आद्य शंकराचार्य : जिनके कालजयी दर्शन को कालगणना की शताब्दियां भी बांध न सकेंगी

 डॉ. शुचि चौहान

आत्मा ही एकमात्र सत्य है और वही चैतन्य, परिमाण रहित, निर्गुण और असीम परमानन्द है, ऐसे विचार देने वाले आदि शंकराचार्य की आज जयंती है।

आचार्य शंकर का जन्म केरल के कालडी गॉंव में हुआ था। ओंकारनाथ तीर्थ में नर्मदा के तट पर शंकर ने श्री गोविन्दपाद से सन्यास की दीक्षा ली और बहुत छोटी-सी आयु में ही यह तरुण सन्यासी अनेक भ्रान्तियाँ नष्ट करता हुआ, सर्वदूर अद्वैत का प्रतिपादन करता चला गया।

भारतवर्ष की पुण्यभूमि पर अवतरित महान विभूतियों में आद्य शंकराचार्य का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ जब कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की स्थिति संकटपूर्ण तथा शोचनीय थी। देशभर को एकसूत्र में बाँधकर रखने वाला कोई सार्वभौम राजा नहीं था। देश छोटे-छोटे छप्पन से भी अधिक राज्यों में विभाजित हो गया था। सामाजिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न थी सनातन धर्म के परिपालन में अनेक विकृतियों, विसंगतियों तथा कुरीतियों का प्रवेश हो गया था। आध्यात्मिक क्षेत्र का संकट तो चरमबिन्दु पर था। वैदिक तथा अवैदिक बहत्तर से भी अधिक मत प्रचलित थे, जिनमें अनेक परस्पर विरोधी भी थे। आचार्य शंकर ने उस समय की कठिन परिस्थितियों में युगानुकूल शास्त्रों की रचना की और सम्पूर्ण देश की यात्रा सम्पन्न की।

केरल से चलकर वे उत्तर में केदारनाथ और बद्रीनाथ तक आ गए, और यहाँ से दक्षिण के चिदम्बरम तक जा पहुँचे। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अनेक धर्मशास्त्रों, दर्शनों, पुराणों के प्रकाण्ड पंडितों को बड़ी सरलता से पराजित कर दिया था। यह एक दार्शनिक दिग्विजय के साथ ही एक नये सुधार युग का प्रारम्भ था। श्री आद्य शंकराचार्य की व्यापक सफलता के पीछे उनकी बौद्धिक प्रतिभा, अतुलनीय कर्मठता तथा उदारता थी। उन्होंने निरर्थक कर्मकाण्डों का खण्डन किया।

श्री शंकराचार्य ने कैसे एक चाण्डाल से प्रभावित हो उसे अपना गुरू मान लिया, यह वार्तालाप काफी प्रसिद्ध है। आद्य शंकर काशी में गंगास्नान करने जा रहे थे, मार्ग में एक चाण्डाल रास्ता रोके खड़ा मिल गया। शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी तथा कमर में चार कुत्ते भी बाँध रखे थे। श्री शंकराचार्य  के शिष्यों ने उसे दूर हटने को कहा। इस पर चाण्डाल ने भगवत्पाद शंकराचार्य से पूछा- महाराज! सर्वात्मैक्य तथा अद्वैत का सन्देश देने वाले आप किसे ‘गच्छ दूरमिति’ कहकर दूर हटने को कह रहे हैं? अन्न-निर्मित एक शरीर को, अन्न-निर्मित दूसरे शरीर से दूर जाने के लिए कह रहे हैं या एक चैतन्य स्वरूप को दूसरे चैतन्य स्वरूप से दूर करना चाहते हैं? क्या अभिप्राय है आपका? गंगा की धारा या चाण्डालों की बस्ती में स्थित बावड़ी के पानी में प्रतिबिम्बित होने वाले सूर्य के बीच क्या कोई अंतर है? अचिन्त्य, अव्यक्त, अनन्त आद्य, उपाधि शून्य सभी शरीरों में रहने वाले एक पूर्ण अशरीरी पुराण पुरुष की इस प्रकार उपेक्षा आप क्यों कर रहे है ?

इन वचनों को सुनकर श्री शंकराचार्य को अपने शिष्यों की भूल का बोध हुआ तथा उन्हें ऐसा आभास हुआ कि विद्वान् चाण्डाल तो साक्षात् शिव का रूप ही हैं। उन्होंने चाण्डाल को शिव मानकर प्रणाम किया और अपना गुरू मान लिया। अब सच्चे अर्थों में सर्वात्मैक्य तथा अद्वैत का भाव श्री शंकराचार्य के मन में जाग चुका था। प्राणीमात्र की समानता के मौलिक सिद्धान्तों को व्यावहारिक जगत में उतारने के लिए उन्होंने नवीन व्याख्याएँ दीं। आद्य शंकराचार्य को एक नया बोध हुआ। सभी प्राणियों के अन्दर आधारभूत समानता के सिद्धान्त को नई परिभाषा मिल गई।

काशी की घटना के पश्चात् शिव का आदेश मानकर वे बदरिकाश्रम गए और वहाँ पर व्यास-गुहा में चार वर्ष रह कर उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र’, ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ एवं प्रधान ‘उपनिषदों’ पर भाष्य रचना का कार्य सम्पन्न किया।

देश के चारों कोनों में दक्षिण में ‘शृंगेरीमठ’, पश्चिम में द्वारिका का ‘शारदामठ’, उत्तर में बद्रीनाथ का ‘ज्योतिर्मठ’ तथा पूर्व में जगन्नाथपुरी के ‘गोवर्धनमठ’ के रूप में चार मठों की स्थापना की। इन मठों को स्थापित कर वे एक ओर जहॉं देश को सांस्कृतिक एवं धार्मिक स्तर पर जोड़ रहे थे, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सन्यासियों की दस श्रेणियाँ (दशनामी) बनाकर हिन्दू समाज को अनुशासित एवं आवश्यकता पड़ने पर ‘संघर्ष-सिद्ध’ करने का भी स्तुत्य प्रयास किया। गणपति को आराध्य मानकर भारत के कोने-कोने में द्वादश गणपति मन्दिरों का निर्माण किया तो अठारह ज्योतिर्लिंगों की स्थापना कर भारतभूमि की परिक्रमा करने का प्रयत्न किया। क्या यह कोई महज संयोग ही था कि केरल के ‘कालडी’ से यात्रा प्रारम्भ करके श्री शंकराचार्य ने हिमालय की गोद केदारनाथ धाम में समाधि लेकर देश की एकता को नया आयाम दिया।

यदि बत्तीस वर्ष की छोटी-सी उम्र में ही श्री शंकराचार्य जी की असामयिक मृत्यु न हुई होती तो दशनामी सन्यासियों तथा चारों मठों के एक साथ प्रारम्भ हुए प्रयासों के फलस्वरूप, समूचे भारत की आध्यात्मिक तथा सामाजिक एकता आगे चलकर, संगठित राजनीतिक चेतना का योग्य दिशा निर्देशन कर, भारत के ऊपर हो रहे बाह्य आक्रमणों को पराजित करने में निश्चित ही सफल हो जाती। इतिहास इस बात का साक्षी है कि इतना समय बीतने के पश्चात् आज भी आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित इन व्यवस्थाओं ने राष्ट्रीय एकात्मता में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इसे स्वीकारते हुए ही राष्ट्रपति वेंकटरमण ने कहा था कि शंकराचार्य को कालगणना की शताब्दियाँ और सहस्राब्दियाँ बाँध न सकेंगी, उनका दर्शन कालातीत और कालजयी है।

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