’ कार्रवाई कर उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।” 15-16 जून 2020 की हिंसक गलवान झड़प के बाद भारतीय सेना पहले से अधिक चौकस और प्रतिकार हेतु तत्पर है। तवांग घटनाक्रम इसका प्रमाण है, जिसमें बकौल मीडिया रिपोर्ट, भारतीय जवानों ने न केवल चीनी सैनिकों की घुसपैठ को विफल किया, अपितु अपने बाहुबल ने कई पीएलए सैनिकों की हड्डियां तक तोड़ दी।

आखिर सीमा पर चीन के इस नवीनतम दुराचार का कारण क्या है? इसकी कई संभावनाएं हो सकती हैं। इसमें से एक चीन की आंतरिक स्थिति का अच्छा नहीं होना है। प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से वैश्विक महामारी कोविड-19 संक्रमण के उद्गम-स्थल चीन में कोरोना के मामले फिर से बढ़ने और चीन की ‘जीरो कोरोना नीति’ (प्रभावहीन कोविड वैक्सीन सहित) विफल होने से बीते दिनों जनाक्रोश चरम पर पहुंच गया। चीनी सरकार ने अपने अमानवीय वैचारिक दर्शन के अनुरूप, जो तीन वर्षों से सख्त (हालिया सहित) उपाय किए— उससे जनता में संयंम का बांध एकाएक टूट गया। राजधानी बीजिंग के साथ 13 चीनी नगरों में स्थानीय लोग वामपंथी सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतर आए। इस दौरान लोग नारेबाजी करते हुए लॉकडाउन हटाने और आजादी देने की मांग की। प्रदर्शनकारी ‘प्रेस की स्वतंत्रता’, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘आंदोलन की स्वतंत्रता’ आदि नारों के साथ राष्ट्रपति शी जिनपिंग को पद से हटाने की मांग की। यह गुस्सा उन सरकारी नीतियों के विरुद्ध है, जिससे चीन में दवा आपूर्ति के साथ आवश्यक दुकानों के साथ अन्य संस्थान ठप हो गए हैं। अधिकांश विक्रेताओं के बाहर लोगों की लंबी-लंबी कतार देखने को मिल रही हैं और जो दुकानें खुली भी हैं, वहां पर्याप्त वस्तुएं उपलब्ध नहीं हैं। लोगों में रोष के बाद चीन ने अपनी कोविड नीति में कुछ ढील देना प्रारंभ किया है। इस पृष्ठभूमि में तवांग में उकसावे भरी हरकत, कहीं चीन में व्याप्त सरकार विरोधी असंतुष्टता से ध्यान हटाने हेतु उपक्रम तो नहीं?

साम्राज्यवादी चीन का कपट न तो नया है और न ही यह उसके पड़ोसी देशों (भारत सहित) तक सीमित है। बीते दिनों ब्रिटेन ने चीन को लंदन स्थित एक ऐतिहासिक भवन के स्थान पर नया दूतावास बनाने से रोक दिया। यह क्षेत्र 5.4 एकड़ में फैले ‘रॉयल मिंट कोर्ट’ में है, जिसे ब्रिटिश राजशाही ने वर्ष 2010 में एक कंपनी को बेच दिया था। वर्ष 2018 में चीन ने कंपनी से उसे खरीद लिया। लंदन में टॉवर हैमलेट्स बोरो परिषद के अधिकारियों की आपत्तियों के बाद ब्रितानी सरकार ने चीन को ‘सुपर-एंबेसी’ बनाने की अनुमति देने से मना कर दिया। इससे पहले कनाडा के टोरंटो में अघोषित चीनी पुलिस थाने चलाए जाने का मामला सामने आया था, जिसमें विदेशी शक्ति द्वारा आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की जांच की जा रही है। नीदरलैंड में भी चीनी पुलिस थाने संचालित किए जाने का मामला सामने आ चुका है।

सच तो यह है कि जिस मानसिकता से ग्रस्त होकर तानाशाह अडोल्फ हिटलर ने जर्मनी, इंग्लैंड सहित आदि देशों और अधिनायकवादी जोसेफ स्टालिन ने पूर्वी यूरोप के साथ किया था, उसी विकृत चिंतन से जकड़कर निरंकुश चीन और उसके वर्तमान राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपनी विस्तारवादी योजनाओं को मूर्त रूप दे रहे है। स्वतंत्र भारत के संदर्भ में चीन 1960 के दशक से घात लगाकर औचक हमला करता रहा है, जिसमें उसने तत्कालीन भारतीय नेतृत्व की अदूरदर्शी-अकर्मण्य नीतियों का लाभ उठाकर कई अवसरों पर भारतीय भूखंड पर कब्जा भी जमा लिया। वर्ष 1962 के युद्ध में भारत की शर्मनाक पराजय और उसके बाद वर्षों तक एलएसी के निकट क्षेत्र को अविकसित रखने का विचार— इसका प्रमाण है।

तवांग संघर्ष का तीसरा संभावित कारण यह भी हो सकता है कि चीन ‘नए भारत’ को समझने की कोशिश कर रहा है। डोकलाम और गलवान के बाद चीन समझ चुका है कि वर्तमान भारत 1962 की पराजय मानसिकता से बाहर निकल चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता और अखंडता के प्रति ‘शून्य-सहनशील’ नीति अपनाई जा रही है। इसी संबंध में वर्तमान सरकार सीमा पर— विशेषकर एलएसी पर वांछनीय और अत्यंत आवश्यक आधारभूत संरचनाओं (सैन्य सहित) का विस्तार कर रही है। कई अन्य परियोजनाओं के साथ 14,032 करोड़ रुपये की लागत से 2,000 किलोमीटर लंबे अरुणाचल फ्रंटियर हाईवे का निर्माण किया जा रहा है। इससे भारतीय सेना का आपातकाल में सीमा तक पहुंचना सुगम हो जाएगा। एलएसी के पास ‘सीमा सड़क संगठन’ ने पिछले पांच वर्षों में 2089 किलोमीटर सड़क का विस्तार किया है। वर्ष 2020-21 का गलवान मामला भारत द्वारा सड़क निर्माण के विरूद्ध चीनी बौखलाहट का परिणाम था। हालिया तवांग प्रकरण से नौ दिन पहले चीन ने औली में भारत-अमेरिका युद्धाभ्यास पर भृकुटी चढ़ा ली थी।

चीन को लेकर कुछ संदेश स्पष्ट है। पहला— कुटिल चीन सीमा विवाद का हल वार्ता के बजाय सैन्य हस्ताक्षेप से करना चाहता है। दूसरा— भारत-अमेरिका के बीच बढ़ती घनिष्ठता से चीन कुंठित है और उसकी काट हेतु चीन, भारत के सदाबहार मित्र रूस से निकटता बढ़ा रहा है। तीसरा— भारत को सीमा पर अपनी सैन्य क्षमता को दुर्जेय बनाना होगा। इसके साथ एलएसी पर आधारभूत ढांचे को चीनी निर्माण के समकक्ष करना होगा। चौथा— भारत को चीन पर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्भरता कम करनी होगी। 12 दिसंबर को भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, देश में 174 चीनी कंपनियां, विदेशी कंपनियों के रूप में पंजीकृत हैं, तो 3,560 कंपनियों में निदेशक चीनी है। क्या बदलते वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत इस स्थिति को बदल पाएगा?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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